आनन्द तेलतुम्बड़े पर फ़र्ज़ी आरोप, तेज़ी से सिकुड़ते बुर्जुआ जनवाद की एक और बानगी

पराग वर्मा

21वीं सदी में भारत जैसे देशों में फ़ासीवाद का जो रूप देखने में आ रहा है, वह बीसवीं सदी के यूरोप के फ़ासीवाद से इस मायने में भिन्न है कि आज फ़ासीवादी बुर्जुआ जनवाद के आवरण को औपचारिक तौर पर हटा नहीं रहे हैं। लेकिन वे बुर्जुआ जनवाद के दायरे को इतना संकुचित कर दे रहे हैं कि जनवाद का भ्रम बरक़रार रखते हुए वस्तुत: एक नग्न तानाशाही जैसी स्थिति पैदा हो गयी है। संघ परिवार और उसकी सरकार के एजेण्डे को बेशर्मी से लागू करते हुए गोदी मीडिया के ज़रिये मोदी सरकार समय-समय पर “शहरी नक्सल” का मुद्दा ज़ोर-शोर से उछालती रही है और सरकार से सवाल पूछने वालों को देशद्रोही क़रार देने की क़वायद चालू है। जनवरी 2018 में भीमा-कोरेगाँव मामले में हुई हिंसा के बाद शहरी नक्सल का हौवा खड़ा कर कई जनपक्षधर मानवतावादी बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं और अकादमिशियनों को मनगढ़ंत मामलों में गिरफ़्तार किया जा चुका है। इसी सिलसिले में इस साल की शुरुआत से ही सुरक्षा एजेंसियाँ आनन्द तेलतुम्बड़े के पीछे पड़ी हुई हैं। दूसरी ओर दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने की शुरुआत करने वाला मुख्य आरोपी सम्भाजी भिड़े नामक भगवाधारी सरकार के आशीर्वाद से खुला घूम रहा है।

आनन्द तेलतुम्बड़े एक अम्बेडकरवादी चिन्तक और लेखक हैं। उनके कई लेख और किताबें प्रसिद्ध हुई हैं, जिनमें वो ख़ासकर जातिवाद के ख़िलाफ़ मुखरता से अपना पक्ष लिखते रहे हैं। उन्होंने “जाति का प्रजातन्त्र”, “महार : द मेकिंग ऑफ़ द फ़र्स्ट दलित रिवोल्ट” जैसी आज की बेहद प्रासंगिक किताबें लिखी हैं। उनके विचारों से हमारी तमाम असहमतियाँ हो सकती हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि वर्तमान फ़ासिस्ट निज़ाम के ख़िलाफ़ वे शुरू से ही लिखते और बोलते रहे हैं। ऐसे में, स्वाभाविक ही वे सरकार की आँखों में चुभते रहे हैं, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकार उन्हें निशाना बना रही है।

1818 में पुणे के पास भीमा-कोरेगाँव नामक जगह पर अंग्रेज़ों और मराठाें के बीच हुए युद्ध की 200वीं सालगिरह पर 1 जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगाँव में हज़ारों की तादाद में दलित आबादी इकट्ठा हुई थी। इस युद्ध में अंग्रेज़ों की सेना में दलित थे जिन्होंने पेशवाओं को मात दी थी। अस्मितावादी राजनीति इसे जातिवाद पर चोट करने के प्रतीक के तौर पर लेती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसे किसी विश्लेषण से हम इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते, क्योंकि यह शासक वर्गों की आपस की लड़ाई थी, जिसमें दलित और पेशवा लड़ाके उनके लिए महज़ प्यादे थे। अंग्रेज़ों के राज में असल में जातिवाद और पुख़्ता ही हुआ था, कमज़ोर नहीं। जिस दिन भीमा-कोरेगाँव में यह समारोह मनाया जा रहा था, उसके बहुत पहले से ही हिन्दुत्ववादियों द्वारा मराठाें को दलितों के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा था और इस समारोह को राष्ट्रविरोधी क़रार दिया जा रहा था। भयंकर बेरोज़गारी से जूझती हुई मराठा आबादी पहले से ही प्रतिक्रियावादी ताक़तों के प्रभाव में आकर दलितों के आरक्षण को अपनी दुर्दशा की वजह मानती रही है। ऐसे माहौल में पुणे में 31 दिसम्बर 2017 को एल्गार परिषद् की एक बैठक हुई जिसमें कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया और अगले दिन के समारोह में लोगों से हिस्सा लेने का आह्वान किया। लेकिन अगले दिन समारोह के दौरान मराठों ने दलितों पर हमला कर दिया, जिसमें एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। सरकार इसे दो पक्षों के बीच हिंसा का मामला बनाते हुए एल्गार परिषद् में शामिल हुए लोगों में से पाँच लोगों को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ़्तार कर लेती है।

