सलवा जुडुम के ख़िलाफ उच्चतम न्यायालय का फैसला
जनता के विरुद्ध सरकार के आतंकवादी युद्ध की सच्चाई एक बार फिर बेपर्दा
पिछली 5 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडुम को भंग करने का आदेश देते हुए छत्तीसगढ़ सरकार और केन्द्र सरकार को कड़ी फटकार लगायी है। जजों ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासी नौजवानों की विशेष पुलिस अधिकारी (एस.पी.ओ.) के रूप में भरती को असंवैधानिक बताते हुए उस पर रोक लगा दी है।
अदालत ने प्रोफेसर नन्दिनी सुन्दर, इतिहासकार रामचन्द्र गुहा और पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी ई.ए.एस. सरमा की जनहित याचिका पर यह फैसला दिया। याचिका के अनुसार सलवा जुडुम के लोग कम से कम 537 हत्याओं, 99 बलात्कारों, आगज़नी की 103 घटनाओं और 644 गाँवों को जलाकर उजाड़ देने के लिए ज़िम्मेदार हैं। (हालाँकि ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका के हाल के अंक में छपी रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडुम के लोगों द्वारा 2005 से लेकर अब तक 700 गाँवों में लगभग 1500 से अधिक बेगुनाह लोगों की हत्या की जा चुकी है, हज़ारों आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया है, कई जगह खेतों में खड़ी फसलों को आग लगाकर तबाह करने और गाँवों में लूटपाट करने जैसी अनेक घटनाएँ हुई हैं।)
अपने फैसले में जजों ने सरकार की नव-उदारवादी नीतियों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि सरकार द्वारा लागू की जा रही सामाजिक और आर्थिक नीतियों के कारण समाज भयानक असमानता से ग्रस्त है। ये नीतियाँ जनता के साथ बलात्कार के समान हैं। उन्होंने कहा, ”एक ओर राज्य निजी क्षेत्र को सब्सिडी देता है, उसे टैक्सों में एक के बाद एक रियायत देता है, जबकि साथ ही साथ वह सामाजिक कल्याण के उपायों के ज़रिए ग़रीबों को सहारा देने की अपनी ज़िम्मेदारी पूरी न करने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रोता है। दूसरी ओर, राज्य ग़रीबों के बीच फैले आक्रोश और असन्तोष का मुक़ाबला करने के लिए ग़रीबों के बीच से ही कुछ युवाओं के हाथों में बन्दूकें थमा रहा है।”
यह वही सलवा जुडुम है जिसके पक्ष में केन्द्रीय गृहमन्त्री चिदम्बरम और छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री रमन सिंह से लेकर छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन तक तरह-तरह के तर्क देते रहे हैं जबकि एक के बाद एक मानवाधिकार संगठनों और ख़ुद सरकार के आयोगों की रिपोर्टें उसकी बर्बर सच्चाई को उजागर करती रही हैं। किस प्रकार आदिवासी आबादी के एक छोटे-से हिस्से को हथियारबन्द करके माओवादियों से लड़ने के नाम पर आबादी के बड़े हिस्से के ख़िलाफ खड़ा करके पूरे क्षेत्र में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी गयी है। लाखों आदिवासियों को उनके गाँवों से उजाड़कर कैम्पों में रहने पर मजबूर कर दिया गया है। यह भी साफ़ हो चुका है कि इस बर्बर अभियान के पीछे असली मकसद आदिवासियों के उन सैकड़ों गाँवों को खाली कराना था जिनके नीचे की ज़मीन में खरबों डालर की खनिज सम्पदा छिपी है। यही कारण था कि टाटा और एस्सार ग्रुप सलवा जुडुम के मुख्य फायनेंसर थे। ख़ुद भारत सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह अभियान अमेरिका में कोलम्बस द्वारा मूल निवासियों को उजाड़ने के बाद ज़मीन हड़पने का सबसे बड़ा अभियान है।
चिदम्बरम, रमन सिंह और विश्वरंजन में अगर ज़रा भी शर्मोहया होती तो उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है।
सवाल केवल छत्तीसगढ़ सरकार की नीतियों का नहीं है। पिछले 20 साल से जारी नवउदारवादी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के तहत विकास के नाम पर देशी-विदेशी कम्पनियों कौड़ियों के मोल ज़मीनें और अन्य सुविधाएँ बेची रही हैं, रहे-सहे श्रम कानूनों को भी ढीला बनाकर मनमानी शर्तों पर मज़दूरों की श्रमशक्ति निचोड़ने की छूट दी जा रही है और देश के ग़रीबों से उनकी आजीविका के साधन छीनकर उन्हें सड़क पर धकेला जा रहा है। यह एक परोक्ष युद्ध के समान ही है, जो लगातार जारी है।
इन नीतियों को लागू करते हुए सत्ता ज़्यादा से ज़्यादा उत्पीड़नकारी होती गयी है और उसका दमन और भी बर्बर तथा क्रूर होता गया है। सत्ता तन्त्र की खुली हिंसा के अतिरिक्त रोज़मर्रा के जीवन में आम ग़रीबों को जिस ढाँचागत हिंसा का सामना करना पड़ता है वह भी ज़्यादा सुव्यवस्थित और आक्रामक होती गयी है।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुडुम, एस.पी.ओ. और कोया कमाण्डो अपने उद्देश्य में सफल होते हुए नहीं दिखे तो 2009 में आपरेशन ग्रीन हण्ट के नाम पर अर्द्धसैनिक बलों का एक सघन अभियान छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड से लेकर उड़ीसा तक शुरू किया गया। इस सैन्य अभियान के तहत क्षेत्र के स्कूलों से लेकर सरकारी इमारतों तक को सेना की छावनियों में तब्दील कर दिया गया। सी.आर.पी.एफ., कोबरा बटालियन और बी.एस.एफ. जैसे अत्याधुनिक हथियारों और प्रशिक्षण से लैस दो लाख पुलिस फोर्स लगायी गयी थी। बस्तर के घने जंगलों के भीतर माओवादियों का मुकाबला करने में तो ये बल असफल रहे लेकिन इस इलाके के आदिवासी गाँवों पर उन्होंने जो कहर बरपा किया है उसकी सच्चाई अनेक संगठनों की जाँच टीमों और कई पत्रिकाओं की रिपोर्टों में सामने आ चुकी है।
सरकार इन बातों से लगातार इनकार करती रही है लेकिन अब सारी सच्चाई सामने आ चुकी है और उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इस सैन्य कार्रवाई का असली मकसद देशी और विदेशी कम्पनियों के साथ किये गये अनुबन्धों के दबाव में अयस्कों की खानों और अकूत प्राकृतिक संपदा से भरी ज़मीन को आदिवासियों से खाली करवाना है। नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में देशी और विदेशी कम्पनियों द्वारा लगभग 6.6 लाख करोड़ रुपये के निवेश के अनुबन्ध किये जा चुके हैं। अकेले उड़ीसा में 2.7 अरब डालर की कीमत का बॉक्साइट का भण्डार मौजूद है। छत्तीसगढ़ में रावघाट की पहाड़ियों में कुल 7.4 अरब टन सबसे उन्नत किस्म का लौह अयस्क मौजूद है। सारी कम्पनियाँ इस प्राकृतिक सम्पदा पर नज़र गड़ाये बैठी हैं। इसे ध्यान में रखें तो आसानी से समझ आ जाता है कि मनमोहन सिंह अचानक क्यों कहने लगे कि नक्सलवाद देश की आन्तरिक सुरक्षा को सबसे बड़ा ख़तरा है।
छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल के जंगल महल आदि आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक सम्पदा को हथियाने के लिए आदिवासियों को बेरहमी से बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और पुनर्वास के उनकी ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है। बेदखली की इस पूरी प्रक्रिया के विरोध में होने वाले हर जन आन्दोलन को सरकार द्वारा बलपूर्वक कुचला जाता रहा है। इसके विरुद्ध आदिवासी जन अपने जीवन और मृत्यु की लड़ाई लड़ रहे हैं और सरकारी नीतियों के शिकार इन आदिवासियों के संघर्ष में माओवादी उनका साथ दे रहे हैं। भारतीय क्रान्ति की आम राजनीतिक दिशा और रणनीति को लेकर माओवादी राजनीतिक धारा के साथ किसी का मतभेद हो सकता है, उनके कई एक्शंस को हम आतंकवाद और अराजकतावादी कार्रवाई की श्रेणी में भी रखते हैं, लेकिन यह एक अलग बहस का विषय है। मगर इस क्षेत्र की ज़मीनी हकीकत यह है कि सरकार वहाँ जो युद्ध चला रही है वह माओवादी राजनीतिक धारा के विरुद्ध ही नहीं बल्कि आम आदिवासी जनता के विरुद्ध चलाया जा रहा है।
जनता के विरुद्ध इस युद्ध का दायरा विस्तारित होकर आगे बढ़ा है तो जो कोई भी आदिवासी आबादी को उजाड़े जाने का विरोध करता है उसे ”माओवादी” घोषित कर दिया जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार ने 2005 में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून 2005 पारित किया जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को माओवादियों से सहानुभूति रखने के जुर्म में गिरफ़्तार किया जा सकता है। इसी के तहत 2007 में डा. विनायक सेन के साथ पीयूष गुहा व अन्य को गिरफ़्तार किया गया और दिसम्बर 2010 में ज़िला न्यायालय ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में उम्र कैद की सज़ा सुनाई। अप्रैल 2011 में उच्चतम न्यायालय ने डा. सेन को ज़मानत देते हुए जो टिप्पणियाँ कीं उनसे जिस प्रकार पूँजीवादी जनतन्त्र की सच्चाई पूरी दुनिया के सामने उजागर हुई और इसके चेहरे पर जो कालिख पुती वह आज किसी से छुपी नहीं है।
डा. सेन को तो ज़मानत मिल गयी लेकिन देश भर में जन आन्दोलनों के दमन से लेकर जनता का नेतृत्व कर रहे कार्यकर्ताओं और जनवादी संगठनों को माओवाद के नाम पर निशाना बनाया जा रहा है। आज भी हज़ारों निर्दोष ग़रीब आदिवासी, किसान, मज़दूर और सामाजिक कार्यकर्ता अनेक झूठे आरोपों में, बिना किसी सुनवाई के सालों से जेल में पड़े हुए हैं।
पहले आपरेशन ग्रीन हंट की असफलता और अब सलवा जुडुम पर उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबन्ध लगाने से पूँजीपतियों और सरकार को ज़्यादा चिन्ता नहीं है क्योंकि जिन सैकड़ों सहमतिपत्रों पर हस्ताक्षर हो चुके हैं उनके तहत जमीन पर कब्ज़ा करने और जनता को उजाड़ने के लिए सरकारी कार्रवाई शुरू हो चुकी है।
छत्तीसगढ़ में काउण्टर-इन्सर्जेन्सी (जंगल वारफेयर) प्रशिक्षण के लिए जमीन अधिग्रहण करने से पहले सेना ने ज़मीनी निरीक्षण आरम्भ कर दिया है। रावघाट इलाके में लोहे की खानें उस इलाके से सिर्फ 25 किलोमीटर दूर स्थित हैं, जहाँ छत्तीसगढ़ सरकार ने सेना को 750 वर्ग किलोमीटर ज़मीन अधिग्रहण की अनुमति दी है। सरकार के इस भोले तर्क पर कौन विश्वास करेगा कि यह ज़मीन सिर्फ प्रशिक्षण के लिए ली गयी है। सेना के पास युद्धाभ्यास के लिए कई-कई विशाल बीहड़ जंगली, रेगिस्तानी व पठारी इलाक़े पहले से मौजूद हैं फिर भी उसे कैम्प बनाने के लिए रायगढ़ का आदिवासी ही क्यों मिला, जो कि अपार खनिज सम्पदा का भण्डार है। सरकार ने ‘काउंटर-इन्सर्जेंसी ट्रेनिंग’ के लिए सेना को आख़िर उसी इलाक़े में विशाल जगह क्यों दी जहाँ वह बरसों से माओवाद के नाम पर समूची आदिवासी जनता के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध और उजाड़ने की बर्बर मुहिम चलाती रही है?
रावघाट परियोजना के समर्थन में सरकार प्रचार कर रही है कि यदि यहाँ खनन शुरू न किया गया तो भिलाई स्टील प्लांट में लौह अयस्क की आपूर्ति नहीं हो सकेगी और इसको बन्द करना पड़ सकता है, जिससे हजारों मज़दूरों का भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा। लेकिन सवाल यह है कि यदि मौजूदा खानों से अयस्क की आपूर्ति नहीं हो पा रही है, तो सरकार बैलाडिला खानों के अयस्क का निर्यात जापानी, चीनी, और कोरियाई कम्पनियों को क्यों कर रही है? सच तो यह है कि सरकार टाटा, एस्सार, जिन्दल और नीको जैसे बड़ी-बड़ी कम्पनियों के इशारे पर सिर्फ रावघाट की खानें ही नहीं बल्कि सेल और बी.एस.पी. को भी निजी कम्पनियों को बेचने की योजना बना रही है। सरकार समझती है कि यह सब करने पर ज़बर्दस्त जन प्रतिरोध होगा, इसलिए वह एक बर्बर चोट करके इसे एकबारगी हल करना चाहती है। जिस प्रकार उद्योगपति इस पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा पर गिद्धों की तरह नज़र लगाये हुए हैं, और जनता को उजाड़ने के लिए पूरे योजनाबद्ध तरीक़े से जुटे हुए हैं, उसे देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर इस पूरे क्षेत्र में भी पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर की तरह ए.एफ.एस.पी.ए. के तहत सैन्य शासन जैसे हालात पैदा कर दिये जायें।
नवउदारवाद के दौर में जनता के विरुद्ध सरकार का आर्थिक-सामाजिक युद्ध और घनीभूत होगा। यह समय की बात है कि देश के विभिन्न इलाक़ों में जनता के ख़िलाफ सरकार की खुली आतंकी कार्रवाई युद्ध के रूप में फूट पड़े। सरकार ने तो आने वाले दिनों की योजना बना ली है। जो लोग जनता के जनवादी अधिकारों के बारे में सोचते हैं, अब उनके सोचने की बारी है। सरकार के इस जनविरोधी युद्ध का जवाब व्यापक जनता को उसके बुनियादी अधिकारों पर संगठित करके ही दिया जा सकता है और हमें जल्द से जल्द इस काम में जुट जाना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन