दिल्ली विधान सभा चुनावों के नतीजों के बाद : केजरीवाल की राजनीति और भविष्य की सम्भावनाओं पर कुछ बातें
कात्यायनी
दिल्ली विधान सभा चुनावों में दो बुर्जुआ लोकरंजकतावादी (पापुलिस्ट) राजनीतियाँ एक दूसरे के सामने खड़ी थीं। मोदी के फासिस्ट लोकरंजकतावाद का मुकाबला केजरीवाल के निम्न-बुर्जुआ लोकरंजकतावाद के नये उभार से था।
मध्य वर्ग, व्यापारियों और छोटे उद्यमियों-कारोबारियों में दोनों का समान सामाजिक आधार था। बहुसंख्यक गरीब आबादी ने सस्ती बिजली-पानी, भ्रष्टाचार-उन्मूलन, रोजगार, मँहगाई कम करने जैसे केजरीवाल के वायदों पर अधिक भरोसा किया, क्योंकि गत आठ महीनों के दौरान वह मोदी की केन्द्र सरकार के वायदों की हवा निकलते लगातार देख रही थी। बढ़ती मँहगाई और मजदूर-विरोधी नीतियॉं भी मोदी के भड़कीले प्रचार और शो-बिजनेस को लगातार फीका बना रही थीं। एक कारण यह भी था कि संघ परिवार सही से यह तय नहीं कर पाया था कि वह किस हद तक ”विकास” के हवामहल के सपनों की सौदागरी पर भरोसा करे और किस हद तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कपट-प्रबंध का सहारा ले। दिल्ली की महानगरीय आबादी के विशिष्ट संघटन को देखते हुए उन्मादी साम्प्रदायिक भाषणों और वोटों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए नियंत्रित और रेग्युलेटेड ढंग से तनाव व दंगों का माहौल पैदा करने की रणनीति काम नहीं आयी। संघ परिवार और भाजपा अपने कुछ अन्दरूनी अन्तरविरोधों को भी ठीक से सम्भाल नहीं पाये। बड़े पैमाने पर पैराट्रुपर उम्मीदवारों, बाहर से आये प्रचारकों की भारी मौजूदगी, दिल्ली के पुराने भाजपा नेताओं की उपेक्षा और मोदी-शाह जोड़ी की धक्कड़शाही के आम प्रभाव के कारण ग्रासरूट स्तर पर भाजपा की चुनावी मुहिम एक हद तक प्रभावित हुई। दरअसल मोदी काल में भाजपा के अन्दरूनी संघटन में बदलाव और पीढ़ी-परिवर्तन के कारण मची उथल-पुथल अभी स्थिर नहीं हुई थी। संघ परिवार के कैडर-आधारित ढॉंचे के कारण जमीनी स्तर पर उसके प्रचार की जो प्रभाव-कुशलता हुआ करती थी, उसका प्रभावी मुकाबला आम आदमी पार्टी ने एन.जी.ओ. कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त आई.टी. सेक्टर और प्रबन्धन सेक्टर के ऐसे युवाओं और ऐसे छात्रों की कार्यकर्ता शक्ति को घर-घर प्रचार के काम में झोंककर किया, जो निहायत अराजनीतिक कुलीन पृष्ठभूमि के लोग हैं और इस विभ्रम के शिकार हैं कि राजनीति और दफतरशाही के भ्रष्टाचार को यदि दूर कर दिया जाये तो देश मुक्त बाजार की नीतियॉं लागू करते हुए प्रगति पथ पर कुलॉंचें भरने लगेगा।
हमारा पहले से ही मार्क्सवादी सामाजिकार्थिक विश्लेषण के आधार पर यह मानना रहा है कि आम आदमी पार्टी का निम्नबुर्जुआ लोकरंजकतावाद एक अस्थायी परिघटना है। यह राजनीतिक प्रवृत्ति कालान्तर में या तो बिखर जायेगी या फिर एक धुर दक्षिणपंथी अन्तर्वस्तु और सामाजिक जनवादी स्वरूप वाले बुर्जुआ संसदीय दल के रूप में इसी व्यवस्था में व्यवस्थित हो जायेगी।
