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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)
डॉ. अम्बेडकर और भारतीय संविधान
आलोक रंजन
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जो समाज जितना ही पिछड़ा हुआ, अतार्किक और अन्धविश्वासी होता है, उसमें देव-पूजा, डीह-पूजा, नायक-पूजा की प्रवृत्ति उतनी ही गहराई से जड़ें जमाये रहती है। ‘जीवित’ और प्रश्नों से ऊपर उठे “देवताओं” के सृजन से कुछ निहित स्वार्थों वाले व्यक्तियों का भी हित सधता है, प्रभावशाली सामाजिक वर्गों का भी और सत्ता का भी। शासक तबक़ों द्वारा देव-निर्माण और पन्थ-निर्माण की संस्कृति से प्रभावित शासित भी अक्सर सोचने लगते हैं कि उनका अपना नायक हो और अपना ‘पन्थ’ हो। इसके लिए कभी-कभी किसी ऐसे पुराने धर्म को जीवित करके भी, जिसके साथ अतीत में उत्पीड़ितों का पक्षधर होने की प्रतिष्ठा जुड़ी हो, उत्पीड़ित जन यह भ्रम पाल लेते हैं कि उन्हें शासकों के धर्मानुदेशों से (अतः उनके प्रभुत्व से) छुटकारा मिल जायेगा। जब यह भ्रम भंग भी हो जाता है और नायक/नेता द्वारा प्रस्तुत वैकल्पिक मार्ग आगे नहीं बढ़ पाता, तब भी उक्त महापुरुष-विशेष और उसके सिद्धान्तों की आलोचना वर्जित और प्रश्नेतर बनी रहती है और उसे देवता बना दिया जाता है। इससे लाभ अन्ततः शोषणकारी व्यवस्था का ही होता है। धीरे-धीरे, उत्पीड़ितों के बीच से जो मुखर और उन्नत तत्त्व पैदा होते हैं, वे इसी व्यवस्था के भीतर दबाव और मोल-तोल की राजनीति करके फ़ायदे में रहना सीख जाते हैं, “महापुरुष नेता” के वफ़ादार शिष्य बनकर मलाई चाटते हुए इस व्यवस्था में सहयोजित कर लिये जाते हैं और अपने जैसे दूसरे उत्पीड़ित जनों की दुनिया से दूर हो जाते हैं।
अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।
ज़रूरत है अम्बेडकर के सभी विचारों के निरीक्षण-विश्लेषण की। एक हद तक रंगनायकम्मा ने अपनी पुस्तक ‘जाति प्रश्न के समाधान के लिए…’ (राहुल फ़ाउण्डेशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित) में यह काम किया है। यहाँ हमारा उद्देश्य अम्बेडकर के समस्त विचारों की समालोचना प्रस्तुत करना नहीं है। अपने विषय-विशेष के सन्दर्भ में हमारा मन्तव्य भारतीय संविधान के निर्माण में और उस दौरान की भारतीय राजनीति में अम्बेडकर की भूमिका की पड़ताल करना है।
इस बात का बहुत अधिक प्रचार किया जाता है कि डॉ. अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के ‘निर्माता’ या “प्रमुख वास्तुकार” हैं। यह कहाँ तक सच है? संविधान सभा में ‘आर्थिक शोषण से मुक्ति’ के लिए प्रस्तुत अम्बेडकर का प्रस्ताव क्या था और कितना व्यावहारिक था और इस प्रस्ताव के ख़ारिज किये जाने के बाद भी अम्बेडकर संविधान सभा में और नेहरू के मन्त्रालय में क्यों बने रहे? अनुसूचित जातियों के कल्याण के जिस उद्देश्य से अम्बेडकर सरकार और संविधान सभा में गये थे, क्या उसकी कोई सम्भावना शुरू से ही वहाँ मौजूद थी? संविधान-निर्माण का कार्य सम्पन्न होने पर तो अपने लम्बे भाषण में अम्बेडकर ने परम सन्तोष प्रकट किया था और कांग्रेस की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी, फिर कुछ ही वर्षों बाद वे सरकार से बाहर आकर ‘संविधान जलाने’ की बात क्यों करने लगे थे? बावजूद उनके इस मोहभंग के, आज के दलित नेता उन्हें ‘भारतीय संविधान का निर्माता’ कहकर गौरवान्वित क्यों होते हैं और संविधान में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ का विरोध क्यों करते हैं? – इन सभी बातों पर तार्किक और तथ्यपरक ढंग से सोच-विचार किया जाना चाहिए। अतर्क-कुतर्क और अन्धभक्ति से किसी का भला नहीं हो सकता।
1946 तक अम्बेडकर न केवल गाँधी और कांग्रेस की राजनीति के धुर-विरोधी थे, बल्कि कम्युनिस्टों सहित साम्राज्यवाद-विरोधी मुक्ति-संघर्ष की अन्य सभी रैडिकल धाराओं के भी विरोधी थे। वे चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहे थे कि ‘स्वाधीनता से पहले जाति-उन्मूलन जैसे सामाजिक सुधार होने चाहिए’ और ‘भारत को जो स्वाधीनता प्राप्त होगी वह सिर्फ़ (सवर्ण) हिन्दुओं की स्वाधीनता होगी, निम्न जातियों की नहीं।’ अम्बेडकर दलित जातियों के, एक हद तक, सामाजिक रूप से उन्नत और शिक्षित हो जाने से पहले अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने के विरोधी थे। दलितों के हालात में बदलाव के लिए वे स्वयं दलितों की जागृति एवं पहलक़दमी से अधिक अंग्रेज़ों पर भरोसा करते थे। वे कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ छूआछूत नहीं मानते थे, उन्होंने ‘महार रेजिमेण्ट’ बनाने जैसे और दलितों में शिक्षा के लिए क़दम उठाये तथा शहरीकरण किया (जहाँ जातिगत भेदभाव कम था)। बहुसंख्यक दलित गाँवों में रहते थे और स्वर्ण भूस्वामियों के बर्बर सामन्ती उत्पीड़न के शिकार थे। ये अंग्रेज़ ही थे जो भूमि-बन्दोबस्त की विविध प्रणालियों के द्वारा अर्द्धसामन्ती भूमि-सम्बन्ध बनाने और मध्ययुगीन सामन्ती उत्पीड़न की निरन्तरता बनाये रखने तथा उसे नयी शक्ति प्रदान करने के लिए ज़िम्मेदार थे। पर अम्बेडकर ने इस तथ्य को कभी नहीं समझा। दलितों की स्थिति में बेहतरी लाने के लिए वे ब्रिटिश सत्ता के कृतज्ञ थे और उन्हें यदि शिक़ायत थी तो बस यह कि उन्होंने तेज़ गति से और अपेक्षित मात्रा में यह काम नहीं किया। अम्बेडकर के ज़माने में, दलित जातियों का क़रीब 98 प्रतिशत हिस्सा गाँवों-शहरों का मज़दूर वर्ग था और गाँवों-शहरों के मज़दूर वर्ग का भी क़रीब 85 प्रतिशत हिस्सा दलित जातियों से आता था। इनसे क़रीबी से जुड़े हुए छोटे-मँझोले रैय्यत व काश्तकार थे जिनका क़रीब 90 प्रतिशत हिस्सा निम्न समझी जाने वाली किसान (शूद्र) जातियों का था। उस समय इन जातियों को राष्ट्रीय मुक्ति और भूमि क्रान्ति की वेगवती धारा से अलग करने के बजाय यदि इस धारा की अग्रणी शक्ति बनाने की कोशिश की जाती, यदि उपनिवेशवादियों और उनके द्वारा संरक्षित (सवर्ण) सामन्तों के विरुद्ध नीचे की जातियों को क्रान्तिकारी संघर्ष में उतारा जाता और राजनीतिक आन्दोलन की धारा के भीतर, साथ-साथ रैडिकल सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन सतत चलाये जाते तो राजनीतिक-आर्थिक स्वाधीनता के साथ ही मेहनतकश जनगण की सामाजिक-सांस्कृतिक स्वाधीनता और दलित प्रश्न के हल की दिशा में भी एक महान अग्रवर्ती छलाँग सम्भव थी। पर अम्बेडकर को वर्ग-संघर्ष ही नहीं, व्यापक जनान्दोलनों से भी चिढ़ थी। वे कट्टर विधानवादी थे और घोर सुधारवादी। जाति-प्रश्न को उन्होंने वर्गीय शोषण के प्रश्न से एकदम अलग कर दिया। जातिगत उत्पीड़न और आर्थिक शोषण का ख़ात्मा वे केवल सत्ता के क़ानूनों-विधानों से सम्भव मानते थे या फिर स्वयं उत्पीड़कों की रज़ामन्दी से। ‘जाति प्रथा का उन्मूलन’ विषयक उनकी “महान कृति” का निचोड़ यह है कि जाति-व्यवस्था तभी समाप्त हो सकती है, जब ब्राह्मण इससे सहमत हों।
1926 से ही अस्पृश्यता-विरोधी आन्दोलन और लेखन अम्बेडकर के क्रियाकलापों के केन्द्रबिन्दु थे। उनके अस्पृश्यता-विरोधी आन्दोलन ज़्यादातर महाराष्ट्र केन्द्रित थे और अपने प्रभाव क्षेत्रों में दलितों के उत्पीड़न-अपमान के विरुद्ध संघर्ष, आन्दोलन एवं सुधार कार्य में कम्युनिस्ट उनसे पीछे क़तई नहीं थे। 1926 से 1934 तक अम्बेडकर दलितों के प्रतिनिधि के रूप में बम्बई विधानसभा में नियुक्त रहे। 1942 से 1946 तक वे श्रम विभाग में गवर्नर जनरल के प्रशासक रहे। अब यह अलग से शर्मिन्दगी भरी चर्चा का विषय है कि इस दौरान मज़दूरों और मज़दूर संघर्षों के प्रति “महामहिम” गवर्नर जनरल के श्रम विभाग ने क्या रुख़ अपनाया था और मज़दूरों का उसने क्या और कितना “भला” किया था! मार्च 1946 में सत्ता हस्तान्तरण के निर्णय और जुलाई 1946 में अति-सीमित मताधिकार के आधार पर, परोक्ष प्रणाली से, प्रान्तीय विधायिकाओं द्वारा संविधान सभा के चुनाव की चर्चा निबन्ध में पहले की जा चुकी है। इंग्लैण्ड और अमेरिका की बुर्जुआ जनवादी संसदीय