उस समय भीमा-कोरेगाँव की घटना के बारे आनन्द तेलतुम्बड़े ने एक लेख भी लिखा था जिसमें उन्होंने दलितों के द्वारा इतिहास की इस लड़ाई के महिमामण्डन को ग़ैर-ज़रूरी बताया और यह लिखा कि उस लड़ाई के जश्न की अभी इस दौर में कोई अहमियत नहीं है, बल्कि ये समारोह लोगों को और बाँटेगा और दक्षिणपन्थी ताक़तों को इसका फ़ायदा उठाने का मौक़ा देगा। चूँकि आनन्द तेलतुम्बड़े इस समारोह के ख़िलाफ़ थे, इसलिए एल्गार परिषद् की मीटिंग के दिन वो पुणे में मौजूद होते हुए भी उसमें शामिल नहीं हुए। इसका मतलब यह हुआ कि न तो आनन्द तेलतुम्बड़े उन बुद्धिजीवियों के साथ थे जिन्होंने इस समारोह से सम्बन्धित सम्मलेन किया और न ही वो इस समारोह के पक्ष में थे जैसा कि उन्होंने अपने लेख में भी लिखा था। इन सबके बावजूद फ़ासिस्ट सरकार को कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही था उनको और उनके जैसे अन्य मानवाधिकार के लिए लड़ती आवाज़ों को चुप कराने का। इसलिए इस घटना में प्राथमिक गिरफ़्तारियों के कुछ छ: महीने बाद सरकार ने किसी लैपटॉप से निकली कुछ चिट्ठियों का हवाला दिया और बिकाऊ मीडिया द्वारा प्रचारित किया कि माओवादियों द्वारा प्रधानमन्त्री मोदी को मारने की साज़िश रची जा रही है और यही लोग भीमा-कोरेगाँव की हिंसा से भी जुड़े हुए हैं। फिर सरकार ने कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बिना किसी जाँच के और बिना किसी वारण्ट के जेल में डाल दिया जिसमें गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज और वरवर राव जैसे नाम शामिल थे। किसी ठोस सबूत के बिना इन लोगों पर यूएपीए के तहत ग़ैर-ज़मानती धाराएँ लगायी गयीं।

इन गिरफ़्तारियों के दौर में मीडिया द्वारा सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आन्तरिक सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी चुनौती बताया गया और अर्बन नक्सल नाम से सभी को लेबल कर दिया गया। पुलिस ने बाक़ी लोगों की तरह आनन्द तेलतुम्बड़े पर भी माओवादियों का समर्थन करने, भीमा-कोरेगाँव हिंसा भड़काने और प्रधानमन्त्री मोदी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के हास्यास्पद आरोप गढ़े हैं। एक तरफ़ एकबोटे और भिड़े जैसे लोग जो खुल के जनता को भड़काने की साज़िश में शामिल थे, वो खुलेआम घूम रहे हैं क्योंकि वो संघ के क़रीब हैं और दूसरी तरफ़ उस घटना से दूर-दूर तक कोई नाता ना रखने वाले आनन्द तेलतुम्बड़े को सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ लिखने और बोलने की सज़ा में बनावटी आरोप गढ़ के गिरफ़्तार करने की कोशिश जारी है।

देखा जाये तो अतीत में कांग्रेस की सरकारें भी सत्ता-विरोधी आवाज़ों का दमन करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति पर अमल करती रही हैं। मोदी सरकार बस उसे और ज़्यादा खुले तौर पर और तेज़ी से कर रही है। किसी भी पूँजीवादी राज्यसत्ता के लिए पूँजीवादी लूट के रास्ते में जो भी रुकावट बनते हैं, वो सरकार के लिए एक चुनौती बन जाते हैं। पर पूँजीवादी संकट जब ज़्यादा गहरा नहीं होता तो कुछ हद तक ऐसे लोगों के लिए एक जगह दे दी जाती है, जिससे एक भ्रम बना रहता है कि समाज में शोषितों की भी कुछ सुनवाई तो होती ही है। पर जब पूँजीवाद वित्तीय पूँजी के उस दौर में प्रवेश कर चुका होता है जहाँ पूँजीवादी संकट एक विकराल रूप में सामने है और इसको सुधार पाना बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के बस के बाहर दिखायी पड़ रहा है, ऐसे समय में पूँजीवादी व्यवस्था को एक ऐसी सरकार चाहिए होती है जो जनता को किसी काल्पनिक शत्रु के माध्यम से भड़काये रखे और पूँजीवादी मुनाफ़े की लूट को बेरोकटोक आगे बढ़ाये। मोदी की फ़ासिस्ट सरकार लोगों को कभी हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई में उलझाती है तो कभी भारत-पाकिस्तान की लड़ाई में। जब जनता उसमें उलझी है तब मोदी सरकार ऐसे क़ानून और नीतियाँ ला रही है, जिससे पूँजीपतियों द्वारा मज़दूरों के श्रम की लूट और तेज़ी से हो और प्राकृतिक सम्पदा की लूट भी बेरोकटोक चले। इस खुली स्वछन्द पूँजीवादी लूट को आगे बढ़ाने के लिए मोदी सरकार के लिए ज़रूरी है कि इसके ख़िलाफ़ बोलने वाली हर आवाज़ को दबा दिया जाये। मोदी सरकार के दौर में बेरोज़गारी में ख़ूब बढ़ोत्तरी हुई है और रोज़गार बढ़ने की जगह हर साल घटे ही हैं, नोटबन्दी और जीएसटी के कारण कई छोटे व्यापारी भी सड़क पर आ गये हैं, मज़दूरों के शोषण में कई गुना इज़ाफ़ा हुआ है, राफे़ल विमान और व्यापम जैसे बड़े घोटाले हुए हैं, कई उद्योगपति बैंकों को लाखों-करोड़ों का चूना लगाकर अय्याशियाँ कर रहे हैं और आदिवासियों को उनकी जल-जंगल-ज़मीन से बेदख़ल किया जा रहा है। ये सब कुछ पूँजीवादी ‘विकास’ का हिस्सा है और पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस के लिए ज़रूरी भी। इन सभी बिगड़ते भौतिक कारणों की भी समाज में चर्चाएँ होने लगी थी और मोदी सरकार की और मोदी की एक नेता के तौर पर इमेज फीकी पड़ रही थी और फ़ासिस्टों का जनाधार खिसकता दिखायी पड़ रहा था। इसलिए हिन्दुत्ववादियों ने कभी राम-मन्दिर का मुद्दा उठाकर हिन्दुओं को भड़काया, तो कभी मोदी ने ग़लत इतिहास बताकर लोगों को उकसाने की कोशिश की। और इतना काफ़ी नहीं हो रहा था, तो तथाकथित शहरी नक्सल का मुद्दा भी उछाल दिया गया। सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ बोलने वाले लोगों को शहरी नक्सल कहा जा रहा है और उन्हें देशद्रोही क़रार दिया जा रहा है। जो भी जनपक्षधर बात बोले या लिखे और सरकार की आलोचना करे वो देशद्रोही हो गया। सरकार की इसी कोशिश का हिस्सा है आनन्द के ख़िलाफ़ बेबुनियाद आरोप गढ़ना। ऐसा करने के पीछे सरकार की मंशा अन्य बुद्धिजीवियों के दिमाग़़ में ख़ौफ़ फैलाना है।

इन हालातों में हर प्रगतिशील व्यक्ति के लिए यह ज़रूरी है कि वो आम अवाम के अधिकारों के लिए खड़ी होने वाली सभी आवाज़ों के पक्ष में बोले और लगातार सिकुड़ती जा रही जनवादी जगह को बचाने की लड़ाई में शरीक हो। प्रगतिशील लोगों की ये ठोस माँग होनी चाहिए कि यूएपीए जैसे काले क़ानूनों को ख़त्म किया जाये। ऐसे अधिनियमों का इस्तेमाल कर सरकार आनन्द तेलतुम्बड़े जैसे जनपक्षधर लोगों के साथ गुण्डे-बदमाशों जैसा सलूक करती है। आज ज़रूरत है कि हर प्रगतिशील व्यक्ति ऐसे अत्याचार के ख़िलाफ़ पुरज़ोर आवाज़ उठाये और लोगों के बीच यह बात ले जाये कि आम लोगों के अधिकारों के लिए खड़े होने वाले ही असली देशप्रेमी हैं और फ़ासिस्टों द्वारा पूँजीपतियों की चाकरी करना और लोगों के हक़ों पर डाका डालना ही असल देशद्रोह है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments