चुनाव आते ही मोदी के साम्प्रदायिक बयानों, झूठों और ग़लतबयानियों की अन्धाधुन्ध बमबारी के मायने
नौरीन
मंगलसूत्र, मुसलमान, मछली, मुस्लिम लीग, मेनिफ़ेस्टो ऑफ़ कांग्रेस! ये वो चन्द शब्द हैं जो पिछले कुछ दिनों से प्रधानमन्त्री की ज़ुबान पर छाये हुए हैं। इन दिनों प्रधानमन्त्री मोदी का ऐसा शायद ही कोई भाषण हो जिसमें इन शब्दों का ज़िक्र न हुआ हो। जो प्रधानमन्त्री 10 साल पहले महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार की बातें करते नहीं थकते थे, आज उनके मुँह से महँगाई का ‘म’, बेरोज़गारी का ‘ब’, भ्रष्टाचार का ‘भ’ ऐसे ग़ायब हुआ है जैसे गधे के सिर से सींग ग़ायब होता है।
पहले चरण का चुनाव ख़त्म होते ही प्रधानमन्त्री ने अपने भाषणों में मुसलमानों पर हमले तेज़ कर दिये हैं। प्रधानमन्त्री को अच्छे से पता है कि इस बार के चुनाव में उनके जुमले नहीं चल रहे हैं । लोगों को समझ आ गया है कि ‘मोदी की गारण्टी’ का मतलब बेरोज़गारी की गारण्टी, महँगाई की गारण्टी, भ्रष्टाचार की गारण्टी, भुखमरी की गारण्टी है।
अपने दस साल के कार्यकाल में मोदी सरकार ने जनता की ज़िन्दगी को बद से बदतर बनाने का काम किया है। आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लाद कर विजय माल्या, मेहुल चौकसी जैसे पूँजीपतियों का कर्ज़ा माफ़ करने का काम किया है। जनता से किये हुए वायदों को पूरा करने में ये सरकार पूरी तरह से विफल रही है। यही कारण है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार चुनाव दर चुनाव जाति-धर्म, मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर अपनी चुनावी नैया पार करने की कोशिश करती रही है।
21 अप्रैल को राजस्थान के बांसवाड़ा में “प्रधानसेवक” ने मनमोहन सिंह के जिस बयान का हवाला देकर इस चुनाव में अपनी तरफ़ से साम्प्रदायिक बयानों की औपचारिक शुरुआत की थी, वह तथ्यात्मक रूप से उतना ही सच था जितना 15 लाख खाते में आने की बात सच थी! अगर “प्रधानसेवक” इण्टायर पॉलीटिकल साइंस के अलावा किसी और विषय में पढ़े होते तो शायद मनमोहन सिंह के बयान का इस तरीके से विश्लेषण नहीं करते! खैर! “प्रधानसेवक” हैं ही झूठ बोलने के लिए विश्वविख्यात! इसलिए वे अपने काम में ज़ोर–शोर से लगे हुए हैं ।
झूठ की बुनियाद पर टिके प्रधानमन्त्री के साम्प्रदायिक भाषणों के कुछ उदाहरण
पिछले कुछ दिनों में मोदी के भाषणों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि ऐसा कोई दिन नहीं होगा जब मोदी ने साम्प्रदायिक भाषण न दिया हो। पहले चरण का चुनाव समाप्त होने के बाद से प्रधानमन्त्री के भाषणों में जिस तरीक़े से मुस्लिम विरोधी भाषा का इस्तेमाल किया गया है वह ख़तरनाक है। राजस्थान के टोंक में चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देना चाहती है। प्रधानमन्त्री मोदी ने मुसलमानों पर टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘घुसपैठिये’ और ‘ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला’ कहा।
हालाँकि, आरक्षण पर फ़ासिस्ट भाजपा के दोहरे चरित्र को भी समझना ज़रूरी है। जिस आरक्षण का डर दिखाकर प्रधानमन्त्री मोदी लोगों के बीच आग लगाने की कोशिश कर रहे हैं उसी आरक्षण को पिछले 10 सालों से उनकी सरकार ख़त्म कर रही है। कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों की स्कॉलरशिप को ख़त्म कर दिया गया है। यह दीगर बात है कि आरक्षण से ही ग़रीब दलितों व पिछड़ों की किसी समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। लेकिन मोदी का झूठ यहाँ साफ़ तौर पर पकड़ा जा सकता है।
हमारे सामने ज्वलन्त सवाल तो यह है कि पिछले 10 सालों में फ़ासीवादी मोदी सरकार ने कई सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेच दिया है। निजीकरण का जो नंगा खेल मोदी सरकार खेल रही है उसमें आरक्षण के होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। जब सारे सार्वजनिक उपक्रमों को ही बेच दिया जायेगा, सभी नौकरियों को ख़त्म कर दिया जायेगा जैसा कि फ़ासीवादी मोदी सरकार कर रही है, तो आरक्षण के झुनझुने से जो प्रतीकात्मक मिलने का भ्रम पैदा हो रहा था, वह भी नहीं होने वाला।
अपने भाषण में प्रधानमन्त्री मोदी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस का मेनिफ़ेस्टो मुस्लिम लीग से प्रभावित है। और इस तरह भारत के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम लीग की औपचारिक एण्ट्री हो गयी! अब जब चुनाव में मुस्लिम लीग की एण्ट्री हो ही गयी है तो लगे हाथ “प्रधानसेवक” को चाहिए कि वे देश की जनता को यह भी बता दें कि आख़िर ऐसी क्या मजबूरी थी की हिन्दू महासभा को मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी? यह हिन्दू महासभा वही संगठन है जिसका अध्यक्ष माफ़ीवीर सावरकर रह चुका है और हमारे “प्रधानसेवक” का सावरकर-प्रेम किसी से छिपा नहीं है। सावरकर की ही नफ़रती और ज़हरीली राजनीति को आगे बढ़ाने का काम बड़ी ही शिद्दत के साथ भाजपा और प्रधानमन्त्री मोदी कर रहे हैं। भाजपा के विचारक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने, जो उस समय हिन्दू महासभा से जुड़े हुए थे, 1940 में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सिन्ध और उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में गठबन्धन की सरकार बनायी थी।
यह कोई पहला उदाहरण नहीं है जब फ़िरकापरस्त साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों ने ऐसी पार्टियों के साथ सरकार बनायी हो जिसे मोदी जी और भाजपा चीख-चीख कर आतंकवादी और देशद्रोही कहते हैं। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद भाजपा ने महबूबा मुफ़्ती की पार्टी पीडीपी के साथ, जिसे कभी बीजेपी और प्रधानमन्त्री मोदी आतंकवादी और देशद्रोही संगठन कहते थे, 2015 में जम्मू कश्मीर में गठबन्धन में सरकार बनायी और 40 महीने तक सरकार चलायी। इससे दमित कश्मीरी क़ौम के सामने महबूबा मुफ़्ती जैसे दलालों का चरित्र भी साफ़ होना चाहिए। वे कभी भी कश्मीरी क़ौम के राष्ट्रीय दमन के विरुद्ध एक जुझारू जनसंघर्ष नहीं खड़ा कर सकते हैं। यह दिखाता है कि इस फ़ासीवादी मोदी सरकार का कोई भरोसा नहीं है। यह लोगों को बाँटने के लिए हिन्दू-मुसलमान, मुस्लिम लीग, श्मसान-कब्रिस्तान, मन्दिर-मस्जिद की बात करते हैं लेकिन जब भी मौक़ा मिलता है तो अन्य धर्मों के फ़िरकापरस्तों और कट्टरपंथियों के साथ सत्ता की मलाई खाने से परहेज़ नहीं करते। यह सत्ता में बने रहने के लिए येण-केण-प्रकारेण तरीक़े से किसी के साथ भी गठबन्धन बना सकते हैं।
दिन बीतने के साथ ही “लव जिहाद”, “लैण्ड जिहाद”, “नौकरी जजिहाद” के बाद अब इस चुनाव में “वोट जिहाद” का भी राग प्रधानमन्त्री द्वारा छेड़ दिया गया है। मध्य प्रदेश के अपने भाषण में प्रधानमन्त्री मोदी ने एक ख़ास धर्म को निशाना बनाते हुए “वोट जिहाद” बनाम “राम राज्य” की बात कही। प्रधानमन्त्री के इन भाषणों में दो चीज़ें महत्वपूर्ण है। पहला, झूठ बोलने की आदत से मजबूर हमारे “प्रधानसेवक” ने पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के जिस 18 साल पुराने बयान के हवाले से यह बात कही, उस पूरे बयान को सन्दर्भ से काटकर तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया। दूसरा, इस पूरे बयान को भाजपा बनाम कांग्रेस के सन्दर्भ में देखने के बजाए यह समझने की ज़रूरत है की मोदी और भाजपाइयों के लिए मुसलमानों को एक नकली दुश्मन बनाकर पेश करने और धार्मिक ध्रुवीकरण करना एक अनिवार्यता है। फ़ासीवाद को हमेशा किसी अल्पसंख्यक समुदाय में एक नकली दुश्मन की ज़रूरत होती है। उसके बिना व्यापक जनसमुदायों के गुस्से को असली दुश्मन, यानी पूँजीवाद, की ओर से मोड़कर भटकाया नहीं जा सकता है। जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहा है और कोई जुमला नहीं चल रहा है, वैसे-वैसे प्रधानमन्त्री की एक ख़ास धर्म, यानी, मुसलमानों के प्रति नफ़रत खुलकर सामने आ रही है, जो फ़ासीवादी राजनीति और मानसिकता का ही परिणाम है। उन्मादी और साम्प्रदायिक भाषणों का खुला खेल फर्रुख़ाबादी चल रहा है और चुनाव आयोग धृतराष्ट्र बना बैठा है।
प्रधानमन्त्री मोदी लगातार जो साम्प्रदायिक तीर छोड़ रहे हैं उससे एक बात तो स्पष्ट है की चुनाव में भाजपा की स्थिति ठीक नहीं है। अपनी जीत को लेकर ये खुद भी निश्चिन्त नहीं है। इसीलिए समय-समय पर साम्प्रदायिक बातें करके माहौल बनाने की कोशिश लगातार की जा रही है। प्रधानमन्त्री मोदी लगातार इस फ़िराक़ में हैं की किसी तरह लोगों के बीच में उन्मादी माहौल बने और फिर वह इस माहौल का इस्तेमाल चुनाव में वोट बटोरने के लिए कर सकें। लेकिन इस चुनावी माहौल में हमें अपने ज़हन में ये बात बैठा लेने की ज़रूरत है कि ना हिन्दू ख़तरे में है, न मुसलमान ख़तरे में है, सच तो यह है कि इन साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की सरकार ख़तरे में है।
जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का
मोदी की गोदी में बैठा केन्द्रीय चुनाव आयोग नाममात्र की “निष्पक्षता” का चोला भी उतार कर एकदम नंगई से मोदी के साथ खड़ा है। चुनाव आयोग की ओर से लागू आदर्श आचार संहिता के मुताबिक़ चुनाव प्रचार के दौरान न तो धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है और न ही धर्म, सम्प्रदाय और जाति के आधार पर वोट देने की अपील की जा सकती है। आचार संहिता के मुताबिक़, किसी भी धार्मिक या जातिगत समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने वाले भाषण देने या नारे लगाने पर भी रोक है। प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा नेताओं की तरफ़ से हर दिन साम्प्रदायिक और उन्मादी भाषणों की बौछारें की जा रही है लेकिन चुनाव आयोग आँख, कान और मुँह बन्द करके “मैंनू की” मुद्रा में है ।
चुनाव आयोग का रवैया इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि पूँजीवादी संस्थानों की कथनी-करनी में कितना अन्तर होता है। कहने के लिए तो इसका काम लोगों के वोट डालने के जनवादी अधिकार की रक्षा करना और निष्पक्षता के साथ चुनाव करवाना है। लेकिन चुनाव आयोग फ़ासीवादी मोदी सरकार के साथ गलबहियाँ करने में व्यस्त है और स्वयं भाजपा के प्रवक्ता की भूमिका में है।
इस मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था में, विशेष तौर पर फ़ासीवाद के दौर में, कोई भी संस्था आम मेहनतकश जनता के हित में न तो कम कर सकती है और न ही उसके जनवादी अधिकार को सुरक्षित रख सकती है। इस व्यवस्था का चरित्र ही ऐसा है कि यह आम मेहनतकश जनता विरोधी है और पूँजीपतियों, मालिकों, धन्नासेठों, मुनाफ़ाख़ोरों के पक्ष में खड़े होकर उनके हित को साधती है। फ़ासीवाद के दौर में निष्पक्ष होने का ड्रामा भी समाप्त हो जाता है और सभी पूँजीवादी संवैधानिक संस्थाएँ खुलकर फ़ासीवादी पार्टी, हमारे देश में भाजपा, के पक्षपोषण के काम में लग जाती हैं।
तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि क़ाफ़िला क्यों लुटा !
