सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी क़ानून में ”बदलाव” – जनहितों में बने 
क़ानूनों को कमज़ोर या ख़त्म करने का गुजरात मॉडल

सत्यनारायण (अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच, महाराष्ट्र)

न्यारपालिका जब किसी अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय सुनाती है तो उसके राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारण समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है। बीती 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी एक्ट पर भी एक ऐसा ही फ़ैसला सुनाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने एक केस की सुनवाई के दौरान कहा कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग होता है और ऐसे में भविष्य में एफ़आईआर तभी दर्ज की जा सकेगी, जब उसकी प्रारम्भिक जाँच वरिष्ठ/ पुलिस अधिकारी कर लेगा। साथ ही कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के बाद अब एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी गयी है और साथ ही अग्रिम जमानत पर रोक भी हटा दी गयी है। देशभर में दलित विरोधी जातिगत नफ़रत व हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है व इस फ़ैसले के कुछ ही दिन बाद 29 मार्च के दिन गुजरात में एक दलित की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गयी कि वो घोड़ा रखता था। एससी/एसटी एक्ट के बावजूद भी देश में हर घण्टे दलितों के खि़लाफ़ 5 से ज़्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है; अगर दलित महिलाओं की बात की जाये तो उनकी स्थिति तो और भी भयानक है। प्रतिदिन औसतन 6 स्त्रियाँ बलात्कार का शिकार होती हैं। पिछले दस सालों 2007-2017 में दलित विरोधी अपराधों में 66 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है, 2016 में 48,000 से ज़्यादा मामले दर्ज हुए हैं।

आप ख़ुद ही देखिये, क़ानूनों का कितना ”दुरुपयोग” होता है

 

यहाँ दी गयी तालिका से भी यह स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हुए बर्बर से बर्बर हत्याकाण्डों में भी सज़ाएँ बिल्कुल नहीं हुईं। साथ ही राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार एससीएसटी एक्ट में चार्जशीट 78 प्रतिशत केस में फ़ाइल हुई है। इससे भी पता चलता है कि अपराध हुआ है पर अन्त में अपराध सिद्धि तक बहुत ही कम केस पहुँच पाते हैं। ये चन्द आँकड़े साफ़ बता रहे हैं कि 70 साल की आज़ादी के बाद भी ग़रीब दलित आबादी हक़-अधिकारों से वंचित है। बर्बर दलित उत्पीड़न की घटनाओं और उसके बाद कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति ये दिखाती है कि सरकार, पुलिस-प्रशासन से लेकर कोर्ट तक में जातिगत मानसिकता से ग्रस्त लोग भरे पड़े हैं। यही कारण है कि दलितों पर हमले करने वाले ज़्यादातर अपराधी बच निकलते हैं। देशभर में एससी/एसटी क़ानून के तहत वैसे भी वर्तमान में दलित उत्पीड़न के मामले की एफ़आईआर दर्ज कराना सबसे मुश्किल काम होता है। साथ ही पुलिस प्रशासन का रवैया मामले में सज़ाओं का प्रतिशत काफ़ी कम कर देता है। दूसरा इस क़ानून में ग़लत केस दर्ज कराने पर पीड़ित के विरुद्ध आईपीसी की धारा 182 के अन्तर्गत केस दर्ज करके दण्डित करने का प्रावधान पहले से ही है। इसी प्रकार अग्रिम जमानत मिलने तथा उच्च अधिकारियों की अनुमति से ही गिरफ़्तारी करने का आदेश इस एक्ट के डर को बिल्कुल ख़त्म कर देगा। पहले ही इस एक्ट के अन्तर्गत सज़ा मिलने की दर बहुत कम है। इस प्रकार कुल मिला कर एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने के इरादे से सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये दिशा-निर्देश दलितों की रक्षा की बजाय आरोपी के हित में ही खड़े दिखायी देते हैं जिससे दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही होगी।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का बहुत ढोल पीटा जाता है पर हालिया कुछ निर्णयों से ये स्पष्ट हो रहा है कि आरएसएस की मोदी सरकार अपने जजों को नियुक्ति देकर तमाम निर्णय पारित करवा रही है। हाल ही में जज लोया केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने जो भूमिका अपनायी है, वो इस बात की पुष्टि करती है। एससी/एसटी एक्ट में बदलाव का जब ये फ़ैसला सुनाया गया था तो उससे पहले कई महीनों तक लगातार देशभर में बेरोज़गार युवकों के प्रदर्शन चल रहे थे। इस एक फ़ैसले ने ना सिर्फ़ उस मुद्दे को दबा दिया बल्कि नौजवानों-मेहनतकशों के बीच जातिगत दीवार भी बड़ी कर दी। फ़ैसले के बाद लोग आरक्षण ख़त्म करने जैसी माँगों को लेकर आगे आने लगे। पूरे समाज में दलित व ग़ैर-दलित के बीच की खाई पहले से और बड़ी हो गयी। 2 अप्रैल को देशभर में इस क़ानून में बदलाव के खि़लाफ़ जब प्रदर्शन हुए तो तमाम उच्च जातीय लोगों ने दलितों पर हमले किये। मध्यप्रदेश के ग्वालियर में तो बाक़ायदा पिस्तौल लेकर दलितों को गोलियाँ मारता व्यक्ति सामने आया। इस फ़ैसले से जो खेल मोदी सरकार खेलना चाहती थी वो पूरा होता नज़र आ रहा है।

गुजरात मॉडल

देशभर में गुजरात मॉडल की बहुत बात होती है, पर असल में ये मॉडल क्या है? ये मॉडल है मज़दूरों-मेहनतकशों की लूट की खुली छूट और दलितों के दमन की भी खुली छूट। इसका एक प्रमाण ये है कि देशभर में जहाँ एससी/एसटी एक्ट में अपराध सिद्ध होने की दर 28.4 प्रतिशत है, वहीं गुजरात में इसकी छह गुना कम 3.4 प्रतिशत है। गुजरात में मज़दूरों की हड़तालें बहुत कम होती हैं क्योंकि वहाँ बर्बरतम दमन किया जाता है। इसी मॉडल को आज देशभर में मोदी सरकार लागू कर रही है। सिर्फ़ इस क़ानून को ही नहीं बल्कि देश-भर में आजकल जनता के अलग-अलग हिस्सों के संरक्षण के लिए बने विभिन्न क़ानूनों को कमज़ोर करने का समय चल रहा है। कुछ क़ानून सीधे संसद में बदले जा रहे हैं तो किसी में कोर्ट द्वारा संज्ञान लेकर परिवर्तन किये जा रहे हैं। मोदी सरकार विभिन्न श्रम क़ानूनों को ”व्यापार करने की आसानी” के नाम पर बदलने की योजना लम्बे समय से बना रही है और इसका ड्राफ्ट तैयार है। ज़ाहिर है कि व्या‍पार आसान तभी होता है जब मज़दूरों का शोषण बढ़ता है। ऐसा ही एससी/एसटी क़ानून के मामले में हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला साफ़ तौर पर दर्शाता है कि मोदी सरकार द्वारा आँकड़ों की अनदेखी करते हुए कमज़ोर दलीलें रखी गयी हैं। असल में भाजपा और आरएसएस इस क़ानून को निष्प्रभावी बनाना चाहती है। ऐसे में सभी ग़रीब मेहनतकश आबादी और इंसाफ़पसन्द लोगों को इस क़ानून में परिवर्तन के विरुद्ध एकजुट होकर दलितों पर बढ़ते अत्याचारों के खि़लाफ़ संघर्ष करने की ज़रूरत है क्योंकि ये एक-एक कर कभी दलित, कभी मज़दूर, तो कभी महिलाओं के हक़ों के संरक्षण के लिए बने क़ानूनों को निष्प्रभावी बनाते रहेंगे।