दिल्ली के बाद आम आदमी पार्टी अपना देशव्यापी विस्तार करना चाहती है और पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र पर पहले विशेष जोर लगाना चाहती है। उसकी पश्चिम बंगाल इकाई ने भी आगामी विधान सभा चुनावों में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। अहम राष्ट्रीय मसलों और आर्थिक नीति के प्रश्नों पर आप पार्टी अब तक अपना स्टैण्ड रखने से बचती रही है और गोलमाल करती रही है, लेकिन आगे यह मुमकिन नहीं होगा। केजरीवाल कहते है कि उनकी कोई विचारधारा नहीं है और आम आदमी का हित ही उनकी विचारधारा है। वैसे विचारधारा के न होने की इस घोषणा की भी अपनी सुनिश्चित विचारधारा है। हर राजनीति की अपनी एक विचारधारा होती ही है। केजरीवाल की लोकरंजक राजनीति को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से कोई परहेज नहीं है। सारी दुर्व्यवस्था और जनता की परेशानियों की जड़ वे भ्रष्टाचार को मानते हैं। लेकिन, विशेषकर पूँजीवादी संकट, पतन और पराभव के इस दौर में, कोई पूँजीवादी व्यवस्था भ्रष्टाचारमुक्त हो ही नहीं सकती (वैसे तो किसी दौर में नहीं हो सकती)। विधिसम्मत पूँजीवादी लूट (अधिशेष विनियोजन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट) अपने साथ-साथ अवैध लूट को जन्म देती ही है। पूँजीपति वर्ग के सेवक और प्रबंधक नैतिक और सदाचारी आचरण भला क्यों करेंगे। राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखें तो भ्रष्टाचार भी आदिम पूँजी संचय का ही एक रास्ता है। कालाधन एक हजार एक रास्तों से सफेद होकर वास्तविक अर्थव्यवस्था में लगता रहता है और वैध लूट का विराट तंत्र अपने सभी संस्तरों पर लगातार काले धन को जन्म देता रहता है। भ्रष्टाचार-उन्मूलन का लोकरंजक नारा देने वाली राजनीतिक-सामाजिक प्रवृत्तियों को यह व्यवस्था स्वयं समय-समय पर जन्म देती रहती है ताकि अराजक अतिरेक तक पहुँची स्थिति को कुछ नियंत्रण में लाया जा सके।
पूँजीवादी जनवाद जब भी अपनी साख खोने लगता है और अपनी करनी से खुद ही नंगा होने लगता है तो आदर्शों का मुखौटा लगाये कुछ ”जननायक” मंच पर अवतरित होते हैं। सत्तर के दशक में सम्पूर्ण क्रान्ति के नारे और जनता पार्टी प्रयोग के साथ जयप्रकाश नारायण ”लोकनायक” बनकर आये, तो नब्बे के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ”श्रीमान सुथराजी” (मि. क्लीन) का जोड़ा-जामा पहनकर सामाजिक न्याय के नारे के साथ आये। अन्ना आन्दोलन और केजरीवाल परिघटना का मूल लक्ष्य भी पूँजीवादी जनवाद की गिरती साख और उससे मोहभंग से पैदा होने वाली विस्फोटक सम्भावनाओं को नियंत्रित करना है। पुरानी संसदीय वामपंथी पार्टियॉं आज व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में निष्प्रभावी हो चुकी हैं। समाजवाद के नाम पर ”नेहरूवादी समाजवाद” और कीन्सियाई नुस्खों से अधिक वे कुछ कह नहीं सकतीं। व्यवहार में कीन्सियाई नुस्खों और बुर्जुआ ”कल्याणकारी राज्य” की वापसी आज असंभव है। केरल और बंगाल में सरकार चलाते हुए ये संसदीय वामपंथी नवउदारवादी नीतियों को ही लागू करते रहे। देवेगौड़ा और गुजराल की अल्पावधि केन्द्र सरकारों के दौरान और यू.पी.ए.-एक के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि कुछ अधिक ”मानवीय चेहरे वाले” नवउदारवाद के अतिरिक्त, या चीनी ”बाजार समाजवाद” जैसे नवउदारवादी मॉडल के अतिरिक्त चुनावी वामपंथियों के पास और कोई विकल्प नहीं है। मजदूर वर्ग के जुझारू राजनीतिक संघर्ष तो दूर, ये सभी दल रस्मी और रोजमर्रे के आर्थिक संघर्षों से भी किनारा कर चुके हैं। ऐसे में, एन.जी.ओ.-सुधारवाद के सामाजिक आन्दोलनों के भीतर से पूँजीवादी व्यवस्था की एक नयी सुरक्षा पंक्ति ‘आप पार्टी परिघटना’ के रूप में लोकरंजक नारों और लुभावने वायदों के साथ सामने आयी है।
लेकिन सच्चाई यह है कि यह नयी दूसरी सुरक्षा पंक्ति पूँजीवादी ढॉंचागत संकट के इस दौर में बहुत कम समय तक ही विभ्रमों को बनाये रख सकेगी। मँहगाई, बेरोजगारी, बिजली-पानी, भ्रष्टाचार उन्मूलन, आवास, शिक्षा विषयक आप पार्टी के वायदों-आश्वासनों की कलई उतरते देर नहीं लगेगी। गौरतलब यह है कि मोदी के श्रम सुधारों पर केजरीवाल एण्ड क. कभी कुछ नहीं बोलती। पिछली बार केजरीवाल ने दिल्ली से ठेका मजदूरी खत्म करने की बात की थी और इस वायदे को लेकर ठेका मजदूरों ने जब सचिवालय घेरा तो उनका श्रम मंत्री इस वायदे से ही मुकर गया और फिर भाग खड़ा हुआ। इसबार केजरीवाल ने सावधानी के साथ सिर्फ सरकारी विभागों से ठेका प्रथा खत्म करने की बात की है (हालॉंकि यह भी मुश्किल है)। दिल्ली में श्रम कानूनों को लागू करवाने के बारे में आप पार्टी पूरी तरह मौन है।
अपने देशव्यापी फैलाव के साथ आप पार्टी को भूमि अधिग्रहण बिल, राज्यों के श्रम सुधारों, विस्थापन, छत्तीसगढ़ में आतंकवाद के बहाने आम जनता के दमन, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में ‘आफसपा’ और वहॉं की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार जैसे मसलों पर अपना स्टैण्ड स्पष्ट करना ही पड़ेगा। एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में केन्द्र की राजनीति में दखल के साथ ही विनिवेश के नाम पर जनता के खून पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक उपक्रमों और प्राकृतिक संसाधनों को कौडि़यों के मोल देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने के सवाल पर, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के सवाल पर, शिक्षा और स्वास्थ्य के निजीकरण के सवाल पर और ऐसी तमाम नवउदारवादी नीतियों पर अपनी अवस्थिति स्पष्ट करनी ही होगी। इससमय तक दिल्ली में उनकी सरकार की कारगुजारियॉं भी सामने रहेंगी और उनके लोकरंजकतावाद की कलई उतरने की शुरूआत हो चुकी रहेगी।
पूँजीवादी व्यवस्था की गहराती दुश्चक्रीय निराशा और इस नयी सुरक्षा पंक्ति का ढहना निश्चय ही क्रान्तिकारी संकट के एक नये गहन-गम्भीर दौर को जन्म देगा। जैसा कि लेनिन ने कहा था, क्रान्तिकारी संकट क्रान्तियों को तभी जन्म देते हैं जब क्रान्ति की नेतृत्वकारी मनोगत शक्तियॉं तैयार हों। जाहिर है, भारत में अभी यह स्थिति नहीं है। अगले पॉंच-दस वर्षों में भी इसकी अपेक्षा आकाश कुसुम की अभिलाषा होगी। हॉं, एक बात जरूर है। विकासमान क्रान्तिकारी शक्तियॉं यदि ‘लकीर की फकीरी’ और कठमुल्लावाद से मुक्त होकर क्रान्तिकारी संकट के हालात का सही ढंग से लाभ उठायें, यदि वे सटीक आकलन के आधार पर, सीमित ही सही, लेकिन साहसिक हस्तक्षेप करें, तो अपनी ताकत और सामाजिक आधार का काफी तेजी से विस्तार कर सकती हैं, और जमीनी तौर पर, व्यावहारिक स्तर पर, जनता के एक बड़े हिस्से के सामने क्रान्तिकारी विकल्प का खाका पेश करने में तथा स्वयं को उसके वाहक के रूप में पेश करने में कामयाब हो सकती हैं। फिर आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले क्रान्तिकारी संकट के विस्फोट के अगले दौर में वे देश स्तर पर निर्णायक ढंग से क्रान्तिकारी पहल लेने की स्थिति में आ सकती है। यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि इतिहास कभी चन्द वर्षों के कार्यभार पूरे करने में दशाब्दियॉं या एक शताब्दी तक लगा देता है और फिर ऐसे वेगवाही दौर भी आते हैं कि वह दशाब्दियों या शताब्दियों के कार्यभार चन्द वर्षों में पूरे कर लेता है।
दिल्ली में आज अत्यधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवसर आ चुका है। दिल्ली में तकरीबन 60 फीसदी आबादी मेहनतकशों की है, जिनमें अधिकांश असंगठित मजदूर हैं। निम्न मध्यवर्गीय परेशानहाल आम लोगों को मिलाकर कुल आबादी का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा बनता है। केजरीवाल द्वारा किये गये वायदों (विशेषकर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य और ठेका प्रथा समाप्ति सम्बन्धी वायदे) को निभाने के लिए और मजदूर वर्ग की अन्य मॉंगों (विशेषकर श्रम कानूनों और श्रम विभाग को लेकर) को लेकर दबाव बनाने के लिए मजदूरों को तृणमूल स्तर पर अभी से संगठित करना शुरू कर देना होगा। ऐसे में जल्दी ही व्यापक मेहनतकश आबादी को पूँजीवादी जनवादी व्यवस्था के सीमांत और बुर्जुआ सुधारवाद एवं लोकरंजकतावाद की वास्तविकता दीखने लगेगी। वर्ग चेतना के क्रान्तिकारीकरण की यह बुनियादी शर्त है।
आज मार्क्सवाद का ककहरा तक भूल चुके ऐसे पस्तहिम्मत, अकर्मण्य, सुविधाभोगी कथित वामपंथी बुद्धिबहादुरों की कमी नहीं जो विश्वव्यापी विपर्यय और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलताओं एवं विपथगमन के ऐतिहासिक कारणों का वस्तुपरक विश्लेषण करने के बजाय, खुद को किनारे करके सिर्फ कोसते-सरापते-विलापते रहते हैं। इनमें से अधिकांश एन.जी.ओ. सुधारवाद, आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स, अम्बेडकरवाद आदि-आदि के साथ मार्क्सवाद की खिचड़ी, बिरयानी, पुलाव आदि पकाने की किसिम-किसिम की रेसिपी सुझाते रहते हैं। ऐसे ही लोगों में से कई हैं जो इनदिनों केजरीवाल पर लट्टू हैं। दरअसल ऐसे अपढ़ ”मार्क्सवादी” विज्ञान के अभाव में कभी भी स्थितियों का आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण नहीं करते, सतही पर्यवेक्षणों के नतीजों से कभी इतने निराश हो जाते हैं कि घर के किसी कोने में मरे चूहे की सूखी हुई लाश सरीखे दीखने लगते हैं और कभी लोकरंजकतावाद की किसी लहर पर डूबते-उतराते आशावाद से इतने लबरेज हो जाते हैं कि पूरा माहौल फेन और बुलबुलों से भर देते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनकी सोच कुछ ऐसी है कि ‘जब क्रान्ति की फिलहाल दूर-दूर तक संभावना नहीं, तो अभी के लिए केजरीवाल ही सही, कुछ तो कर रहा है।’ सच यह है कि केजरीवाल कुछ नहीं कर सकता। कोई भी मार्क्सवादी यदि वस्तुगत स्थितियों और नीतियों के विश्लेषण से शुरू करे तो उसे यह समझते देर नहीं लगेगी। मगर सुविधाभोगी, निठल्ले निराशों से हम यह अपेक्षा करें ही क्यों?
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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