देश में भयंकर गर्मी और पानी तथा बिजली के संकट का मुख्य कारण है
पूँजीवाद के हाथों हो रही पर्यावरण की तबाही
– सार्थक
पिछले दो महीनों से भारतीय उपमहाद्वीप विशेषतः उत्तरी भारत तथा पाकिस्तान के मैदानी इलाके भीषण गर्मी और लू की चपेट में हैं। कड़ी गर्मी और लू के कारण इस साल मई के मध्य तक भारत और पाकिस्तान में 90 से ज़्यादा लोगों की मौत चुकी है। यह महज़ सरकारी आँकड़ा है और यह तय है कि मौत के असली आँकड़ें इससे कहीं ज़्यादा होंगे। भयंकर गर्मी और लू के साथ-साथ पानी तथा बिजली के संकट ने जनता के रोज़मर्रा के जीवन को बेहाल बना दिया है। हर आपदा की तरह इस आपदा में भी मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता ही सबसे ज़्यादा तकलीफ़ झेल रही है। मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के पास न ही ‘वर्क फ्रॉम होम’ (घर में बैठ कर काम करने) का विकल्प है, न ही कार्यस्थल वातानुकूलित है और न ही बिजली कट जाने पर घर पर गर्मी से बचने के लिए कोई इनवर्टर है। देश का मज़दूर और मेहनतकश दिन भर ईंट की भट्टी के समान तापमान से झुलसते हुए अपनी हड्डियाँ गलाता है, थक-हार कर घर लौटता है तो दो बूँद पानी के लिए तरसता है और बिना फैन या कूलर तपती जमीन और जलती छत के नीचे उचाट नींद सोता है। जिस आबादी की हाड़तोड़ मेहनत के बल पर यह देश चलता है उसे इस व्यवस्था में एक अदद नींद भी नसीब नहीं है रोटी, कपड़ा, आवास, दवाई के लिए तो वह पहले ही जूझता चला आ रहा है।
यह समझने की ज़रूरत है कि गर्मी, पानी तथा बिजली के संकट के कारण जो शारीरिक-मानसिक पीड़ा हम झेल रहे हैं यह कोई आकस्मिक प्राकृतिक घटना नहीं है बल्कि इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था की ही उपज है। इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग न केवल मानव श्रम का शोषण करता है बल्कि प्राकृतिक सम्पदाओं का भी अन्धाधुन्ध दोहन करता है और पर्यावरणीय विनाश को जन्म देता है। भयंकर गर्मी, लू, और पानी व बिजली के संकट पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा पर्यावरण के भयंकर विनाश के ही परिणाम हैं।
वैज्ञानिक शोध के अनुसार औद्योगिक क्रान्ति के बाद पृथ्वी के औसत तापमान में करीब 1.2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। तापमान में इस वृद्धि का लगभग आधा हिस्सा पिछले पाँच दशक में ही हुआ है। यह तेज़ी से भूमण्डलीय ऊष्मीकरण (‘ग्लोबल वार्मिंग’) की बढ़ती दर का प्रमाण है। मार्च 2022 का औसत तापमान 1980 से 2010 के बीच के औसत तापमान से 1.6 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा रहा। 1880 में पृथ्वी के औसत तापमान का सटीक रिकॉर्ड रखने की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक के सात सबसे गर्म वर्ष 2015 के बाद के ही रहे हैं। 2022 के मार्च और अप्रैल पिछले 122 सालों में सबसे गर्म मार्च और अप्रैल रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के बढ़ने के साथ लू का असर भी बढ़ता जा रहा है। 1981 से 1990 के बीच 413 दिनों तक, 2001 से 2010 के बीच 575 दिनों तक और 2011 से 2020 के बीच 600 दिनों तक लू की स्थिती बनी रही। विश्व मौसम संगठन के अनुसार 1992 से 2000 के बीच भारत में लू के कारण 25,692 लोगों की मौत हो चुकी है। एक वैज्ञानिक आंकलन के अनुसार अगर साल 2100 तक औसत भूमण्डलीय तापमान 2 डिग्री बढ़ा तो लू की तीव्रता और नियमितता तीस गुना बढ़ जायेगी। भविष्य के इस भयंकर मंज़र की कल्पना भर से ही रूह काँप उठती है चारो तरफ़ तपती लू और धूल का बवण्डर वैसे ही जैसे कई विज्ञान की गल्पकथाओं पर आधारित सिनेमा में दिखाया जाता है।
भूमण्डलीय ऊष्मीकरण का मुख्य कारण है कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसे ‘ग्रीन हाउस गैस’ का उत्सर्जन जो पृथ्वी की ऊष्मा को वायुमण्डल में ही कैद कर लेते हैं। इससे पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जाता है। सभी ‘ग्रीनहाउस गैसों’ में सबसे अधिक अनुपात में कार्बन डाइऑक्साइड है जो साधारणतः जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल, डीज़ल आदि) के उपभोग से पैदा होता है। परिवहन, बिजली उत्पादन और विभिन्न प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के लिए इस पूँजीवादी व्यवस्था ने जीवाश्म ईंधन की अन्धाधुन्ध खपत की है। कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन पिछले 25 सालों में 40 प्रतिशत बढ़ा है। यह भी गौरतलब है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देश है। हमारे देश में सालाना करीब 250 करोड़ मैट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा का एक और अहम कारक है दुनिया भर में तेज़ी से हो रहा जंगलों का सफाया (‘डिफोरेस्टेशन’)। अगर भारत की ही बात की जाए तो हमारे देश के वन क्षेत्रफल में पिछले दस सालों में 3.62 प्रतिशत तथा पिछले बीस सालों में 5.3 प्रतिशत कम हुए हैं। वन क्षेत्रफल में पिछले बीस सालों में यह भारी कमी 100 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के समान है। दो साल के पहले ब्राज़ील के जलते हुए अमेज़न जंगल की तस्वीरें आज भी ज़हन में ताज़ा है। पिछले चालीस सालों में अमेज़न वर्षा वन के दस लाख वर्ग किमी क्षेत्र को साफ़ किया जा चुका है। ब्राज़ील में मज़दूर-विरोधी दक्षिणपंथी बोल्सोनारो के सत्ता में आने के बाद से अमेज़न वर्षा वन काटने की गति ने फिर से तेज़ी पकड़ ली। वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस वर्षा वन को साफ़ कर ब्राज़ील के धुर दक्षिणपंथी शासक वहाँ बड़े कॉर्पोरेटों के द्वारा खुदाई, पशु पालन, कृषि और औद्योगिक प्रकल्पों के लिए रास्ता साफ़ कर रहा है। भूमण्डलीय ऊष्मीकरण भूमण्डलीय वायु और महासागरीय जलधाराओं (‘ओशन करेण्ट’) के सामान्य प्रवाह को बदलती है जिसके कारण लू, सूखा, बाढ़, तूफ़ान आदि ज़्यादा नियमित और तीव्र होने लगे हैं। साधारणतः उत्तर भारत में मार्च और अप्रैल के महीनों में पश्चिमी विक्षोभ (‘वेस्टर्न डिस्टर्बेंस’) के कारण बारिश हो जाती है। लेकिन इस साल भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के कारण पश्चिमी विक्षोभ काफ़ी कमज़ोर रहा जिसके वजह से उत्तर भारत में इन दो महीनों में मुश्किल ही बारिश हुई है। बारिश के अभाव ने लू की परिस्थिति को ज़्यादा भयंकर बना दिया।
इसके अलावा, भारत में पूँजीवादी विकास के साथ शहरों का तेज़ी से विस्तार हुआ है। लेकिन ज़्यादातर शहरों के मामले में यह प्रक्रिया बेहद अनियोजित तरीके से हुई है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे शहरों का ढाँचा कुछ इस प्रकार बना जिससे ज़्यादातर ऊष्मा शहरों के अन्दर ही रह जाए। वैज्ञानिक इन ख़ास शहरी इलाकों को ‘ताप द्वीप’ (‘हीट आइलैंड’) की संज्ञा देते हैं। इन ताप द्वीपों का औसत तापमान अपने आसपास के इलाकों के मुकाबले कहीं ज़्यादा होता है। अनियोजित शहरी विकास और ताप द्वीपों के बनाने की प्रक्रिया पूँजीवाद की अराजक प्रकृति की ही एक अभिव्यक्ति है।