देश में क़ानून दो तरह के होते हैं। एक वो क़ानून जो जनता के एक हिस्से या सारे हिस्से के हक़-अधिकारों से सम्बन्धित होते हैं (जैसे महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के लिए बने क़ानून, मज़दूरों के हक़ों-अधिकारों से सम्बन्धित क़ानून, दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए बने क़ानून आदि) और दूसरे क़ानून वो होते हैं जो जनता का दमन-उत्पीड़न करने के लिए सरकार व प्रशासन को ताक़त देते हैं (जैसे पुलिस को एनकाउण्टर की ताक़त देना, फ़ौज को कुछ इलाक़ों में विशेषाधिकार यानी एनकाउण्टर व गिरफ़्तार करने की इजाज़त देना)। हमारे देश की सरकार चाहे वह कांग्रेस की रही हो या अभी भाजपा वाली सरकार हो, वो स्पष्ट तौर पर पूँजीपतियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है। उनके हितों के लिए वो जहाँ मज़दूरों के अधिकारों को लगातार कम कर रही है, वहीं सरकार के दमन के अधिकारों को बढ़ा रही है। फ़र्ज़ी मामलों में मारूति के मज़दूरों को चार साल तक जेल में रखना, देश की जेलों में दसियों साल तक मुस्लिम नौजवानों को रखना और बाद में निर्दोष कहकर छोड़ देना, फ़र्ज़ी एनकाउण्टर में लोगों को मार देना – ये उसी के उदाहरण हैं। अभी आधार कार्ड को अनिवार्य बनाकर भी सरकार और प्रशासन अपने दमन के दायरे को बढ़ाने की योजना बना रहा है। लेकिन सरकार और प्रशासन ये भी जानते हैं कि अगर लोगों के अधिकारों को एक साथ छीना तो बग़ावत हो जायेगी, इसलिए वो धीरे-धीरे छीनते हैं और साथ ही छीनते समय भी जनता के बीच जातिगत और धार्मिक झगड़े लगा देते हैं। जैसा कि अभी एससी/एसटी क़ानून के मामले में हो रहा है। जनता को दलित और ग़ैर-दलित के बीच बाँटा जा रहा है। आज वो अगर जनता के एक हिस्सेे के लिए आये हैं तो कल हमारे लिए भी ज़रूर आयेंगे। भारत की पूँजीवादी राज्यसत्ता (सरकार और पुलिस-प्रशासन) स्पष्ट तौर पर ग़रीब विरोधी, दलित विरोधी और महिला विरोधी है यानी इस पूँजीवादी राज्यसत्ता का एक जातिगत चरित्र भी है और लैगिक चरित्र भी। यह समझकर ही हम इसके विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं।

आज देशभर में बेरोज़गारी अभूतपूर्व स्तर पर है। खेती में मशीनों के आने के साथ बड़े पैमाने पर मज़दूर बाहर आ रहे हैं, वहीं पूँजीवादी आर्थिक संकट के कारण नये रोज़गार उद्योगों में भी नहीं पैदा हो रहे। ऐसे ही समय में देशभर में साम्प्रदायिक और जातिगत तनाव बढ़ाया जा रहा है, आम जनता के हक़-अधिकार छीने जा रहे हैं। एससी/एसटी क़ानून 1989 में बदलाव भी पहले से ही दमन-उत्पीड़न झेल रही दलित आबादी को ओर अँधेरे में धकेलेगा। हमें इसके विरुद्ध एकजुट होना पड़ेगा। ये जि़म्मेेदारी आज देश के मज़दूरों और नौजवानों के कन्धे पर है कि वो इसको जल्द से जल्द समझ लें। हमें हिटलर के समय के एक कवि पास्टर निमोलर के शब्दों को याद करना पड़ेगा। अगर वो आज यहाँ होते तो यही कहते :

पहले वो आये दलितों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला क्योंिक मैं दलित नहीं था।

फिर वो आये मुसलमानों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं मुसलमान भी नहीं था

फिर वो आये मज़दूरों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला, मैं मज़दूर भी नहीं था

और फिर वो आये मेरे लिए

तब तक कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता।

 


 

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