प्रणालियों को आदर्श मानने वाले अम्बेडकर को अति विशेषाधिकार प्राप्त कुलीनों के निर्वाचक मण्डल द्वारा संविधान सभा चुनाव के इस कुचक्र पर कोई सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं हुई। एक बार भी उन्होंने सार्विक वयस्क मताधिकार आधारित चुनाव की बात नहीं उठायी और बंगाल के मुस्लिम लीग सदस्यों के समर्थन से निर्वाचित होकर (क्योंकि कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलने से उनके मूल राज्य बम्बई से उनका निर्वाचन सम्भव न हो सका था) वे चटपट संविधान सभा में जा बैठे। प्रसंगवश, यहाँ यह उल्लेख भी कर दिया जाना चाहिए कि पाकिस्तान की माँग, मुस्लिम लीग की अन्य माँगों तथा साम्प्रदायिकता की राजनीति पर अम्बेडकर का स्टैण्ड पहले से ही, स्थिर न रहकर लगातार दोलन करता रहा था। कभी उनकी बातें लीग को जँचने वाली होती थीं, तो कभी हिन्दू साम्प्रदायिकों को भी जमने लगती थीं। दुर्भाग्यवश, यहाँ इस विस्तार में जाना सम्भव नहीं है। मुस्लिम लीग संविधान सभा की बैठकों का बहिष्कार करती रही, पर लीगी समर्थन से वहाँ पहुँचे अम्बेडकर ने न केवल 9 दिसम्बर, 1946 से आयोजित संविधान सभा की बैठकों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया, बल्कि 17 दिसम्बर को एक विलक्षण “भावुक” भाषण देकर नाटकीय, आश्चर्यजनक पालाबदल-कौशल का प्रदर्शन किया। आर्थिक-सामाजिक-जातिगत अन्तरों के बावजूद उन्होंने स्वतन्त्र भारत में लोगों के एक होने में विश्वास जताया और यह भी कहा कि लीग की विभाजन की माँग के बावजूद एक दिन मुसलमानों की आँखें खुल जायेंगी और वे समझ लेंगे कि संयुक्त भारत ही उनके लिए बेहतर रहेगा। उन्होंने सभी से अपने नारों को किनारे रखकर तथा जनता को भयभीत करने वाले शब्दों का प्रयोग बन्द कर एक हो जाने की अपील की (अम्बेडकर की संग्रहीत रचनाएँ, महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड-13, पृ. 9-10)।
अचानक स्टैण्ड बदलकर, अम्बेडकर स्वाधीनता-प्राप्ति पर आनन्दातिरेक से भर उठे और “एक हो जाने” की घोषणा करते हुए न केवल कांग्रेस के साथ आ गये थे, बल्कि (संकलित रचनाओं के सम्पादक वसन्त मून के शब्दों में) वे “संवैधानिक मामलों में कांग्रेस के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बन गये थे” (उपरोक्त, पृ. 26)। अभी डेढ़ वर्ष पहले ही (जून 1945 में) अम्बेडकर ने कांग्रेस के अत्याचारों-विश्वासघातों पर एक मोटी पुस्तक लिखी थी, “कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया?” कांग्रेस अब भी वही थी। उसने कुछ भी नया नहीं किया था। पर अम्बेडकर का सुर बदल गया था। यह वही अम्बेडकर थे, जिन्होंने गाँधी और कांग्रेस की ओर झुकाव होने पर दलित नेता एम.सी. राजा को कभी “भाड़े का टट्टू” कहा था और मद्रास विधान-सभा के कांग्रेसी दलित विधायकों को कांग्रेस का “पालतू कुत्ता” कहा था। अब वे संविधान सभा में कांग्रेस के साथ एक हो जाने का आह्नान कर रहे थे। कृतज्ञता-ज्ञापन में कांग्रेसी पीछे नहीं रहे। संविधान सभा के अध्यक्ष, घाघ अनुदारवादी कांग्रेसी राजेन्द्र प्रसाद ने अम्बेडकर को संविधान का प्रारूप तैयार करने सम्बन्धी दो समितियों में तुरन्त शामिल कर लिया।
मार्च, 1947 में संविधान सभा में प्रस्तुत करने की दृष्टि से अम्बेडकर ने ‘आर्थिक शोषण से सुरक्षा’ की अपनी योजना तैयार की (देखिये, अम्बेडकर की संग्रहीत रचनाएँ, महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड-1, पृ. 383, 391, 396-97)। संविधान सभा ने उनकी योजना को ठुकरा दिया। अम्बेडकर रूठे नहीं। उलटे उन्होंने ही संविधान सभा की योजना को अपना लिया।