भीषण गर्मी के अलावा भूमण्डलीय ऊष्मीकरण पहले से मौजूद भयंकर खाद्य संकट को और भी विकराल रूप प्रदान करता है। हाल ही में भारत सरकार के द्वारा गेंहू के निर्यात पर लगाये गए प्रतिबन्ध का एक तात्कालिक कारण यही था। इस साल भीषण गर्मी और लू के कारण गेंहू के फसल में भी भारी गिरावट दर्ज़ हुई है। लेकिन यहाँ हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि खाद्य संकट का मुख्य कारण भूमण्डलीय ऊष्मीकरण या मौसम में अप्रत्याशित बदलाव नहीं बल्कि मुनाफ़े के हवस पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था का अराजकतावादी-अनियोजित चरित्र जो मुनाफ़े के लिए लाखो-लाख टन अनाज़ समुद्र में बहा देता है, उसकी जमाखोरी करता है और उसे सड़ा देता है। पूँजीवादी व्यवस्था की नीतियाँ जनता की ज़रूरतों को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि पूँजीपतियों के मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर बनायी जाती है। इसलिए जब फ़सल सामान्य से बेहतर भी होते हैं तब भी अनाज गोदामों में सड़ते हैं और जनता भूखी मरती है।
भूमण्डलीय ऊष्मीकरण जल चक्र पैटर्न को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है जिसके कारण अन्ततः साफ़ पानी की उपलब्धता का विकट संकट पैदा होता है। इसके अलावा कृषि और उद्योगों से प्रदूषित पानी सीधे मुख्य जल स्रोतों में निष्कासित किया जाता है जिसके कारण जल प्रदूषण भी पिछले कुछ दशकों से अभूतपूर्व तेज़ी से बढ़ रहा है। पूरी दुनिया में आज भी 220 करोड़ लोग साफ़ पानी से वंचित हैं। हर दिन 700 बच्चे साफ़ पीने के पानी नहीं होने की स्थिति में बीमारियों से मरते हैं। नीति आयोग के रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 करोड़ से ज़्यादा लोग गम्भीर जल संकट से जूझ रहे हैं तथा हर साल साफ़ पानी के अभाव से दो लाख लोगों की मौत होती है। मरने वाले ये लोग मज़दूर मेहनतकश वर्ग से ही आते हैं। क्योंकि पैसे वाले तो पानी साफ करने और हवा साफ करने की मशीनें लगा कर सुकूनतलब जिन्दगी जीते हैं। जल गुणवत्ता सूचकांक के अनुसार 122 देशों की सूची में भारत 120 स्थान पर है। देश का 70 प्रतिशत से ज़्यादा पानी दूषित है। नीति आयोग के अनुसार 2030 तक देश में साफ़ पानी की माँग इसके आपूर्ति के मुकाबले दो गुना हो जायेगा जिससे देश में जल संकट और भी ज़्यादा विकट हो जाएगा। यमुना के सूखने के कारण दिल्ली में अब पानी का संकट तीव्र हो गया है। दिल्ली में मई के महीने में औसतन 20 करोड़ लीटर पानी की कमी रही जिसके कारण तीन लाख परिवार प्रभावित हुए।
भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के कारण एक ओर जहाँ देश पानी के संकट से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर देश में बाढ़ की समस्या भी ज़्यादा नियमित और ज़्यादा विनाशकारी होती जा रही है। तेज़ गति से वनों को काटते जाने की वजह से एक ओर सूखा पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर बाढ़ आने की परिघटना भी बढ़ रही है। वनों के काटे जाने के कारण पानी की सतह के नीचे तक रिसाव कम हो जाते हैं। इससे भूमिगत जल स्तर में भारी गिरावट आती है और नदी, नाले, कुएँ आदि ज़ल्दी सूखने लगते हैं। दूसरी ओर पेड़ों के कटने के कारण सतही जल प्रवाह की गति बढ़ जाती है जिससे बाढ़ के आसार भी बढ़ जाते है। 2018 और 2019 में केरल में आए बाढ़ इसी प्रक्रिया की एक मिशाल है। पिछले तीन दशकों से पश्चिम घाट के घने जंगलों को साफ़ करके वहाँ खुदाई और औद्योगिक प्रोजेक्ट का तेज़ी से विस्तार किया जा रहा था। यही चीज़ हम असम में भी देख सकते हैं। असम देश के उन राज्यों में से है जहाँ पिछले कुछ दशकों में सबसे ज़्यादा वनोन्मूलन हुआ है। नतीज़तन पिछले एक दशक से असम की जनता को लगभग हर साल विनाशकारी बाढ़ झेलना पड़ रहा है।
भीषण गर्मी और पानी के संकट के साथ बिजली के संकट ने भी देश के मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी को दूभर बनाने में कोई कमी-कसर नहीं छोड़ी है। दो-ढाई महीनों से देश भर के विभिन्न राज्यों में दो से दस घण्टे बिजली कटौती एक आम बात हो गई है। अप्रैल में बिजली की आपूर्ति में 1.6 प्रतिशत गिरावट आई जो पिछले छह सालों में सबसे बड़ी कमी है। सरकार के अनुसार बिजली संकट के मुख्य कारण हैं इस साल की भीषण गर्मी और लगातार लू की स्थिती का बना रहना। इसे कोयले की कमी और कायले की आपूर्ति में प्रबंधन और व्यवस्था सम्बन्धी कठिनाइयों ने बढ़ा दिया है। लेकिन यहाँ हमें यह समझने की ज़रूरत है कि बिजली का यह संकट कोई आकस्मिक परिघटना नहीं और न ही इसके मूल कारण बढ़ती गर्मी या कोयले की आपूर्ति में लॉजिस्टिकल कठिनाई है। कोयले और अन्य जीवाश्म ईंधन की अतिसीमित उपलब्धता और इनके इस्तेमाल से हो रहे पर्यावरण विनाश ऐसे तथ्य हैं जो हमें मात्र स्कूल में पढ़ाया जाता है लेकिन कभी इसे दूर करने की कोई ठोस योजना नहीं बनाई जाती है। इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में बड़े-बड़े तेल, गैस और कोयले की कम्पनियों का मुनाफ़ा सुनिश्चित करने के लिए इनका इस्तेमाल बदस्तूर जारी रखा जाएगा। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) स्रोतों का आज भी बेहद कम इस्तेमाल होता है। भारत की तीन-चौथाई ऊर्जा कोयले से आती है। हालाँकि विकसित पूँजीवादी देश पेरिस सन्धि के आधार पर पिछड़े देशों पर कोयले का इस्तेमाल कम करने पर ज़ोर डाल रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि न ही विकसित पूँजीवादी देश न ही पिछड़े पूँजीवादी देशों के हुक्मरानों ने कभी भी अक्षय ऊर्जा के उपयोग को व्यवहारिक बनाने का प्रयास किया। अगर ऐसा होता भी है तो पेट्रोल, कोयला आदि से पैसा पीटने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मुनाफ़े का क्या होगा?
यह जो भीषण गर्मी और पानी तथा बिजली की संकट से हम जूझ रहे हैं इसका समाधान सीधे इस व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन से जाकर जुड़ता है। 2015 की पेरिस सन्धि की असफलता और 2021 के सी.ओ.पी 26 वार्ता की नौटंकी से यह साफ़ है की इस पूँजीवादी व्यवस्था के तहत पर्यावरण विनाश को नहीं रोका जा सकता। पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने मुनाफ़े की हवस में प्रकृति को इस हद तक तबाह कर दिया है कि वह भविष्य में मनुष्य जाति के अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल रहा है। इस समस्या का समाधान पूँजीवाद के विनाश और समाजवाद की स्थापना से ही हो सकता है। एक समाजवादी व्यवस्था ही पर्यावरण विनाश को रोक सकती है क्योंकि यह व्यवस्था लोगों की ज़रूरतों को केन्द्र में रख कर काम करती। मनुष्य खुद प्रकृति का अंग होता है। सभी प्रजातियों के समान मनुष्य भी प्रकृति के साथ एक अन्तर्क्रिया करता है और उस प्रक्रिया में प्रकृति में भी परिवर्तन आता है और मनुष्य में भी। अन्य जानवरों से मनुष्य इस मायने में अलग है कि वह सचेतन तौर पर उत्पादन करता है और प्रकृति से उसकी अन्तर्क्रिया इस बुनियादी अर्थ में अलग है। यह अन्तर्क्रिया प्रकृति का विनाश एक ख़ास व्यवस्था यानी मानव समाज के एक ख़ास दौर में ही करती है: शोषणकारी वर्ग समाज के दौर में और ख़ास तौर पर पूँजीवादी वर्ग समाज के दौर में। यह पूँजीवादी वर्ग समाज के सामाजिक सम्बन्ध हैं जो प्रकृति और पर्यावरण के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। एक शोषणरहित वर्गविहीन समाज में मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसी अन्तर्क्रिया नहीं होगी जो प्रकृति और मनुष्य समाज दोनों में ही परस्पर पतन की जिम्मेदार बने। वह अन्तर्क्रिया मानव समाज को भी समृद्ध करेगी और प्रकृति और पर्यावरण को भी संरक्षित करेगी, समृद्ध बनायेगी। इसलिए अगर हम अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए इस पृथ्वी को रहने योग्य बनाना चाहते हैं तो हमें पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा।
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