संसद में 6 मजदूर-विरोधी क़ानून पारित कराने में जुटी मोदी सरकार
देशी-विदेशी लुटेरों की ताबेदारी में मजदूर-हितों पर सबसे बड़े हमले की तैयारी

सम्‍पादक मण्‍डल

मोदी सरकार के डेढ़ वर्षों के शासन में पूँजीपतियों के हित में मज़दूरों-कर्मचारियों के अधिकारों में कटौतियाँ लगातार जारी हैं। मोदी के सत्ता में आते ही राजस्थान की भाजपा सरकार ने श्रम क़ानूनों में भारी बदलाव करके मज़दूरी, नौकरी की सुरक्षा और ट्रेड यूनियन सम्बन्धी अधिकारों पर खुली डकैती का मॉडल पेश किया था। नरेन्द्र मोदी को गद्दी पर बिठाने के लिए हज़ारों करोड़ ख़र्च करने वाले तमाम थैलीशाह लगातार यह माँग करते रहे हैं कि मोदी सरकार आर्थिक ‘’सुधार’’ की गति और तेज़ करे। सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है। संसद के वर्तमान सत्र में मौजूदा श्रम क़ानूनों में बड़े पैमाने पर बदलाव करने की पूरी तैयारी कर ली गयी है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की कोशिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारीहै, जिनमें से दो इस सत्र में पेश कर दी जायेंगी – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता। इसके अलावा, न्यूनतम मज़दूरी संशोधन विधेयक और कर्मचारी राज्य बीमा विधेयक में भी संशोधन किये जाने हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में ही भवन एवं अन्य निर्माण मज़दूरों से संबंधित क़ानून संशोधन विधेयक भी पेश किया जा सकता है। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।
capitlaists squeezing workersश्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने पहले ही साफ़ कर दिया है, ‘’श्रम क़ानूनों का मौजूदा स्वरूप विकास में बाधा बन रहा है, इसीलिए सुधारों की आवश्यकता है।’’ कहने की ज़रूरत नहीं कि विकास का मतलब पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ना ही माना जाता है। मज़दूरों को बेहतर मज़दूरी मिले, उनकी नौकरी सुरक्षित हो, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा और परिवार को सुकून की ज़िन्दगी मिले, इसे विकास का पैमाना नहीं माना जाता। इसलिए, विकास के लिए ज़रूरी है कि थैलीशाहों को अपनी शर्तों पर कारोबार शुरू करने, बन्द करने, लोगों को काम पर रखने, निकालने, मनचाही मज़दूरी तय करने आदि की पूरी छूट दी जाये और मज़दूरों को यूनियन बनाने, एकजुट होने जैसी ‘’विकास-विरोधी’’ कार्रवाइयों से दूर रखा जाये।
श्रम मंत्री ने बेशर्मी से कहा कि ‘’ये क़ानून मज़दूरों के हित में हैं और उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे। इनका उद्देश्य रोज़गार पैदा करना और कारोबार करना आसान बनाना है।’’ इन दो बातों का आपस में क्या सम्बन्ध है, इसे कोई भी समझ सकता है। पिछले ढाई दशकों के दौरान श्रम क़ानूनों में जितने भी बदलाव हुए हैं वे सब ‘’मज़दूरों के हित में और उनके अधिकारों की रक्षा’’ करने के नाम पर ही हुए हैं और इनका नतीजा सबके सामने है। लम्बी लड़ाइयों और कुर्बानियों से मज़दूरों ने जो भी अधिकार हासिल किये थे, उनमें से ज़्यादातर को छीना जा चुका है। देश की 93 प्रतिशत से भी ज़्यादा मज़दूर आबादी आज बिना किसी सामजिक सुरक्षा के काम करती है। उसे न्यूनतम मज़दरी, काम के निर्धारित घण्टे, ओवरटाइम, पी.एफ़-पेंशन-ईएसआई जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित करके पूँजी के ऐसे ग़ुलामों में तब्दील कर दिया गया है जो बस मालिकों की तिजोरियाँ भरने के लिए ज़िन्दा रहते हैं।
मज़दूरी पर हमला
सबसे बड़ा बदलाव मज़दूरी से सम्बन्धित क़ानूनों में होने वाला है। प्रस्तावित ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ चार मौजूदा क़ानूनों की जगह लेगी – न्यूनतम मज़दूरी क़ानून 1948, मज़दूरी भुगतान क़ानून 1936, बोनस भुगतान क़ानून 1965 और समान वेतन क़ानून 1976। एक ही विषय से जुड़े कई क़ानूनों की जगह पर एक नया क़ानून बनाने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अलग-अलग क़ानूनों में मौजूद आपसी अन्तरविरोध दूर होंगे। लेकिन इस आड़ में बहुत सी बातों पर पर्दा डाला जा रहा है। न्यूनतम मज़दूरी क़ानून 1948 के तहत केन्द्र और राज्य सरकारें, दोनों ही अलग-अलग क्षेत्रों में न्यूनतम मज़दूरी तय कर सकती हैं। 45 क्षेत्र केन्द्र के दायरे में आते में हैं और 1679 क्षेत्र राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में हैं। लेकिन ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ विधेयक में न्यूनतम मज़दूरी तय करने का अधिकार सिर्फ राज्य सरकारों को देने की बात है। इसमें सभी के लिए बाध्यकारी राष्ट्रीय तल स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी तय करने को लेकर पिछले कई वर्षों से जारी चर्चाओं को गोल ही कर दिया गया है। बाध्यकारी राष्ट्रीय तल स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी का प्रावधान विकसित औद्योगिक देशों में भी लम्बे समय से मौजूद है। कोई भी राज्य सरकार इस बुनियादी मज़दूरी से ऊपर मज़दूरी तय कर सकती है लेकिन इससे नीचे नहीं। इसके न रहने से राज्य सरकारें मनमानी मज़दूरी तय करने के लिए आज़ाद होंगी और अपने-अपने राज्य में निवेश के लिए उद्योगपतियों को आमंत्रित करने के लिए मज़दूरी कम करने की होड़ में मज़दूरों की बलि चढ़ा देंगी। अर्जुन सेनगुप्त की अध्यक्षता में बने असंगठित क्षेत्र में उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग के सदस्य रहे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. रवि श्रीवास्तव का कहना है कि अधिकतर राज्यों में वेतन बोर्ड खस्ताहाल हैं और उनमें वर्षों से अनेक पद खाली पड़े हैं। ऐसे में मज़दूरी तय करने का ज़िम्मा राज्य सरकारोंको दे देने से भला किसे फ़ायदा होगा।’’
भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक- 2011 में माँग की गयी थी कि एक राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी नीति अविलम्ब बनायी जाये। इसके लिए एक त्रिपक्षीय आयोग (सरकार के प्रतिनिधि, मालिकों के प्रतिनिधि और मज़दूरों के प्रतिनिधि) गठित किया जाये जो देश के मज़दूरों, अर्थशास्त्रियों, श्रम-विशेषज्ञों और उद्योगपतियों से विचार-विमर्श के बाद न्यूनतम मज़दूरी तय करे। (क) क्षेत्रीय विविधाताओं के नाम पर न्यूनतम मज़दूरी में अन्तर का तर्क रद्द करके, सरकारी नौकरियों की तर्ज़ पर, देशभर में एक ही न्यूनतम मज़दूरी तय करने की प्रक्रिया पूरी होने तक केन्द्र सरकार ऐसे दिशा-निर्देश एवं मानदण्ड तय करे, जिनके दायरे में रहकर न्यूनतम मज़दूरी तय करना राज्य सरकारों के लिए बाध्यताकारी हो। (ख) इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों और क़ानूनों में आवश्यक संशोधन किये जायें। महानगरों और दुर्गम क्षेत्रों में होने वाले अतिरिक्त खर्चों की भरपाई के लिए सभी प्रकार के कामगारों को विशेष भत्ते दिये जायें।
इसमें यह भी कहा गया था कि 15वें राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (1957) की सिफ़ारिशों के अनुसार, न्यूनतम मज़दूरी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए थी। इसके लिए ये मानदण्ड सुझाये गये थे: प्रत्येक कमाने वाले पर तीन उपभोग इकाइयों के लिए प्रति इकाई न्यूनतम 2700 कैलोरी के हिसाब से खाद्यान्न-आवश्यकता, प्रति परिवार सालाना 72 गज कपड़ा, सरकारी औद्योगिक आवास योजना के अन्तर्गत दिये जाने वाले न्यूनतम क्षेत्रफल वाले घर का बाज़ार दर पर जितना किराया हो उतना किराया, तथा ईंधन, बिजली व अन्य विविध खर्चों पर कुल न्यूनतम मज़दूरी का 20 प्रतिशत। इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट के 1991 के एक निर्णय (रेप्टाकोस ब्रेट्ट एण्ड कं. बनाम मज़दूर) के अनुसार, बच्चों की शिक्षा, दवा-इलाज, उत्सवों-त्योहारों सहित न्यूनतम मनोरंजन, बुढ़ापे के इन्तज़ामों, शादी आदि के खर्चे न्यूनतम मज़दूरी का 25 प्रतिशत (उपरोक्त के अतिरिक्त) होने चाहिए। न्यूनतम मज़दूरी तय करते समय केन्द्र और राज्य की सरकारों ने इन मानदण्डों का कभी पालन नहीं किया। अगर कोई सरकार वाकई मज़दूरों के हितों के बारे में सोचती तो उसे पूरे देश में न्यूनतम मज़दूरी कम से कम इन्हीं मानदण्डों पर तय करना तत्काल सुनिश्चित करना चाहिए और इसका अनुपालन सभी राज्यों द्वारा क़ानूनन बाध्यताकारी बनाना चाहिए। लेकिन मोदी सरकार इसका ठीक उल्टा करने जा रही है।
समान वेतन क़ानून को भी सरकार कमज़ोर बनाने जा रही है। प्रस्तावित विधेयक में वेतन के मामले में लिंगभेद के आधार पर भेदभाव को ख़त्म करने की बात है। सुनने में यह अच्छा लगता है लेकिन असलियत यह है कि पहले से मौजूद क़ानून इससे कहीं अधिक व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। मूल क़ानून न केवल मज़दूरी के मामले में बल्कि लिंग के आधार पर भरती के मामले में भेदभाव का भी निषेध करता है। इसमें महिलाओं के लिए काम के अवसर बढ़ाने के लिए सलाहकार समिति बनाने और शिकायतें सुनने के लिए लेबर आफिसर नियुक्त करने का भी प्रावधान है। नौ पेज के मूल क़ानून को हटाकर नये विधेयक में सिर्फ एक लाइन का प्रावधान किया गया है जिसमें ये सारी बातें नदारद हैं।
श्रम क़ानूनों के उल्लंघन पर निगरानी से छूट
‘इंस्पेक्टर राज’ के ख़ात्मे की माँग मालिकान की ओर से लम्बे समय से उठाई जा रही है, लेकिन पहली बार लेबर इंस्पेक्टर को ही ख़त्म करने का काम मोदी सरकार करने जा रही है। ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ में लेबर इंस्पेक्टर की जगह पर ‘फैसिलिटेटर’ यानी ‘कार्य सुगम बनाने वाला’ की नियुक्ति की बात कही गयी है। उनका काम होगा ‘’नियोक्ताओं और मज़दूरों को इस संहिता के प्रावधानों के अनुपालन के सबसे प्रभावी तरीकों के बारे में जानकारी प्रदान करना ।’’ मज़दूरी का भुगतान क़ानून के तहत क़ानून का पालन नहीं करने और जाँच में सहयोग नहीं करने पर मालिक पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। लेकिन ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ में कहा गया है कि मालिक के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने से पहले फैसिलिटेटर उसे लिखित निर्देश देकर क़ानून को लागू करने का एक मौक़ा देगा। अगर निर्धारित समय के भीतर मालिक ने उसे दुरुस्त कर लिया तो फिर कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी।
किसी भी कारखाना इलाक़े में थोड़ा समय बिताने वाला हर व्यक्ति जानता है कि श्रम विभाग मज़दूरों की सुरक्षा के लिए क्या करता है। लेबर इंस्पेक्टर मालिकों की जेब में होते हैं और श्रम क़ानूनों का नंगई से उल्लंघन होता है। फिर भी इस बात की संभावना रहती है कि मज़दूर एकजुट हों तो ऐसे उल्लंघनों पर कार्रवाई के लिए श्रम विभाग पर दबाव डाल सकते हैं। अब मालिकान को इस संभावना से भी मुक्त कर दिया गया है। कुछ साल पहले की एक रिपोर्ट के अनुसार श्रम विभाग में मौजूद कर्मचारियों को देखते हुए हालत यह है कि अगर वे रोज़ एक कारखाने का निरीक्षण करें तो भी उस कारखाने के अगले निरीक्षण का मौका पाँच साल बाद ही आयेगा। ऐसे में श्रम विभाग को और मज़बूत करने के बजाय उसके अधिकारों में कटौती के पीछे की मंशा कोइ्र भी समझ सकता है।
ट्रेड यूनियन अधिकारों में और कटौती
प्रस्तावित क़ानून में मज़दूरी का भुगतान क़ानून के इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है जिसके तहत ट्रेड यूनियनें नियोक्ताओं के ऑडिट किये हुए खाते और बैलेंस शीट को देख सकती थीं। इससे वे वार्ताओं के दौरान मालिकों के ऐसे झूठे दावों को खारिज कर सकते थे कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण मज़दूरों की माँगें नहीं मानी जा सकतीं। ट्रेड यूनियन बनाने के मज़दूरों के अधिकारों में अन्य कटौतियाँ पहले से जारी हैं।
मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। मूल कानून के अनुसार किसी भी कारखाने या कम्पनी में 7 मज़दूर मिलकर अपनी यूनियन बना सकते थे। फिर इसे बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया। यानी किसी फै़क्टरी में काम करने वाले मज़दूरों का कोई ग्रुप अगर कुल मज़दूरों में से 15 प्रतिशत को अपने साथ ले ले तो वह यूनियन पंजीकृत करवा सकता है। मगर अब इसे बढ़ाकर 30 प्रतिशत किया जाना है। मतलब साफ़ है कि अगर फै़क्टरी मालिक ने अपनी फै़क्टरी में दो-तीन दलाल यूनियनें पाल रखी हैं तो एक नयी यूनियन बनाना बहुत कठिन होगा और फै़क्टरी जितनी बड़ी होगी, यूनियन बनाना उतना ही मुश्किल होगा। ठेका क़ानून भी अब 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फै़क्टरी पर लागू होने की जगह 50 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फै़क्टरी पर लागू होगा। यानी जिस फै़क्टरी में 50 से कम मज़दूर काम करते होंगे उस पर ठेका कानून लागू ही नहीं होगा। इसका अंजाम क्या होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित बदलावों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को ‘’मुक्त’’ कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया था कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। पूँजीपतियों के नेता बड़ी उम्मीद से कह रहे हैं कि निजी उद्यम को बढ़ावा देने और सरकार का हस्तक्षेप कम से कम करने के हिमायती नरेन्द्र मोदी भारत में ‘’सुधारों’’ को तेज़ी से आगे बढ़ायेंगे। इनका कहना है कि उन क़ानूनों में बदलाव लाना सबसे ज़रूरी है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।
पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफे़ की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग में बढ़ रहे बग़ावती सुर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने भी नरेन्द्र मोदी को सत्ता में लाकर अपने इसी हथियार को आज़माया है। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में सरेआम जुट जाते हैं। बात श्रम क़ानूनों को कमजोर करने तक ही नहीं रुकेगी, क्योंकि फासीवाद बड़ी पूँजी के रास्ते से हर तरह की रुकावट दूर करने पर आमादा होता है और यह सब वह ‘’राष्ट्रीय हितों’’ के नाम पर करता है। फासीवादी राजनीति पूँजीपतियों के लिए काम करने और उनका मुनाफ़ा बढ़ाने को देश के लिए काम करना, देश को ‘’महान’’ बनाने के लिए काम करना बनाकर पेश करती है। इसके लिए सभी को (ज़ाहिर है पूँजीपति इसमें शामिल नहीं होते) बिना कोई सवाल-जवाब किये, बिना कोई हक़-अधिकार माँगे काम करना पड़ेगा। लोग अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में सोचें नहीं, इसके विरोध में एकजुट होकर लड़ें नहीं, इसी मकसद से तरह-तरह के भावनात्मक मुद्दे भड़काये जाते हैं और धार्मिक बँटवारे किये जाते हैं। देश के मेहनतकशों को अपने अधिकारों पर इस खुली डकैती के ख़िलाफ़ लड़ना है या आपस में एक-दूसरे का सिर फुटौवल करना है, यह फ़ैसला उन्हें अब करना ही होगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2015


 

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