‘आर्थिक शोषण से सुरक्षा’ सम्बन्धी अम्बेडकर की योजना, वस्तुतः ‘आर्थिक शोषण से सुरक्षा’ नहीं देती, बल्कि पूँजीवाद का ही एक भिन्न संस्करण प्रस्तुत करती है, जिसमें अव्यावहारिकता तो है ही, अर्थशास्त्र-विषयक अम्बेडकर के अधकचरे ज्ञान का खुला प्रदर्शन भी है। भारतीय पूँजीपति वर्ग को पूँजीवाद का अम्बेडकर-प्रस्तावित संस्करण पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं था, इसलिए उसके राजनीतिक प्रतिनिधियों ने उसे ख़ारिज कर दिया। अम्बेडकर ने आर्थिक शोषण से बचाव के लिए प्रमुख उद्योगों और बीमा क्षेत्र के राज्य के स्वामित्व में होने का प्रस्ताव दिया तथा जो उद्योग प्रमुख नहीं थे, लेकिन बुनियादी थे, उन्हें राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा चलाये जाने का प्रस्ताव किया। यही उनका “राजकीय समाजवाद” था। मूलतः यह नेहरू के “समाजवाद” जैसा ही था जो सारतः राजकीय पूँजीवाद था। यह कोई नयी बात नहीं थी। कीन्स के नुस्ख़ों से पहले भी राजकीय पूँजीवाद था। यह मूलतः पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करता था और अधिशेष इसमें भी निचोड़ा जाता था। ‘पब्लिक सेक्टर’ के “समाजवादी” अनुभवों से भला कौन भारतीय परिचित नहीं है। अम्बेडकर का दूसरा प्रस्ताव कृषि को भी राजकीय उद्योग बनाने का था। ज़ाहिर है कि बुर्जुआ वर्ग चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकता था, क्योंकि धनी और मँझोले काश्तकार भी इस मसले पर उसका साथ नहीं देते। दूसरे, खेती का यदि राजकीयकरण हो भी जाता तो केवल शोषण का रूप बदल जाता, क्योंकि बुनियादी सवाल यह है कि राज्यसत्ता की बागडोर किस वर्ग के हाथों में है!
‘आर्थिक शोषण से मुक्ति’ का प्रस्ताव रखते हुए अम्बेडकर इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते कि श्रम का शोषण ही आर्थिक शोषण है। किराया, ब्याज, मुआवज़ा, ऋणपत्र, मुद्रा, भूमि, मज़दूरी आदि सभी अर्थशास्त्रीय प्रवर्गों पर वे एकदम दिग्भ्रमित हैं और उनके द्वारा प्रस्तुत सुझावों में शोषणकारी उत्पादन-सम्बन्ध और सम्पत्ति- सम्बन्ध अन्तर्निहित हैं। यह चर्चा थोड़े तकनीकी एवं जटिल अर्थशास्त्रीय विस्तार की माँग करती है, अतः इसके विस्तार में जाना यहाँ सम्भव नहीं। संक्षेप में, अम्बेडकर के सुझाव शोषण के अधिकारों और आय के शोषणकारी अधिकारों को जारी रखने के प्रस्ताव मात्र हैं। महज़ एक उदाहरण लें। उद्योगों और भूमि का राजकीयकरण करते समय अम्बेडकर पूर्वस्वामियों को मुआवज़ा देने की बात करते हैं। पूँजीपतियों की पूँजी मज़दूरों की कई पीढ़ियों द्वारा सृजित अतिरिक्त मूल्य से ही संचित हुई है। अब भूमि के सवाल को लें। प्रकृति में मौजूद अपरिष्कृत भूमि का कोई मूल्य नहीं है। भूमि के लिए किये गये भुगतान की धनराशि उन लोगों के श्रम के अतिरिक्त मूल्य का अंश है जिन्होंने उस भूमि को कृषि योग्य बनाकर फ़सलें उगायी हैं। भूमि और उद्योग के लिए मुआवज़ा अदा करने का मतलब है – शोषणकारी सम्पत्ति-अधिकारों के ख़ात्मे के बजाय सम्पत्ति के स्वरूप को बदल देना। जो मालिक पहले मुनाफ़ा कूटते थे और लगान वसूलते थे, वे ब्याज पर ऐश करते रहेंगे और परोक्षतः निचोड़े गये अधिशेष के भागीदार बने रहेंगे। अम्बेडकर सम्पत्ति के अधिकार पर या बुर्जुआ श्रम- विभाजन पर चोट नहीं करते। वे हर सक्षम नागरिकों के काम करने के अधिकार की या अपरिहार्यता की बात नहीं करते।
ऐसे अधकचरे सुझाव अम्बेडकर की सम्पूर्ण विचार-सरणि में मौजूद हैं। जाति प्रश्न के हल के लिए उन्होंने वृहत शहरीकरण का हवाई सुझाव दिया (यह असम्भव है, मूल बात है एक लम्बी प्रक्रिया में गाँव और शहर के अन्तर को, कृषि और उद्योग के अन्तर को ख़त्म करना, लेकिन पूँजीवाद में यह सम्भव नहीं है। दूसरी बात, शहरों में भी धनी-ग़रीब की गहराती खाई बनी रहेगी और गाँव के दलित सर्वहाराओं को ज़्यादातर शहरी सर्वहाराओं की क़तारों में ही जगह मिलेगी तथा जातिगत विभेद की दीवारें भी बनी रहेंगी)। जाति प्रश्न का दूसरा समाधान उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने में देखा। यह विकल्प समय ने थोथा-बोदा सिद्ध किया। आरक्षण के विकल्प की भी बात कर ली जाये। आरक्षण एक अस्थायी सुरक्षात्मक उपाय हो सकता था, पर अन्तिम समाधान का रास्ता तो ‘समान शिक्षा सबको रोज़गार’ तथा स्वास्थ्य, आवास आदि को राज्य की ज़िम्मेदारी बनाये जाने के बाद ही फूट सकता था। आरक्षण की निरन्तरता जातियों की निरन्तरता ही है। आरक्षण का लाभ बहुसंख्यक दलित मेहनतकश आबादी के बजाय मुट्ठीभर दलित मध्यवर्ग के लोगों को ही मिल पाता है। बुनियादी सवाल यह है कि दलित मुक्ति की और जाति-उन्मूलन की तर्कसंगत, व्यावहारिक परियोजना आखि़रकार क्या हो सकती है? – तो इस प्रश्न पर अम्बेडकर का निष्कर्ष तो यही है कि जाति व्यवस्था तभी समाप्त हो सकती है, जब ब्राह्मण इससे सहमत हों! यह है अम्बेडकर के राजनीतिक-सामाजिक विचारों की असली अन्तर्वस्तु! बहरहाल, हम फिर संविधान-निर्माण के दौरान अम्बेडकर की भूमिका की ओर वापस लौटते हैं।
‘आर्थिक शोषण से सुरक्षा’ (मार्च, 1947) की अपनी योजना को ख़ारिज कर दिये जाने के बाद, अम्बेडकर के सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विभाजन के बाद लीगी समर्थन से बंगाल से निर्वाचित अम्बेडकर की संविधान सभा-सदस्यता समाप्त हो गयी। अब कांग्रेस फ़ौरन उद्धारक बनकर आगे आयी। बम्बई के एक कांग्रेसी सदस्य से त्यागपत्र दिलवाकर उस सीट से अम्बेडकर को तुरन्त निर्वाचित कर लिया गया। नेहरू ने अपनी सरकार में भी उन्हें शामिल कर लिया और विधि मन्त्री बनाया। अम्बेडकर योजना या श्रम मन्त्रालय चाहते थे। नेहरू ने इन्तज़ार करने को कहा और टाल गये। 29 अगस्त, 1947 को अम्बेडकर को संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। पूर्व में यह चर्चा की जा चुकी है कि जिस संविधान का डॉ. अम्बेडकर को निर्माता और मुख्य वास्तुकार कहा जाता है, उसका मुख्य ढाँचा औपनिवेशिक सत्ता के दो नौकरशाहों – सर बी.एन. राव और एस.एन. मुखर्जी ने तैयार किया था और उसमें ‘गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया एक्ट 1935’ की 395 में से 295 धाराओं को ज्यों का त्यों शामिल कर लिया गया था। यह संक्षिप्त उल्लेख भी किया जा चुका है कि यह संविधान सम्पत्ति के अधिकारों की और शोषणकारी सम्बन्धों की इंच-इंच हिफ़ाज़त करता है, लेकिन श्रम के अधिकारों की कोई गारण्टी नहीं लेता। आगे जब हम संविधान के एक-एक हिस्से का तफ़सील से विश्लेषण करेंगे तो अम्बेडकर के बुर्जुआ जनवादी विभ्रम और खुलकर हमारे सामने आ जायेंगे।
यहाँ यह याद दिलाना बेहद ज़रूरी है कि अम्बेडकर प्रारूप कमेटी में बैठकर जब संविधान के मसौदे की काट-छाँट कर रहे थे, उस समय तेलंगाना किसान संघर्ष जारी था। नेहरू सरकार द्वारा उसका बर्बर दमन भी तभी हुआ था। तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा-वायलार, नौसेना विद्रोह, देशव्यापी मज़दूर उभार – इन सबसे अम्बेडकर विरक्ति भाव नहीं, वितृष्णा भाव और विरोध भाव रखते थे। संविधान बनाने के बाद संविधान सभा में दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी उन्होंने लोगों को क्रान्ति और आन्दोलन के “बेकार रास्ते” से दूर रहने और संविधानसम्मत-क़ानूनसम्मत आचरण की नसीहत दी थी। इस मायने में अम्बेडकर गाँधी-नेहरू से भी दस क़दम आगे थे। वे एक कट्टर विधानवादी थे।
25 नवम्बर 1947 को प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से अम्बेडकर ने संविधान सभा में लम्बा भाषण दिया। अम्बेडकर का दावा था कि वे अनुसूचित जातियों की हितरक्षा के लिए संविधान सभा में शामिल हुए थे। संविधान में यह उल्लेख भी है कि ‘अस्पृश्यता का अनुशीलन क़ानूनी तौर पर दण्डनीय अपराध है।’ पाँच वर्षों बाद 1954 में सरकार ने अस्पृश्यता को निषिद्ध करने का क़ानून भी बनाया। लेकिन अस्पृश्यता विविध रूपों में सामाजिक जीवन में आज भी मौजूद है। यदि स्थिति में थोड़ा-बहुत मात्रात्मक परिवर्तन हुआ भी है तो उसका कारण या तो जनजीवन पर पूँजी का समरूपी दबाव है या फिर समय के साथ सामाजिक चेतना में हुआ मात्रात्मक विकास है, संवैधानिक या क़ानूनी प्रावधानों की इसमें कोई भूमिका नहीं है। स्थितियों ने अम्बेडकर के संवैधानिक वैधिक विभ्रमों को स्वतः उजागर कर दिया है।
25 नवम्बर 1947 को संविधान सभा में दिये गये अपने लम्बे-चौड़े भाषण में अम्बेडकर प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष का कार्यभार स्वयं को सौंपे जाने को लेकर कांग्रेस के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए लोटपोट हो गये, कांग्रेसियों और संविधान सभा के सभी सदस्यों (जिनमें राजे-राजवाड़ों, पूँजीपतियों और अंग्रेज़परस्त विधिवेत्ताओं की बहुतायत थी) की भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे और इस बात को स्वीकार किया कि संविधान का प्रारम्भिक प्रारूप नौकरशाह – बी.एन. राव और एस.एन. मुखर्जी ने तैयार किया था। यह समझाना मुश्किल है कि संविधान के निर्माता और वास्तुकार डॉ. अम्बेडकर को क्यों माना जाता है? जहाँ तक वास्तुकार होने की बात है, तो भारतीय संविधान का कोई मौलिक वास्तु (स्थापत्य) है ही नहीं। ज़्यादातर धाराएँ 1935 के कुख्यात औपनिवेशिक क़ानून की है और दुनिया के अलग-अलग संविधानों से कुछ-कुछ चीज़ें उधार लेकर यहाँ-वहाँ खोखले शब्दों की पच्चीकारी और रंगरोगन कर दिया गया है। इस प्रक्रिया में यह यदि दुनिया का सबसे मोटा संविधान हो गया है तो यह गौरव की नहीं बल्कि मज़ाक़ की बात है।
अम्बेडकर अपने भाषण में सभी सहयोगियों और अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद के विलक्षण यशोगान के बाद कम्युनिस्टों-सोशलिस्टों पर टूट पड़ते हैं। वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी संविधान की इसलिए निन्दा करती है, क्योंकि वह सर्वहारा अधिनायकत्व पर आधारित संविधान चाहती है जबकि भारतीय संविधान संसदीय जनवाद पर आधारित है। यह बात तथ्यतः ग़लत है। कम्युनिस्ट पार्टी ने उस समय बस इतना ही किया था कि सार्विक मताधिकार पर संविधान सभा के पुनर्गठन की माँग की थी। जहाँ तक सर्वहारा अधिनायकत्व की बात है, तो यह सर्वविदित है कि यदि राष्ट्रीय मुक्ति का नेतृत्व कम्युनिस्ट करते तो वे सर्वहारा अधिनायकत्व ही क़ायम करते। अम्बेडकर अन्यत्र मार्क्सवाद पर हमला करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की धारणा को अटकल-पच्चू ढंग से विरूपित करते हैं। कम्युनिस्ट धारणा के अनुसार, हर सत्ता वर्ग-अधिनायकत्व होती है। बुर्जुआ संसदीय जनवाद बुर्जुआ अधिनायकत्व होता है और सर्वहारा समाजवादी जनवाद सर्वहारा अधिनायकत्व होता है। संसदीय जनवाद या कोई भी जनवाद निरपेक्ष जनवाद नहीं होता। इस प्रश्न पर अम्बेडकर की अधकचरी सोच की रंगनायकम्मा ने अपनी उपरोल्लिखित पुस्तक में बहुत करीने से चीरफाड़ की है। यहाँ अधिक विस्तार से उसकी चर्चा सम्भव नहीं है।
अम्बेडकर के अनुसार, सोशलिस्ट (किन सोशलिस्टों की ओर उनका इशारा था, यह स्पष्ट नहीं होता) संविधान की आलोचना इसलिए करते हैं कि वे बिना मुआवज़ा दिये ही समूची ग़ैरसरकारी सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण या समाजीकरण चाहते हैं, जबकि संविधान इसकी इजाज़त नहीं देता। ये सोशलिस्ट चाहे जो भी हों, लेकिन वे यदि ऐसा कह रहे थे तो सोलह आने उचित बात कह रहे थे। जनता की श्रमशक्ति को लूटकर पूँजी का अम्बार खड़ा करने वालों और कल-कारख़ानों-ज़मीन का मालिकाना हासिल करने वाले लुटेरों की सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण करते समय मुआवज़े देने का भला क्या औचित्य है? इसमें दलित जातियों का भला क्या हित है? ज़मीन्दारों-जागीरदारों और पूँजीपतियों को सम्पत्ति का मुआवज़ा भी तो सरकार जनता के पैसे से ही देती! क्या इतना पर्याप्त नहीं होता कि कोई वास्तविक जनवाद उन्हें आम नागरिक के समान काम करने और जीने का अधिकार प्रदान करता! अम्बेडकर सम्पत्तिशालियों को मुआवज़े देने की इतनी तरफ़दारी क्यों करते हैं? संविधान सभा में बैठे, देश के 11.5 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधियों का तो वे इतना गुणगान करते हैं, लेकिन बिना मुआवज़ा दिये सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण करने की माँग करने वालों पर एकदम लाल-पीले हो जाते हैं! क्या यह सोचने की बात नहीं है कि क्यों?
आगे अपने भाषण में अम्बेडकर जाति-धर्म जैसे पुराने शत्रुओं और कई राजनीतिक पार्टियों (लेकिन जिस संसदीय जनवाद के वे हामी थे उसमें कई राजनीतिक पार्टियाँ तो होनी ही थीं) के होते हुए, राजनीतिक विरोधाभासों के चलते आज़ादी और लोकतान्त्रिक संविधान को ख़तरे में पड़ने से बचाने के लिए भारतवासियों से मतों और पन्थों से देश को ऊपर रखने की अपील करते हैं। यहाँ वे अपने चिरशत्रु गाँधी की भाषा बोलते नज़र आते हैं। अचानक उन्हें यह कैसे लगने लगा कि सवर्ण जातियाँ देशहित में जातिगत उत्पीड़न बन्द कर देंगी अथवा साम्प्रदायिक तत्व अपने संकीर्ण मत या पन्थ से ऊपर उठ जायेंगे? इसके बाद उन्होंने न केवल बौद्ध गणराज्यों की बल्कि प्राचीन हिन्दू राजाओं के लोकतन्त्र का भी गुणगान किया है। यह इतिहास का सर्वविदित तथ्य है कि पुराने बौद्ध गणराज्यों में भी समाज में न केवल वर्गीय पद सोपानक्रम, बल्कि जातिगत उत्पीड़न भी मौजूद था। यह समझना तो और भी मुश्क़िल है कि अचानक हिन्दू राजा अम्बेडकर को इतने प्रिय कैसे लगने लगे?
अपने इस भाषण में अम्बेडकर ने संविधान को “राजनीतिक लोकतन्त्र की विशाल संरचना” की संज्ञा दी है। यही वह “राजनीतिक लोकतन्त्र की विशाल संरचना” है जिसका निर्माण 11.5 प्रतिशत कुलीनों के प्रतिनिधियों ने किया था, जिसके प्रावधानों के तहत 1975 में आपातकाल लगा था और जिसके तहत होने वाले संसदीय चुनावों में पूँजी की ताक़त का नंगा खेल पिछले छह दशकों से निर्बाध जारी है। यही “राजनीतिक लोकतन्त्र की विशाल संरचना” है जो पिछले छह दशकों से उन दलितों को चक्की की तरह पीस रही है, अम्बेडकर जिनके हितों के सबसे बड़े पैरोकार थे। यही वह लोकतन्त्र है जिसमें 77.5 प्रतिशत आबादी आज भी 20 रुपये रोज़ से कम पर जीती है, जबकि ऊपर के दस प्रतिशत लोग ऐश्वर्य और विलासिता के टाफओं पर बसेरा करते हैं। अम्बेडकर इसी लोकतन्त्र को बचाने के लिए सबसे अधिक चिन्तित थे और अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमें क्रान्ति के बेकार तरीक़ों को छोड़ना होगा और संवैधानिक तरीक़ों पर दृढ़ रहना होगा। बुर्जुआ जनवाद की इससे बड़ी सेवा भला और क्या हो सकती है कि जिन्हें विद्रोह करने की सबसे अधिक ज़रूरत थी (और है), उन्हीं दलितों को उन्हीं का मसीहा संघर्ष के रास्ते से अलग रहने और संविधान-क़ानून की “पवित्रता” को अलंघ्य मानने की नसीहत दे गया!
आगे अपने भाषण में अम्बेडकर धनी-ग़रीब के बीच की खाई और बहुसंख्यक जनता की नारकीय दरिद्रता की चर्चा करते हैं। वे स्वाधीनता और लोकतान्त्रिक ढाँचे को बनाये रखने के लिए तथा जनता को वर्ग-युद्ध के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए सरकार से कुछ सामाजिक-आर्थिक सुधारमूलक क़दम की अपेक्षा करते हैं (‘आर्थिक शोषण से मुक्ति’ के उनके हवाई सुझाव तो पहले ही ख़ारिज किये जा चुके थे) लेकिन ग़रीबों को वे बार-बार यही उपदेश देते हैं कि वे संविधान और क़ानून के ख़िलाफ़ कदापि न जायें।
अम्बेडकर के इस भाषण के बाद कांग्रेसी और अन्य सदस्यों ने उनकी प्रशंसा की झड़ी लगा दी और उन्हें “आधुनिक मनु” की संज्ञा दी। कांग्रेस के प्रति आत्मसमर्पण का दृश्य पूरा हो चुका था।
इसके बाद चार वर्षों तक अम्बेडकर इन्तज़ार करते रहे। उन्हें न तो मनचाहा मन्त्रालय मिला, न ही उन्हें किसी अन्य नयी गठित कमेटी में ही लिया गया। 1952 में वे राज्यसभा के सदस्य बने। 1953 में राज्यसभा में ‘आन्ध्र राज्य के बिल’ पर बोलते हुए उन्होंने कहा: “सब लोग मुझे संविधान का निर्माता कहते हैं। वास्तव में मुझे बहुत सी बातें अपनी इच्छाओं के विरुद्ध लिखनी पड़ी थीं। अब मैं उस संविधान से सन्तुष्ट नहीं हूँ जिसे मैंने स्वयं लिखा। मैं पहला व्यक्ति होऊँगा जो इसे जलाने के लिए आगे आयेगा। यह संविधान किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है।” (रंगनायकम्मा: उपरोद्धृत पुस्तक, पृ. 452-453)।
