स्त्री मुक्ति आन्दोलन को सुधारवाद, संशोधनवाद, नारीवाद और एनजीओपन्थ की राजनीति से बाहर लाना होगा
अंजलि
अँधेरे कमरों और
बन्द दरवाज़ों से
बाहर सड़क पर
जुलूस में और
युद्ध में तुम्हारे होने के
दिन आ गए हैं।
– गोरख पाण्डेय
8 मार्च यानी अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस पूरी दुनिया की आधी आबादी के संघर्षों को याद करने का दिन है और साथ ही आज के संघर्षों को नये सिरे से संगठित करने के संकल्प का दिन है। यह वह ऐतिहासिक दिन है जो स्त्रियों के शोषण, अत्याचार, पुरुष वर्चस्ववाद के तमाम रूपों से मुक्ति और जीवन के हर पहलू में पूर्ण समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष का प्रतीक है। आज बाज़ार की शक्तियों, पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों और पूँजीवादी व्यवस्था के ‘सेफ़्टी वॉल्व’ संशोधनवादी नक़ली वामपन्थी पार्टियों, अस्मितावादियों, नारीवादी संगठनों और तमाम एनजीओपन्थियों द्वारा इसकी क्रान्तिकारी विरासत पर धूल और राख़ डालने की कुत्सित कोशिश की जा रही है। इनके द्वारा 8 मार्च के क्रान्तिकारी चरित्र को बदलकर इसे सरकारी आयोजनों, रस्मी अनुष्ठानों और एनजीओपन्थी सुधारवाद और नारीवाद की अन्धी गली में कैद करने की कोशिश की जा रही है।
आज हम अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस एक ऐसे दौर में मना रहे हैं जब देश में फ़ासीवादी शक्तियों द्वारा स्त्रियों के लम्बे संघर्षों के बाद हासिल अधिकारों को छीन लेने की कोशिशें की जा रही हैं और स्त्रियों की स्वतन्त्रता, सम्मान और सुरक्षा पर चौतरफा हमले और भी तेज़ हो गये हैं। ऐसे दौर में ज़रूरी है कि न केवल अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु पर हो रहे तमाम हमलों का वैचारिक-सांस्कृतिक जवाब दिया जाय बल्कि आज हमारे सामने यह जलता हुआ सवाल भी है कि 8 मार्च की क्रान्तिकारी विरासत की रोशनी में आज की समस्याओं का मूल्यांकन किया जाये और प्रतिरोध के कारगर औज़ार भी गढ़े जायें।
कई बार हम मज़दूरों-मेहनतकशों में भी 8 मार्च को लेकर एक उपेक्षा का नज़रिया इस रूप में होता है कि यह केवल स्त्रियों के संघर्ष को याद करने का दिन है। ज़ाहिरा तौर पर ऐसी सोच हमारे भीतर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था और मीडिया के ज़रिये पैदा की जाती है ताकि हम हर प्रकार के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष से अपने को जोड़कर देखने की क्षमता खो दें और व्यापक मेहनतकश जनता की एकता स्थापित ही ना हो सके। लेकिन एक बात हमें स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि दुनिया में जहाँ कहीं भी अन्याय, उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष चल रहा है या चला है हर उस जगह लड़ने वाले लोग हमारे अपने हैं चाहे उनका रंग, धर्म, देश या जेण्डर कोई भी हो और ठीक इसीलिए इन सभी संघर्षों की क्रान्तिकारी विरासत भी हमारी अपनी विरासत है। अपनी क्रान्तिकारी विरासत के प्रति उपेक्षा का रवैया चाहे-अनचाहे हमें पूँजीपति वर्ग या उत्पीड़न करने वाले लोगों के पाले में खड़ा कर देता है। इस प्रकार हमारी क्रान्तिकारी एकता कमज़ोर होती है और हम भी उत्पीड़न का शिकार होने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं।
बहुत बार हम मेहनतकश वर्ग के लोग और मज़दूर स्त्रियाँ भी अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को जानने से वंचित रह जाती हैं। बाज़ार की शक्तियाँ हम तक इसकी क्रान्तिकारी विरासत को पहुँचने ही नहीं देती। हमें इस विरासत को जानकर अपने मज़दूर भाइयों-बहनों को बताना होगा और संघर्ष के नये रास्तों का अनुसन्धान करना होगा। इसके लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले हम इसके इतिहास को समझें।
अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस का इतिहास
आज के फ़ासीवादी दौर में सत्ताधारियों द्वारा जनता के जुझारू इतिहास के विकृतिकरण और फ़ासीवादीकरण की मुहिम चलाकर मेहनतकश जनता के सामूहिक स्मृतिलोप की कोशिश की जा रही है। मज़दूरों-मेहनतकशों का एक बड़ा हिस्सा इसके प्रभाव में आकर अपने शानदार संघर्षशील इतिहास की तरफ पीठ करके जाने-अनजाने पूँजीवादी पितृसत्तात्मक मूल्यों का शिकार हो जाता है। कज़्ज़ाक लेखक रसूल हमज़ातोव ने अबू तालिब के हवाले से लिखा है कि “यदि तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसायेगा।” इस बात की सच्चाई को आज हम अपने रोज़-ब-रोज़ के संघर्षों में देख सकते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि हम अपने संघर्षों के इतिहास की गहराई से पड़ताल करें और फ़ासिस्ट विकृतिकरण से इतिहास पर जमी काई को साफ़ करें।
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री कामगार दिवस का इतिहास स्त्री कामगारों के पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष से जुड़ा हुआ है। यूरोप, अमेरिका व दुनिया के अलग अलग हिस्सों में स्त्री कामगारों ने अपने हक़-अधिकारों की लड़ाई का आग़ाज़ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही कर दिया था। 1857 में लूट और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के बर्बर शोषण और उत्पीड़न से परेशान कपड़ा मिल के स्त्री मज़दूरों ने अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में मज़दूरी में वृद्धि और बेहतर कार्य स्थितियों व काम के घण्टे 16 की जगह 10 करने के लिए विशाल धरना प्रदर्शन किया। स्त्री मज़दूरों की एकता और जुझारू संघर्ष से बौखलाये अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के इशारों पर “लोकतन्त्र की जननी” अमेरिका की पूँजीवादी सरकार द्वारा इस आन्दोलन का बुरी तरह दमन किया गया। इस भयानक दमन के बाद भी स्त्री मज़दूर योद्धाओं का हौसला नहीं डिगा। पूँजीपतियों की चाहत के विपरीत इससे सबक सीखते हुए दो वर्ष बाद इन स्त्रियों ने अपनी पहली यूनियन का गठन किया। 1908 में न्यूयॉर्क में क़रीब 20,000 स्त्री श्रमिकों ने बेहतर कार्य-स्थितियों, वोट देने के अधिकार और बेहतर मज़दूरी के लिए प्रदर्शन किया। इस आन्दोलन ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा।
1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगेन में दुनिया भर की मज़दूर पार्टियों के अन्तरराष्ट्रीय मंच ने अन्तरराष्ट्रीय स्त्री सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें दुनिया के 17 देशों की 100 से ज़्यादा स्त्री राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। इसी सम्मेलन में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेता क्लारा जेटकिन ने यह प्रस्ताव रखा कि स्त्रियों के संघर्ष के दिन को अन्तर्राष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाये। इस प्रस्ताव पर सदन में आम सहमति बनी। इसके बाद पहली बार अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस 19 मार्च, 1911 को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में मनाया गया। इसके बाद 1921 तक हर साल फ़रवरी माह के आख़िरी रविवार को अन्तर्राष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।
रूस में 1917 की फ़रवरी क्रान्ति के दौरान युद्ध रोकने, भोजन, आवास और बेहतर जीवन स्थितयों की माँग को लेकर बड़ी संख्या में स्त्रियों ने प्रदर्शन किया। स्त्रियों के इस आन्दोलन से पैदा हुआ ज्वार ज़ारशाही के खात्मे तक पहुँचा और फिर केरेंस्की की आरज़ी सरकार के खात्मे तथा मज़दूर वर्ग के महान नेता लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक क्रान्ति के रूप में मुकाम पर पहुँचा। रूस की समाजवादी सत्ता ने पहली बार स्त्रियों को चूल्हे-चौखट से आज़ाद कराया और स्त्रियों को मताधिकार मिला। चूँकि स्त्रियों का यह महान प्रदर्शन भी 8 मार्च को शुरू हुआ था, इसलिए इस तारीख़ को अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस के रूप में चुना गया।
इस संघर्ष की गर्मी कुछ देशों तक सीमित नहीं रही बल्कि इसकी आँच दुनिया भर में औपनिवेशिक दमन झेल रहे देशों तक भी पहुँची। अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस की क्रान्तिकारी विरासत से प्रेरणा लेते हुए औपनिवेशिक देशों की स्त्रियों ने भी दमन और उत्पीड़न के जुए से आज़ादी के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में न केवल भागीदारी की बल्कि कई जगहों पर आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया। इन दशाब्दियों में दुनियाभर की स्त्रियों ने पूँजी और पितृसत्ता के ख़िलाफ़ अपने अधिकार के लिए कई संगठित लड़ाइयाँ लड़ीं और कई अधिकार हासिल भी किये। भारत जैसे देश में राष्ट्रीय आन्दोलन से लेकर तमाम मज़दूरों-मेहनतकशों के आन्दोलन में औरतों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की।
लेकिन आज इस विरासत को छिपाकर इसे एक बाज़ारू त्यौहार में तब्दील करने की कोशिश न केवल सत्ताधारियों द्वारा की जा रही है बल्कि एनजीओछाप राजनीति, अस्मितावादी राजनीति और संशोधनवादी पार्टियों द्वारा भी की जा रही है जो स्त्री मुक्ति के सवाल को पूँजीवादी गलियारों में कैद करने की घटिया राजनीति करती हैं। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। दुनिया का इतिहास रहा है कि संशोधनवादी राजनीति अपने उग्रपरिवर्तनवादी नारों और छद्म रैडिकल भाषणों के ज़रिये जनता की विरासत को धूमिल कर अन्ततः पूँजीवाद की आख़िरी सुरक्षापंक्ति बन जाती है। इन्हीं के पापों की वजह से मज़दूर वर्ग अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति को बनाये रखने में असमर्थ होता है और फ़ासीवाद जैसी प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ राजनीति को भी फलने-फूलने की उर्वर ज़मीन मिलती है। आज आन्दोलन के मद्धिम पड़ने की वजह से स्त्रियों को मिले अधिकार एक ओर छीने जा रहे हैं, दूसरी ओर पूँजीवादी पितृसत्ता का हमला भी दिन-ब-दिन तेज़ होता जा रहा है।
समाज में स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति : पूँजीवाद और पितृसत्ता के नापाक गठजोड़ का नतीजा
चीन में समाजवाद के टूटने के साथ ही सर्वहारा क्रान्तियों का एक चक्र पूरा हुआ है और फिलहाल श्रम की ताक़तों पर पूँजी की ताक़तें अभूतपूर्व रूप में हावी हैं। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक पतनशील शासक पूँजीपति वर्ग के भाड़े के बुद्धिजीवियों द्वारा ‘इतिहास का अन्त’, ‘विचारधारा का अन्त’ जैसे उत्तरआधुनिक शोर और पूँजीवाद के अमरत्व जैसी तमाम अन्तहीन बकवास करते हुए मेहनतकश जनता के हक़-अधिकार पर हमला बोल रहे थे। यह शोर पूँजीवादी संकट के गहराने के पिछले दो दशकों में मरघटी सन्नाटे में तब्दील हो चुका है। लेकिन निश्चित ही आज भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी शक्तियाँ बिखरी हुई हैं और राजनीतिक तौर पर वह पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के समक्ष कोई चुनौती पेश करने की स्थिति में नहीं है। पूँजीपति वर्ग अपनी मन्दी का बोझ मज़दूरों के कन्धों पर डाल रहा है और उनकी औसत मज़दूरी को घटा रहा है, उनके काम के घण्टे बढ़ा रहा है, उनके तमाम श्रम अधिकारों को छीन रहा है, जो कि पहले ही काफ़ी हद तक कागज़ी बन चुके थे। स्त्री मज़दूरों की स्थिति और भी ज़्यादा भयंकर है।
स्त्रियाँ आज पूँजीवाद और पूँजीवादी पितृसत्ता की दोहरी गुलामी झेल रही हैं। एक तरफ पूँजीवादी व्यवस्था सस्ती स्त्री-श्रमशक्ति के दोहन के ज़रिये अपना मुनाफ़ा बढ़ा रही है वहीं दूसरी तरफ पूँजीवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता ने स्त्रियों को भी एक बिकाऊ माल बनाकर बाज़ार में खड़ा कर दिया है। आज स्त्री सम्मान, बराबरी, न्याय, नारीशक्ति, नारी सशक्तीकरण के कानफोड़ू शोर के पीछे जो असली सवाल छिपा दिया जा रहा है वह यह है कि आज भी समान काम के लिए स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में 67 फ़ीसदी मेहनताना ही मिलता है। पीस रेट पर होने वाले काम में अधिकांशतः स्त्रियाँ काम करती हैं, जहाँ बेहद कम मेहनताने पर 12 से 14 घण्टे काम कराया जाता हैं। इन्हें कार्यस्थल पर सुरक्षा, बीमा, मेडिकल जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री कार्यबल एक प्रकार की औद्योगिक रिज़र्व सेना का निर्माण करती है। समृद्धि के दौर में, स्त्रियों को बड़े पैमाने पर उद्योगों में काम पर रखा जाता है जैसा कि 70 के दशक तक इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में तेज़ी के दौर में देखा गया। पूँजीपति स्त्रियों के सस्ते श्रम के बूते पुरुष मज़दूरों के वेतन को भी अधिकतम सम्भव स्तर तक कम करने का प्रयत्न करता है। वहीं मन्दी के दौर में छँटनी की पहली शिकार स्त्रियाँ होती हैं जैसा कि पिछले 30 वर्षों में और विशेष रूप से 2008 से देखा जा सकता है। मन्दी के दौरों में पूँजीपति वर्ग और साथ ही राज्य, लगातार श्रम बाज़ार से स्त्रियों को आंशिक वापसी के लिए प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार स्त्री मज़दूरों को घर की चौहद्दी में क़ैद कर और घरेलू कामों में लगाकर पूँजीपति वर्ग मज़दूरी की औसत दर में कमी लाने का प्रयास करता है क्योंकि इसके ज़रिये वह श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को घटाने का काम करता है और पुरुष मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाता है। यही काम आँगनवाड़ी, आशाकर्मियों जैसे स्कीम वर्कर्स के ज़रिये भी पूँजीपति वर्ग कर रहा है। स्त्रियों पर लक्षित विज्ञापनों की भरमार ने पूँजीवाद के दोहरे मंसूबे को दर्शाया, जिससे खपत में वृद्धि हुई और एक आदर्श गृहिणी और माँ की छवि को बढ़ावा मिला जिसे खाना बनाना, झाड़ू लगाना और हमेशा सुन्दर दिखना पसन्द है। मतलब साफ़ है कि पितृसत्ता को अपने हितों के मातहत बदलकर और पितृसत्तात्मक मानदण्डों के प्रयोग से पूँजीपति वर्ग को अपने माल की खपत के लिए बाज़ार मिलता है। एक तरफ पूँजीवादी पितृसत्ता पूँजीपति वर्ग द्वारा श्रमशक्ति की निर्मम लूट के लिए रास्ता प्रशस्त करती है वहीं दूसरी ओर स्त्री-विरोधी मानसिकता को भी बढ़ावा देती है।
भारत जैसे देश में जहाँ पूँजीवाद पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति के ज़रिये स्थापित होने के बजाय ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा आरोपित आर्थिक-सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ, वहाँ अपने जन्म से ही कुपोषित-बीमार-विकलांग भारतीय पूँजीपति वर्ग ना तो जातिवाद, पितृसत्ता जैसे मूल्यों के ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी बुर्जुआ जनवादी मूल्यों की स्थापना के लिए लड़ सकता था और ना ही इसे लड़ने की आवश्यकता थी। बल्कि भारतीय पूँजीपति वर्ग ने अपने हितों के मातहत इन मूल्य-मान्यताओं में आवश्यक बदलाव के साथ इन्हें अपने ढाँचे में शामिल कर लिया जिसकी वजह से भारतीय समाज में पुराने मूल्य-मान्यताओं की जकड़बन्दी नये रूपों में आज भी बनी हुई है। इस वजह से पेशा-पोशाक-जीवनसाथी जैसे निहायत वैयक्तिक मामलों में भी भारतीय समाज स्वतन्त्र नहीं है। इसी पृष्ठभूमि पर तमाम धार्मिक कट्टरपन्थी, तमाम रूढ़िवादी ताक़तें प्रश्रय पाती हैं। स्त्रियों की स्वतन्त्र सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी, अपने जीवन के मामले में खुद फैसला लेने की कोशिशें रूढ़िवादी-कट्टरपन्थी ताक़तों को बर्दाश्त नहीं होती। उदाहरण के लिए देवरिया में एक लड़की के जीन्स पहनने की वजह से उसके चाचा द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। इसी तरह हैदराबाद में एक पिता द्वारा 18 महीने की अपनी बेटी की काले रंग के चलते ज़हर खिला कर हत्या कर दी गई। पूँजीवादी न्याय व्यवस्था में स्त्री विरोधी व रूढ़िवादी सोच किस क़दर हावी है इस बात से ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने यह बयान दिया था कि पति द्वारा पत्नी का वैवाहिक बलात्कार ग़लत नहीं है। इसी तरह उत्तराखण्ड सरकार द्वारा यूसीसी बिल लागू कर लिव इन रिलेशनशिप यानी स्वेच्छा से बिना विवाह के साथ रहने के अधिकार को तमाम क़ानूनी सीमाओं में बाँध दिया गया है। यह एक नागरिक के स्वतन्त्र व्यतित्व विकसित करने व निर्णय लेने की स्वतन्त्रता पर हमला है।
ये बयान और इस तरह के क़ानून दिखाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था स्त्रियों को उसी हद तक आज़ादी देता है जहाँ तक उसके मुनाफ़े में कोई बाधा न पैदा हो। माल उत्पादन पर टिकी यह व्यवस्था स्त्रियों को भी एक बिकाऊ माल या आइटम में तब्दील कर देती है। राह चलते इसकी घिनौनी अभिव्यक्तियाँ साफ सुनाई देती हैं। टीवी और सिनेमा में स्त्री शरीर का गरिमाहीन व अश्लील प्रदर्शन, आइटम साँग, स्त्रियों के बारे में फूहड़ चुटकुले आदि आम बात है। किशोरों और युवाओं की एक बड़ी आबादी हिंसक क़िस्म के अश्लील गानों को सुन-सुनकर बड़ी हो रही है। ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा उछालने वाली सरकार के समय में स्त्री-विरोधी अपराध और बर्बरता के मामले रिकार्ड तोड़ स्तर पर बढ़ गये हैं। वैसे सभी चुनावी पार्टियों में स्त्री उत्पीड़न के अपराधी भरे पड़े हैं लेकिन भाजपा इन सब में चार क़दम आगे है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार संसद के 43% सांसदों पर हत्या, अपराध, बलात्कार के मुक़दमे दर्ज हैं। आज घर, ऑफिस, सड़क, कारख़ाना, कॉलेज हर जगह पर स्त्रियों को दमन-उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। वैसे तो बुर्जुआ व्यवस्था अपनी स्वाभाविक आन्तरिक गति से प्रति पल स्त्री विरोधी मानसिकता को उत्पादित और पुर्नुत्पादित करता रहता है। आर्थिक संकट के दौरों में फ़ासीवाद जैसी आपवादिक बुर्जुआ सत्ताओं के अस्तित्व में आने पर समाज में बर्बर अमानवीय और पाशविक तत्वों को और भी ज़्यादा बढ़ावा मिलता है। पिछले 11 सालों से हमारा देश इसका साक्षी बन रहा है।
जब ज़ुल्म बढ़ जाता है तो लोग उसे अपनी नियति मान बैठते हैं और सहन करना एक आदत बन जाती है! आज ठीक ऐसा ही हो रहा है। भयंकर क़िस्म के स्त्री-विरोधी अपराधों को अंजाम दे दिया जाता है और लोग अन्धे-बहरे-गूँगे बने देखते रहते हैं जैसे कि कुछ हुआ ही न हो! छोटी बच्चियों से लेकर बुज़ुर्ग स्त्रियाँ तक देश में सुरक्षित नहीं है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2022 में 4,45,256 स्त्री-विरोधी आपराधिक मामले दर्ज़ हुए। 2016 में ऐसे मामलों की संख्या 3,38,954 थी जबकि 2012 में इनकी संख्या 2,44,270 थी। स्त्री-विरोधी अपराध समाज पर बारिश की तरह बरस रहे हैं। इसके बावजूद समाज से इनके प्रतिरोध का स्वर बहुत विरल, क्षीण और गायब-सा है।
बढ़ते स्त्री विरोधी अपराधों के मूल और स्त्रियों के दोयम दर्ज़े के नागरिक होने की जड़, इस पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीवादी पितृसत्ता पर मरणान्तक चोट करने के लिए लोगों को जागरूक-गोलबन्द करने की ज़रूरत है। यह काम विश्व-पूँजीवाद और साम्राज्यवादी लुटेरों की कठपुतलियों और संशोधनवादी-सुधारवादी राजनीति के भरोसे नहीं किया जा सकता क्योंकि इनकी राजनीति भी अपने आख़िरी विश्लेषण में पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती है।
8 मार्च की विरासत : सुधारवाद, संशोधनवाद, नारीवाद और एनजीओपन्थ से नाता तोड़ो, व्यापक मेहनतकश जनता के मुक्ति संघर्ष से नाता जोड़ो!
जो दिन हमारी मेहनतकश बहनों के संघर्ष का प्रतीक है आज उस दिन को माल बेचने के लिए महज एक त्यौहार बना दिया गया है। तमाम कम्पनियाँ इस दिन को मध्यवर्गीय स्त्रियों को लुभाने के लिए कॉस्मेटिक से लेकर कपड़ों-गहनों पर भारी छूट पर सीमित कर देती हैं और विज्ञापनों के जरिये स्त्रियों के संघर्ष के दिन को भी अपने मुनाफ़े को बढ़ाने में इस्तेमाल करती हैं। एनजीओपन्थी सुधारवाद व नारीवादी भी स्त्री संघर्षों के इस दिन को महज एक रस्मी कवायद करके काम ख़त्म कर लेती हैं और यह रस्मी कवायद भी केवल मध्यवर्गीय स्त्रियों तक ही सीमित होता है। नारी सशक्तीकरण के नाम पर की जाने वाली तमाम कवायदों के बहाने स्त्री मुक्ति के स्वप्न को व्यवस्था के दायरे के भीतर नौकरी, चुनावी राजनीति (संसद-विधानसभा आदि) में भागीदारी जैसे सुधारवादी भ्रमजालों में कैद कर दिया जाता है। नारी सशक्तिकरण के इस नारे की गूँज उन करोड़ों मेहनतकश औरतों तक कभी नहीं पहुँचती जो पूँजीवाद और पितृसत्ता दोनों के जुए तले पिस रही हैं। शासन-प्रशासन, मीडिया-फ़िल्म, रील-जगत आदि क्षेत्रों में शामिल शासक वर्ग व उच्च मध्यवर्ग की गिनी चुनी लड़कियों के उदाहरण देकर शासक वर्ग स्त्रिओं के सशक्तिकरण का दम भरता है। शासक वर्ग द्वारा इस दिन की पूरी क्रान्तिकारी विरासत पूरे स्त्री समुदाय से काट कर केवल एक दिन के लिए बसों में मुफ्त यात्रा, सामानों पर विशेष छूट व तमाम सेवाओं में छूट और एकाध स्त्रियों को अतिरिक्त सम्मान देने जैसे नाटकों तक सीमित कर दिया जाता है। आज इस नारी सशक्तीकरण और इस अनुष्ठान से अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस को मुक्त करना ज़रूरी है साथ ही इसे मध्यमवर्गीय दायरे से निकाल कर मेहनतकश जनता तक ले जाना एक जरूरी कार्यभार है।
स्त्री मुक्ति का रास्ता क्या होगा? सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी-शिक्षित उच्च मध्यवर्गीय कुलीनतावादी दायरे के पार ले जाना होगा। इसे एनजीओपन्थी सुधारवादी संगठनों की पहचान की राजनीति से मुक्त करना होगा जो स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री-मुक्ति के आन्दोलन को महज स्त्री की पहचान की लड़ाई तक सीमित कर देते हैं। दूसरी बात कि उन नारीवादियों की राजनीति को भी समझना होगा जो स्त्री मुक्ति की लड़ाई को स्त्री बनाम पुरुष बनाकर स्त्री मुक्ति के आन्दोलन को पूरे जनसमूह से कटकर व्यक्तिगत विद्रोह तक समेट देती हैं। तीसरी बात संसदीय वामपन्थी पार्टियों से जुड़े स्त्री संगठनों की राजनीति का भी पर्दाफाश करना होगा जो स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को भी संसदीय राजनीति और प्रतिनिधित्व के संकीर्ण दायरे में समेट देते हैं। इसकी सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि ऐसे किसी भी चनाजोरगरम नुस्ख़े से मेहनतकश स्त्रियों के जीवन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। संसदीय व्यवस्था के भीतर स्त्री आरक्षण की माँग जनता को इसी पूँजीवादी दायरे के भीतर ही समाधान का धोखा देने जैसा है। संसद-विधानसभा लुटेरे अपराधियों का गढ़ बन चुका है। अगर इसमें कुछ स्त्रियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा दिया जाए तब भी आम मेहनतकशों का प्रतिनिधित्व नहीं हो सकेगा। स्त्री होना ही किसी को अपने आपमें जनपक्षधर, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी नहीं बना देता है। अभी भी जो स्त्रियाँ इस दहलीज को पार कर सकी हैं उनका मेहनतकशों के जीवन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है और जनता के ख़िलाफ़ शासक वर्गों की तमाम कार्रवाइयों को अंजाम देने में कई बार ये पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक नुमाइन्दगी करने वाली औरतें पूँजीवादी पुरुष राजनीतिज्ञों को भी मात दे देती हैं। यह माँग ही गैर-सर्वहारा वर्ग-सहयोगवादी माँग है। यह माँग इसी पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र में मुक्ति का भ्रम और स्त्री मुक्ति के रास्ते में रोड़ा पैदा करेगा। अगर पूँजीवादी सत्ता अपने से यह क़ानून लागू करे तो हम उसका विरोध नहीं करेंगे लेकिन हमें इस भ्रम के ख़िलाफ़ भी लगातार संघर्ष करना होगा कि कुछ स्त्रियों को संसद-विधानसभाओं में आरक्षण दे देने से स्त्री मुक्ति के आन्दोलन को कोई लाभ पहुँचेगा। स्त्री पहचान ही अपने आपमें किसी को क्रान्तिकारी व प्रगतिशील नहीं बना देती। सवाल यह होता है कि उसकी राजनीति किस वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करती है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
वास्तव में निजी संपत्ति के पैदा होने के साथ ही स्त्रियों की गुलामी की शुरुआत होती है। पूँजीवाद निजी सम्पति की सबसे उन्नततम व्यवस्था है। इसका खात्मा ही स्त्री-मुक्ति का रास्ता हो सकता है। पूँजीवाद और पितृसत्ता नाभिनालबद्ध है। भारत जैसे देश में प्रशियाई रास्ते से बेहद मन्थर और कष्टदायी प्रक्रिया हुए पूँजीवादी विकास की वजह से ऐतिहासिक तौर पर तर्क, विज्ञान और जनवाद की जमीन यहाँ बेहद कमज़ोर रही है। आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के आन्दोलन के ऊपर यह ज़िम्मेदारी है कि इतिहास के इस छूटे हुए कार्यभार को नये सिरे से रेखांकित करे और नये सर्वहारा पुनर्जागरण-प्रबोधन के वैचारिक कार्यभार को पूरा करे और साथ ही स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को मेहनतकशों के मुक्ति आन्दोलन से जोड़कर इस असमानता-लूट और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था को नष्ट कर एक समतामूलक, मानव केन्द्रित समाज व्यवस्था का निर्माण किया जाये।
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