पिछले 10 सालों से “प्रधानसेवक” की सुनी–सुनायी, घिसी–पिटी बातें सुनकर जनता ऊब चुकी है। इधर–उधर की बकैती सुनने के बजाए देश की मेहनतकश जनता यह जानना चाहती है की क्या हुआ हर साल 2 करोड़ नौकरी का के वायदे का? क्यों देश में 32 करोड़ लोग बेरोज़गारी के धक्के खा रहे हैं? क्यों एक तरफ़ महँगाई मज़दूरों का खून पी रही है तो दूसरी तरफ़ चन्द मुट्ठी भर लोग ऐय्याशी की ज़िन्दगी जी रहे हैं? क्यों देश की मेहनतकश अवाम की आमदनी नहीं बढ़ रही है और “प्रधानसेवक” के खरबपति धन्नासेठ मित्रों यानी अम्बानी–अदाणी की सम्पत्ति बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से बढ़ रही है? क्यों हमारे देश में हर रोज़ साढ़े चार हज़ार बच्चे भूख और कुपोषण से अपना दम तोड़ दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ एफ़सीआई के गोदामों में अनाज सड़ा दिये जा रहे हैं? क्यों देश के छात्र–नौजवान आत्महत्या करने को मज़बूर हैं? हवाई चप्पल पहनने वालों को जहाज़ में बैठने का सपना दिखाने वाले “प्रधानसेवक” के शासनकाल में क्यों लोगों का ट्रेनों में सफ़र करना भी मुश्किल हो गया है?
“प्रधानसेवक” के गुलाबी सपनों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है। यह तो महज़ चन्द वायदे हैं जो “प्रधानसेवक” ने अपने पिटारे से निकाले थे। चूँकि ये वायदे भी 15 लाख की तरह जुमले और झूठे साबित हुए हैं इसीलिए जनता को असली मुद्दों से गुमराह करने के लिए “प्रधानसेवक” ने मछली, मुसलमान, मंगलसूत्र, मुस्लिम लीग का राग आलापना शुरू कर दिया है। लेकिन देश की मेहनतकश जनता “प्रधानसेवक” की बाँटों और राज करो के हथकण्डे से अब काफ़ी हद तक परिचित हो गयी है। पिछले 10 सालों में देश को दंगे की आग में झोंकने की जो घिनौनी राजनीति फ़ासीवादी मोदी सरकार ने की है उससे भी जनता बख़ूबी वाक़िफ है। यही कारण है कि चुनाव में तमाम साम्प्रदायिक भाषणों के बावज़ूद प्रधानमन्त्री लोगों की भावनाओं को उभारकर उन्मादी माहौल बनाने अपेक्षाकृत रूप से सफल नहीं हो पा रहे हैं। समय-समय पर उनके भाषण उनकी बौख़लाहट और छटपटाहट को भी दिखा रहा है।
मोदी की साम्प्रदायिक राजनीति का मुँहतोड़ जवाब कैसे दिया जाये?
पिछले 10 सालों में फ़ासीवादी मोदी सरकार ने मज़दूरों-मेहनतकशों को सिर्फ़ लूटने-ख़सोटने और तबाह-बर्बाद करने का काम किया है। मोदी सरकार को इस बात का ख़ौफ भी है कि कहीं मज़दूरों का असन्तोष न फूट पड़े और आम मेहनतकश जनता एकजुट, संगठित और गोलबन्द होकर उन्हें इतिहास के कचरा पेटी में न फेंक दे जहाँ इन फ़ासिस्टों की असली ज़गह है। इसीलिए लगातार मंगलसूत्र, मुस्लिम लीग, आदि जैसे नकली मुद्दे लोगों के बीच में लाकर उनके बीच बॅंटवारे की दीवार खड़ी रखना चाहते हैं।
एक सवाल यह भी उठता है कि आख़िर क्या कारण है कि एक तरफ़ फ़ासिस्ट मोदी सरकार लगातार साम्प्रदायिक भाषणों की बौछार किये जा रही है लेकिन विपक्ष यानी कि कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी इत्यादि समेत तमाम तथाकथित “वामपन्थी” पार्टियाँ पर्याप्त रूप से इसका मुँहतोड़ ज़वाब देने में असफल है। इसका सीधा सा जवाब यही है कि भाजपा को मुँहतोड़ जवाब कभी भी कांग्रेस या अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ नहीं दे सकती हैं। जिन्हें यह लगता है कि इण्डिया गठबन्धन भाजपा का विकल्प है और चुनाव में हराकर वह भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवाद राजनीति को निर्णायक रूप में हरा देंगे, ऐसा सोचना भी ग़ालिब की भाषा में कहें तो ‘दिल को बहलाने के लिए ख़्याल अच्छा है’ जैसा है। यह भी पूँजीपति वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टियों का ही गठबन्धन है। यह सच है कि एक फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी व अन्य पूँजीवादी पार्टियों, उनके शासन व उनकी नीतियों में अन्तर होता है। लेकिन यह भी सच है कि आज फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा पूँजीवादी राज्यसत्ता का भीतर से टेकओवर कर चुके हैं और बुर्जुआ जनवाद का खोल बरक़रार रखने से पैदा होने वाले अन्तरविरोध के कारण अगर वे सरकार से बाहर भी चले जायें तो राजनीति और समाज पर उनकी पकड़ बनी रहती है और साथ ही देश के पूँजीपति वर्ग को संघ परिवार और भाजपा की मौजूदगी की ज़रूरत भी दीर्घकालिक मन्दी के दौर में बनी रहेगी। यही वजह है कि स्वयं पूँजीपति वर्ग कांग्रेस या किसी गठबन्धन सरकार को संघ परिवार या भाजपा के ख़िलाफ़ कोई ख़ास कार्रवाई करने या फ़ैसलाकुन क़दम उठाने की इजाज़त नहीं देगा और यही पूँजीपति वर्ग कांग्रेस समेत अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों का आधार है। यही तो कारण है कि बजरंग दल पर बैन लगाने का वायदा करने के बावजूद कर्नाटक में कांग्रेस सरकार सत्ता में आने के बाद अपने वायदे से मुकर गयी।
इसीलिए आज देश के मज़दूरों-मेहनतकशों को सिर्फ़ भाजपा को हराने के लिए किसी चुनावबाज़ पार्टी का पिछलग्गू नहीं बनना चाहिए। मज़दूरों को अपनी इन्क़लाबी पार्टी खड़ी करनी चाहिए। एक ऐसी स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पार्टी के साथ जुड़ना चाहिए जो आर्थिक व राजनीतिक रूप से मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर आधारित हो। आज मेहनकश जनता को अपनी मज़दूर पार्टी का विकल्प खड़ा करने की ज़रूरत है जो भाजपा का मुक़ाबला न सिर्फ़ चुनावों में करे बल्कि आपके गली-मोहल्लों, सड़कों पर भी इन फ़ासिस्टों को खदेड़े। चुनावों में भाजपा को हराना निश्चय ही एक तात्कालिक रणकौशलात्मक आवश्यकता है, लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि जनता की क्रान्तिकारी ताक़तों को अपने आपको गोलबन्द और संगठित करने का एक अवसर मिल सके। इसके लिए भी जहाँ मज़दूर पार्टी का उम्मीदवार हो, वहाँ जनता को उसे विजयी बनाना चाहिए।
आज मेहनतकश अवाम के सामने बेशक यह सवाल मौजूद है कि उनका विकल्प क्या हो। क्या वाक़ई में मज़दूरों की अपनी क्रान्तिकारी पार्टी मौज़ूद है जो मोदी सरकार की साम्प्रदायिक नीतियों का मुँहतोड़ जवाब दे और सच्चे अर्थों में मेहनतकश–मज़दूरों के नुमाइन्दगी करे? इस चुनाव में धनबल-बाहुबल का जो खेल चल रहा है उसके शोर-शराबे से बाहर निकलकर इत्मीनान से सोचें तो हम पायेंगे कि इस लोकसभा चुनाव में पाँच सीटों, उत्तर-पूर्वी दिल्ली, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली, अम्बेडकरनगर, पुणे और कुरुक्षेत्र में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के रूप में में मज़दूरों-मेहनतकश का स्वतन्त्र और क्रान्तिकारी पक्ष बिल्कुल मौज़ूद है। यह पार्टी सिर्फ़ चुनावों तक सीमित नहीं है। इसका मक़सद सिर्फ़ चुनाव जीतना नहीं बल्कि दूरगामी तौर पर एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष करना है जिसमें देश के सभी संसाधन पर मज़दूरों का राज हो। यानी कि एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण उसका अन्तिम लक्ष्य है। इन सीटों पर मेहनतकश जनता को एकजुट हो मज़दूर पार्टी को जिताने का प्रयास करना चाहिए और इसके ज़रिये भाजपा को शिकस्त देने का प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास एक बार में सफल हो या न हो, मज़दूर वर्ग की राजनीतिक स्वतन्त्रता को स्थापित करने में यह निश्चय ही योगदान करेगा। अन्य सभी सीटों पर भाजपा की हार को सुनिश्चित करना, आम मेहनतकश जनता का कार्यभार है।
मज़दूर बिगुल, मई 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन