भविष्य निधि पर गिद्ध दृष्टि डालने वाली मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बेंगलुरु की स्त्री गारमेंट मज़दूरों ने संभाली कमान, सरकार को झुकाया
शिशिर गुप्ता
पिछली 18 अप्रैल को बेंगलूर के सैकड़ों रेडीमेड कपड़ों के कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की विशाल संख्या सड़कों पर उतर आयी। उन्होंने बेंगलूर की सबसे महत्वपूर्ण सड़कों में से एक, होसुर रोड को घंटों तक जाम कर दिया। ये वही सड़क है जो बेंगलूर की इलेक्ट्रॉनिक सिटी तक जाती है जहाँ तमाम सॉफ़्टवेयर और आयीटी कम्पनियों के आलीशन दफ़्तर हैं। भारी संख्या में सशस्त्र पुलिस बल के बर्बर दमन के बावजूद मज़दूरों ने पुलिस से डटकर मोर्चा लिया। ग़ुस्साये मज़दूरों ने पुलिस थानों पर हमला किया और कई बसों को भी आग लगा दी। मज़दूरों के उग्र आन्दोलन के आगे सरकार को घुटने टेकने पड़े और यह घोषणा करनी पड़ी कि प्रोविडेंट फ़ंड (पी.एफ़.) के नियमों में होने वाले बदलाव वापस ले लिये जायेंगे। इस आन्दोलन ने मज़दूरों के अधिकारों पर लगातार हमले कर रही मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी इरादों पर करारी चोट की है।
बेंगलूर के गारमेंट मज़दूरों में करीब 85 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं और इस आन्दोलन में भी सबसे बड़ी तादाद में स्त्रियाँ ही थीं और अगुवाई भी उन्हीं के हाथों में थी। इसने एक बार फिर साबित किया कि स्त्रियाँ अगर अपने हक़ के लिए जाग उठें तो ज़बर्दस्त जुझारू ढंग से लड़ती हैं और दमन-उत्पीड़न भी उनके हौसलों को तोड़ नहीं पाता। 18 अप्रैल को मज़दूरों की बग़ावत अचानक भड़क उठने की शुरुआत इस ख़बर से हुई कि सरकार के नये नियम के तहत मज़दूर अपने पी।एफ़ से कारख़ाना मालिक के अंशदान वाली रकम 58 वर्ष की उम्र से पहले नहीं निकाल सकेंगे। लेकिन आन्दोलन के इतना उग्र रूप धारण करने और देखते-देखते लाखों मज़दूरों को समेट लेने के पीछे सिर्फ़ यही बात नहीं थी। इसे समझने के लिए हमें बेंगलूर और देश के करोड़ों गारमेंट मज़दूरों के हालात पर नज़र डालनी होगी।
नरक जैसे हालात में काम करते भारत के गारमेंट मज़दूर
देश के हर बड़े शहर में खुले जगमगाते मॉलों के शोरूमों में सजे ब्रांडेड कपड़े दिखने में बड़े सुन्दर और ललचाने वाले लगते हैं पर इनके रंगों की चमक मज़दूरों के आँसुओं और ख़ून से आती है। अगर आपको विश्वास न हो रहा हो तो आइये एक सरसरी निगाह डालते हैं वस्त्र उद्योग पर, जिससे हमारी बात स्पष्ट हो जायेगी।
क्या आप जानते हैं कि ‘गैप’, ‘हेंस एंड मॉरिज़’, ‘ओल्ड नेवी’, ‘बनाना रिपब्लिक’, ‘जे सी पेनी’, ‘ज़ारा’, ‘टेस्को’ और ‘वालमार्ट’ जैसे अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड अपने कपड़े मुख्यत: तीसरी दुनिया के देशों यानि चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, भारत, मेक्सिको, मलेशिया, पाकिस्तान आदि विकासशील देशों में बनवाते हैं। और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है इन मुल्कों की सस्ती श्रमशक्ति। इन सभी देशों में मज़दूरों के लिए काम करने की परिस्थितयाँ कमोबेश ख़राब ही हैं। तकरीबन दो साल पहले बांग्लादेश के ढाका में राना प्लाज़ा नाम की बहुमंजिला इमारत गिर जाने से उसमें काम करने वाले 1000 से ज़्यादा गारमेंट कामगारों की मौत हम भूल नहीं सकते। वैसे इन्हें मौत नहीं बल्कि नरसंहार कहा जाना चाहिए। और बात केवल बांग्लादेश की ही नहीं है, फैक्ट्री मालिकों के लिए मज़दूर किसी भेड़-बकरी से ज़्यादा कुछ नहीं होते, बांग्लादेश हो या चीन, पाकिस्तान हो या भारत!
अगर आप गुड़गाँव, तिरुपुर, बेंगलुरु या ऐसी ही किसी जगह रहते हैं जहाँ गारमेंट फैक्ट्री लगी हो तो आपको इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के हालात का थोड़ा-बहुत अंदाज़ा तो निश्चित तौर पर होगा। इन कारखानों में काम करने वाले ज़्यादातर कामगार इतनी कम मज़दूरी पर काम करते हैं कि जिन बड़े-बड़े ब्रांड्स के लिए वो कपड़े बनाते हैं उसे ख़ुद से खरीदने का केवल सपना ही देख सकते हैं। सुपरवाइज़रों के द्वारा कामगारों के साथ गाली-गलौज करना तो आम बात है, कभी कभी वो धक्का-मुक्की और मार-पीट तक उतर आते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि दिन-रात हाड़-मांस गलाकर खटने के बावजूद औसतन मात्र 7000 से 8500 रुपये तक की मासिक तनख्वाह पर काम करने वाले ये मज़दूर अपनी मेहनत के साथ ही अपना आत्मसम्मान, अपनी आत्मा भी बेच डालने के लिए मजबूर होते हैं। इन कारखानों में मुख्यतः टारगेट के आधार पर काम लिया जाता है, मसलन ऑनलाइन समाचार पोर्टल ‘स्क्रॉल’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार ‘गैप’ ब्रांड के लिए कपड़े बनाने वाली बेंगलुरु की एक फैक्ट्री में काम करने वाली जयम्मा बताती हैं, “हर मज़दूर को कपड़े का एक हिस्सा सिलना होता है और उसे एक घंटे में 60 पीस ख़तम करना ही होता है।” वैसे ये टारगेट कपड़े के स्टाइल और काम की जटिलता पर निर्भर करता है और 80-100 पीस तक का टारगेट भी मज़दूरों को दिया जाता है। टारगेट पूरा ना होने पर सुपरवाइज़रों के द्वारा मज़दूरों को जलील किया जाना आम बात है। इतने ऊँचे टारगेट के दबाव में कामगार नाश्ता-पानी या शौचालय के लिए छोटा सा विराम तक नहीं ले पाते।
इन गारमेंट मज़दूरों के बीच काम करने वाली गारमेंट एंड टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन (जिसकी कुल सदस्य संख्या 8000 है) और एक ग़ैर-लाभकारी संगठन सेंटर फ़ॉर वर्कर्स मैनेजमेंट के द्वारा संयुक्त रूप से किये गये अध्ययन में पाया गया कि कई गारमेंट मज़दूर बेंगलुरु में किराया बहुत ज़्यादा होने के कारण शहर के बाहर कमरा लेकर रहते हैं। ऐसे में आने-जाने में उनको काफ़ी देर हो जाती है। ज़्यादातर मज़दूर सुबह 7 बजे निकल पड़ते हैं काम के लिए और रात में घर वापस पहुँचने तक 8 से 9 तक बज जाते हैं। शहर के अन्दर पहुँचते ही आने-जाने का किराया बहुत ज़्यादा हो जाता है। इसलिए बहुत से मज़दूर आधे घंटे से भी ज़्यादा पैदल चलकर कारख़ाना पहुँचते हैं। फिर इतना ही वापस जाते वक़्त भी चलना पड़ता है। कई बार महिला मज़दूर समूह बनाकर ऑटो बुक कर लेती हैं। मात्र तीन लोगों के ऑटो में 10 के आसपास महिला मज़दूरों का जाना आम बात है क्योंकि वर्तमान में ऑटो बुक करने का किराया बेंगलुरु में 13 रु/किमी है, ऊपर से ऑटो वाले कई बार निश्चित दर से ज़्यादा ही कीमत लेते हैं। अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार मज़दूरों के द्वारा बाहर फ़िल्म देखने जाना, किसी रेस्टोरेंट में अकेले या परिवार के साथ खाने जाना, किसी जगह घूमने जाना यानि मनोरंजन पर किया जाने वाला खर्च शून्य है, जिसकी वजह है पैसा और समय दोनों का अभाव। एक दिन की छुट्टी भी या तो ओवरटाइम करने, या घर का बाकी काम करने, या सप्ताह भर की थकान मिटाने में ही निकल जाता है। ऊपर हमने बताया कि कैसे कामगार बहुत ऊँचे टारगेट के चलते छोटे-मोटे विराम नहीं ले पाते। इस अध्ययन के अनुसार 60% कामगार तो अपना मध्याह्न भोजन भी छोड़ देते हैं। जबकि प्रति घंटे एक कपड़े पर आने वाली श्रम की कीमत, बाजार में उसके विक्रय मूल्य का महज 1% है। कॉल्स के लिए एक शर्ट बनाने में जहाँ मात्र 16 रुपये 88 पैसे लगते हैं वहीं कॉल्स इसे बाजार में 32 डॉलर (यानी करीब 2130 रुपये) में बेचता है। इतने ज़्यादा काम के दबाव में हर मज़दूर औसतन 5 बार साल में बीमार पड़ जाता है। मज़दूरों को होने वाली क्रॉनिक (दीर्घकालिक) बीमारियों में मुख्य वजह काम करने की परिस्थितयाँ होती हैं, जिसमें पैरों में दर्द का बना होना सबसे सामान्य है, इसके अलावा लगातार बुखार, थकान, पीठ दर्द, पेट की बीमारियाँ, स्त्री रोग इत्यादि भी काफ़ी मज़दूरों में पाये जाते हैं।
इतनी अमानवीय परिस्थितियों में और इतनी कम मज़दूरी पर काम करने वाले मज़दूरों को यूनियन तक नहीं बनाने दिया जाता। यूनियन बनाने से रोकने के लिए मज़दूरों को वेतन रोक देने और फैक्ट्री बंद कर देने की धमकियाँ दी जाती हैं। किसी मज़दूर के द्वारा यूनियन से जुड़ जाने पर उसको परेशान किया जाता है और उसका टारगेट भी बढ़ा दिया जाता है। हालात ऐसे हैं कि बेंगलुरु और इसके आस-पास की लगभग 800 फैक्ट्रियों में काम करने वाले तकरीबन 5 लाख गारमेंट मज़दूरों का केवल 3% हिस्सा यानि मात्र 15000 मज़दूर ही किसी यूनियन से जुड़े हैं। पर इन सबके बावजूद जब इस बार केंद्रीय सरकार ने मज़दूरों की भविष्य निधि पर अपनी गिद्ध-दृष्टि डाली तो मानो पानी सर के ऊपर चला गया और बेंगलुरु के 1।25 लाख गारमेंट मज़दूर सड़कों पर उतर आये। आइये इस वर्ष की इस अत्यंत महत्वपूर्ण घटना पर एक सरसरी निगाह डालते हैं।
कैसे फैली बेंगलुरु में विरोध प्रदर्शन की आग
कर्मचारी भविष्य निधि बचत का एक साधन होती है जिसमें हर माह कर्मचारी और उसके नियोक्ता (नौकरी देने वाला) दोनों के ही द्वारा मूल वेतन का 12% जमा किया जाता है। नियोक्ता के द्वारा जमा किये गये हिस्से का 8।33% पेंशन कोष में चला जाता है और बाकी 3।67% भविष्य निधि में। केंद्र सरकार ने इसी साल 10 फरवरी को अधिसूचना जारी कर इस 3।67% वाले हिस्से को कर्मचारी के द्वारा 58 साल की उम्र हो जाने से पहले निकाले जाने पर रोक लगा दी थी। मासिक तनख्वाह काफ़ी कम होने की वजह से इन मज़दूरों के लिए भविष्य निधि घर में शादी पड़ने, किसी के बीमार पड़ जाने या किस अन्य इमरजेंसी की परिस्थिति में बहुत सहायक सिद्ध होती है। और ऐसे में इसके किसी भी हिस्से को सेवा-निवृत्ति तक रोका जाना मज़दूरों के लिए कष्टकारक ही होगा। लेकिन पूँजीपतियों के अच्छे दिनों को लाने के लिए जी जान से जुटी मोदी सरकार मज़दूरों की ज़िन्दगी की रही-सही सुरक्षा भी छीन लेने पर उतारू है।
बेंगलुरु के होसुर रोड के पास स्थित शाही एक्सपोर्ट्स प्रा। लि। के कुछ मज़दूरों ने जब एक स्थानीय कन्नड़ अख़बार में भविष्य निधि के एक हिस्से की निकासी पर रोक लगाने की ख़बर पढ़ी तो उन्होंने तत्परता दिखाते हुए उस ख़बर की फोटोकॉपी कराई और उन कॉपियों को बाकी मज़दूरों में वितरित कर दिया। जिसके बाद 18 अप्रैल को शाही एक्सपोर्ट्स के मज़दूर धरने पर बैठ गये। ये ख़बर जब शाही एक्सपोर्ट्स की ही 80 किमी दूर बोम्मानाहल्ली स्थित एक दूसरी इकाई में पहुँची तो वहाँ के मज़दूर भी सड़कों पर उतर आये। इस इलाके में बहुत सारी गारमेंट फैक्ट्रियाँ हैं और धीरे-धीरे लगभग लाख के आसपास मज़दूर सड़कों पर पहुँच चुके थे। दूसरे दिन पुलिस द्वारा कुछ मज़दूरों को पीटे जाने और कई मज़दूरों को हिरासत में लिए जाने पर विरोध प्रदर्शन और ज़्यादा तीव्र हो गया।
बताते चलें कि बेंगलुरु के टेक्सटाइल्स उद्योग में काम करने वाले 5 लाख मज़दूरों में से तकरीबन 4 लाख मज़दूर महिलायें हैं, और कुछ ऐसा ही अनुपात हमें विरोध प्रदर्शन के दौरान सड़कों पर भी देखने को मिला। इतनी भारी संख्या में महिलाओं की भागीदारी की वजह से कोई उम्मीद कर सकता है कि पुलिसिया दमन थोड़ा सीमित रहा होगा। पर ऐसा नहीं है। आन्दोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने कोई कोर-कसर बाकी न रखी। आन्दोलन के दौरान की ही एक वीडियो इन्टरनेट पर वायरल हुई जिसमें स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि कैसे पुलिस मज़दूरों पर बेतहाशा लाठी चार्ज करके उन्हें धरना-स्थल से भगा रही है। असल में पहले ही दिन शाही-एक्सपोर्ट्स के कामगारों को पुलिस ने डंडे के दम पर छितर-बितर करने की कोशिश की जिससे एक गर्भवती मज़दूर को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मगर अपनी लाख कोशिशों के बावजूद पुलिस आंदोलित मज़दूरों का हौसला नहीं तोड़ पायी। आन्दोलन ने भाजपा नीत केंद्र की गठबंधन सरकार को तात्कालिक तौर पर प्रतिक्रिया देने पर बाध्य कर दिया और सरकार ने अपने फैसले को तीन महीने के लिए निलंबित कर दिया, मगर इस धोखे और दिखावे वाली प्रतिक्रिया पर आन्दोलन और तेज हो गया और अंतत: सरकार ने हार मानते हुए भविष्य निधि सबंधी अधिसूचना वापस ले ली।
मीडिया और मध्यवर्ग का रवैया
इस बीच तमाम बुर्जुआ अख़बारों और टीवी समाचार चैनलों की बात की जाय तो असल में राष्ट्रीय मीडिया में तो इस घटना को नाममात्र ही कवरेज मिली। स्थानीय अख़बारों और चैनलों ने इसे कवर किया भी तो अपनी वर्ग पक्षधरता जाहिर करते हुए ऐसे पहलुओं पर ही ज़्यादा जोर दिया जिनसे मज़दूरों की मांगों और समस्याओं का कोई ख़ास लेना देना नहीं था। मसलन, ‘गारमेंट मज़दूरों ने किया रोड ब्लॉक’, ‘प्रदर्शन कर रहे मज़दूर हुए हिंसक’, ‘मज़दूरों ने किया सार्वजनिक संपदा का नुक्सान’, इत्यादि। किसी भी अन्य आन्दोलन की तरह पुलिसिया दमन की स्थिति में सड़क पर पड़े कंकड़-पत्थर के टुकड़ों को फेंके जाने की घटना को ऐसे दिखाया गया मानो मज़दूर भी पुलिस वालों का दमन करने पर उतर आये हों या मानो मज़दूर भी आधुनिक राइफल लेकर धरने पर बैठे हों।
दूसरी तरफ़ मध्य और उच्च मध्य वर्ग अपनी सहज वर्ग चेतना के कारण शासक वर्गों की पढ़ी पढ़ाई बातें जपने में व्यस्त रहा, मसलन ‘मज़दूरों को कानून की मदद लेनी थी, ऐसे सड़कों को जाम करके देश का नुक्सान ही हो रहा है’। कूपमंडूकता का परचम फ़हराने वाले इन ‘देशभक्तों’ को इस बात से बिल्कुल फ़र्क नहीं पड़ता कि जो ब्रांडेड कपड़े पहन कर वे इतराते हैं वो इन्हीं मज़दूरों के खून-पसीने से बनता है।
मज़दूरों पर ‘हत्या के प्रयास’ का केस दर्ज; राज्यसत्ता, पुलिस और कारखाना प्रबंधनों की खुली नंगई
मज़दूरों के इस व्यापक जनउभार और पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ उनके जुझारू संघर्ष से बौखलाए कारखानों के प्रबंधन और पुलिस ने आपसी मिलीभगत से दंगा, सार्वजनिक संपदा को नुक्सान, नौकरशाहों की प्रताड़ना के साथ हत्या के प्रयास तक की धाराओं के अंतर्गत मज़दूरों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की है। इसी बीच अपना जनविरोधी चरित्र जाहिर करते हुए कर्नाटक के कांग्रेस पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और गृह मंत्री परामेश्वरा ने एक जैसे बयान देते हुए कहा कि पुलिस ने गारमेंट मज़दूरों के प्रदर्शन को काफ़ी कुशलता से सँभाला। आइये इस ‘कुशलता’ की एक बानगी देखते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की वेबसाइट पर प्रकाशित ख़बर के अनुसार एक एन।जी।ओ। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया द्वारा 18 गारमेंट महिला मज़दूरों से पूछताछ पर उन सबका कहना था कि उन्होंने पुलिस को शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों को गालियाँ देते और पीटते देखा। इन्हीं में से पीन्या इलाके में प्रदर्शन करने वाली एक मज़दूर का कहना है, “पुलिस ने अपने डंडे से हमारे गुप्तांगों पर प्रहार किया। एक पुलिस वाले ने कहा, “वेश्या कहीं की, तुझे गारमेंट फैक्ट्री में काम करने से क्या दिक्कत है?” स्पष्ट है कि केंद्र सरकार द्वारा मज़दूरों की मांगों पर शुरू में बेहद बेरुखी दिखाते हुए मात्र तीन महीने के लिए भविष्य निधि सम्बन्धी अधिसूचना टाल देने के अलावा पुलिस का भी मज़दूरों को उकसाने में बहुत बड़ा रोल रहा। मगर जहाँ एक तरफ़ कर्नाटक की जनविरोधी सरकार पुलिस की तारीफ़ कर रही है वहीँ दूसरी ओर अभी भी 200 से ऊपर की संख्या में मज़दूर जमानत नहीं मिल पाने के कारण जेल में सड़ रहे हैं क्योंकि इन मज़दूरों के ख़िलाफ़ दंगा करने के साथ-साथ हत्या के प्रयास का ग़ैर-ज़मानती केस भी दर्ज किया गया है। पुलिस पीन्या और बोम्मानाहल्ली इलाकों के कारखानों में जा रही है और अपनी मर्जी से किसी भी मज़दूर को उठा के ले जा रही है। जुझारू आचरण वाले मज़दूरों को कारखाना प्रबंधन स्वेच्छा से पुलिस को सौंप रहा है।
स्वत:स्फूर्त आन्दोलन
हम पहले ही ज़िक्र कर चुके हैं कि कुल 5 लाख मज़दूरों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही किसी यूनियन से जुड़ा है। इस लिहाज से इस आन्दोलन की सबसे ख़ास बात रही इसकी स्वत:स्फूर्तता। थोड़ा सा गहराई में जाकर आकलन किया जाए तो ये समझना कठिन नहीं कि बिना किसी नेतृत्व के जंगल की आग की तरह फैले इस आन्दोलन के पीछे भविष्य निधि सम्बंधित अधिसूचना तो एक तात्कालिक वजह मात्र थी, असल में ये आन्दोलन काम करने से लेकर रहने-खाने तक की निहायत ही प्रतिकूल परिस्थितियों (जिनका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं) की वजह से मज़दूरों में लम्बे समय से व्याप्त असंतोष की भी अभिव्यक्ति थी। इस बात को समझ लेने पर किसी स्वत: स्फूर्त नेतृत्वविहीन आन्दोलन की सीमा भी हमें समझ में आ जाती है। किसी फ़्लैश बिंदु की तरह पटल पर उपस्थित होकर तुरंत ख़त्म हो जाने वाले इस आन्दोलन में किसी क्रांतिकारी नेतृत्व की कमी निश्चित तौर पर खली। अन्यथा इस आन्दोलन को मात्र भविष्य निधि सम्बन्धी अधिसूचना वापस लेने की मांग तक ही सीमित ना रखते हुए, इसे मज़दूरों-दलितों-छात्रों-स्त्रियों के व्यापक सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक हितों से जोड़ते हुए एक दीर्घकालीन और बड़े आन्दोलन में तब्दील किया जा सकता था। पर भारत में पहले से ही काफ़ी कमजोर पड़ चुके क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के बाद भी अभी बहुत से लोग कठमुल्लावाद से आज़ाद नहीं हो पाये हैं। वरना लाखों लाख की आबादी में बसने वाले मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में काम करने की असीम संभावनाएँ हैं।
वैसे तो बेगलुरु में सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति है। पर संशोधनवाद की गटरगंगा में डुबकी लगाती यूनियनों का असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर कोई प्रभाव तो वैसे भी नहीं है, और जहाँ कहीं थोड़ी बहुत पहुँच इनकी है भी तो ये संशोधनवादी अर्थवाद से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाते, या दूसरे शब्दों में अर्थवाद से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। मज़दूरों में राजनीतिक चेतना का प्रसार करना तो बहुत दूर की बात है, आज इन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व ही बुरी तरह से वैचारिक रूप से दरिद्र होता है। और अगर वैचारिक दरिद्रता ही काफ़ी नहीं थी तो इनके कुछ नेता तो फैक्ट्री के मालिकों से दलाली तक करते हुए पाये जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ट्रेड यूनियन ‘भारतीय मज़दूर संघ’ को तो बनाया ही गया है भारतीय मज़दूर आन्दोलन को पूँजीपतियों का पिछलग्गू बना देने के लिए। इस यूनियन का महासचिव गारमेंट मज़दूरों के आन्दोलन को एक ‘राजनीतिक साज़िश’ करार देता है और कहता है कि अन्य राज्यों में जब विधान सभा चुनाव चल रहे हैं ऐसे में महिला मज़दूरों को आन्दोलन करने के लिए ‘गुमराह’ किया गया था।
बहरहाल, घर, कारखाने से लेकर पूरे समाज में कदम कदम पर पितृसत्ता और बर्बर पूँजीवाद का दंश झेलने वाली महिला मज़दूरों ने इस आन्दोलन की अगुआई की, पुलिसिया दमन का डटकर सामना किया और अपने हक़ की एक छोटी लड़ाई भी जीती। यह छोटी लड़ाई मज़दूर वर्ग के भीतर पल रहे जबर्दस्त गुस्से का संकेत देती है। इस आक्रोश को सही दिशा देकर महज़ कुछ तात्कालिक माँगों से आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की चुनौती आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।
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