अब जैसाकि हम ऊपर स्वयं अम्बेडकर के ही मुँह से सुन चुके हैं (और यह इतिहास का तथ्य है) कि संविधान के मुख्य वास्तुकार नौकरशाह राव और मुखर्जी थे। उनके द्वारा प्रस्तुत मसौदे में प्रारूप कमेटी में विचार-विमर्श के बाद बहुमत से जोड़-घटाव किया गया। अम्बेडकर की भूमिका उस प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर जोड़े-घटाये गये अंशों की ‘ड्राफ्टिंग’ करने मात्र की थी। अतः अम्बेडकर द्वारा स्वयं को “संविधान का लेखक” कहना ग़लत है। दूसरी बात, अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ बहुतेरी बातें लिखने की ऐसी क्या विवशता थी? अम्बेडकर संविधान सभा या प्रारूप कमेटी से बाहर क्यों नहीं आ गये? तीसरी बात, यदि अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ बहुतेरी बातें लिखनी ही पड़ीं तो नवम्बर 1947 के अपने भाषण में इतने अत्युक्ति अलंकार में संविधान की श्रेष्ठता-महानता का प्रशस्ति-गान करने की और संविधान-निर्माता सहयोगियों का गुण बखानने की भला क्या मजबूरी थी? चौथी बात, संविधान लागू होने के चार वर्षों के भीतर ही ऐसा क्या घटित हो गया कि संविधान से अम्बेडकर का इस क़दर मोहभंग हो गया कि वे उसे जलाने को तैयार हो गये? पाँचवीं बात, यदि ऐसा हो ही गया तो तत्क्षण वे मन्त्री पद और राज्यसभा से इस्तीफ़ा देकर बाहर क्यों नहीं आ गये?
इस भाषण के बाद अम्बेडकर सितम्बर 1955 तक विधिमन्त्री बने रहे और श्रम या योजना मन्त्रालय जैसा पसन्द का मन्त्रालय पाने का इन्तज़ार करते रहे। फिर निराश होकर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। येन्दूलूरी की तेलुगू पुस्तक के हवाले से रंगनायकम्मा ने बताया है (पृ. 451) कि अम्बेडकर ने अपने इस्तीफ़े के चार कारण बताये थे: पहला, मनचाहा मन्त्रालय न मिलना; दूसरा, दलितों की सुरक्षा की सरकार द्वारा समुचित व्यवस्था न होना; तीसरा, विदेश नीति से असहमति; और चौथा, मन्त्रियों की कमेटियों के निर्णयों के अनुचर जैसी स्थिति! ऐसा लगता है कि इनमें पहला कारण ही प्रधान था और यह विशुद्ध व्यक्तिगत पसन्द का मामला था, न कि उसूली मामला था। जहाँ तक दूसरे कारण का सवाल है, अम्बेडकर ने सरकार से दलितों की सुरक्षा की अपेक्षा किस आधार पर की थी, पूछा यह जाना चाहिए। दलितों और समूची जनता को तो हर हाल में वे संविधान व क़ानून की चौहद्दी में रहने की नसीहत पहले ही दे चुके थे। अब जबकि सरकार दलित-हितों की अनदेखी कर रही थी और वे स्वयं संविधान को जलाने के मूड में आ गये थे; तो उन्होंने यह नहीं बताया कि दलित क्या करें – संविधान जलायें (यह तो घोर असंवैधानिक व ग़ैरक़ानूनी कृत्य है और आन्दोलन का एक रूप भी) या संविधान में संशोधन के लिए कुछ करें! बहुतेरे बुर्जुआ दलित नेता भले ही संविधान में छेड़छाड़ को अम्बेडकर की शान में गुस्ताख़ी समझते हों, अम्बेडकर ने नवम्बर 1947 के अपने भाषण में स्पष्ट कहा था कि आने वाले समय में आवश्यकतानुसार इसे बदला जा सकता है! लेकिन तब संविधान-संशोधन के बजाय वे स्वयं उसे जलाने की बात क्यों करने लगे और यदि करने ही लगे तो पूरे देश की जनता और दलितों को ऐसा करने के लिए कहा क्यों नहीं!
मन्त्रीपद से अपने इस्तीफ़े के तीसरे कारण के विस्तार में अम्बेडकर गये ही नहीं और चौथे कारण से तो ऐसा लगता है कि वे मन्त्रियों के निर्णय लेने के निरंकुश अधिकार के पक्षधर थे!
बहरहाल, उत्तरकथा यह है कि मन्त्रीपद से इस्तीफ़े के बाद, अम्बेडकर के जीवन का अगला महत्त्वपूर्ण क़दम था 1956 में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेना। 1936 में धर्म-परिवर्तन के फ़ैसले की घोषणा के बीस वर्षों बाद उन्होंने इसे अमली जामा पहनाया। बौद्ध धर्म की अपने समय में जो सीमित प्रगतिशील भूमिका रही थी, या उसकी जो दार्शनिक अन्तर्वस्तु थी, या शासक वर्गीय हितों के साथ उसके समझौते और पतन-विघटन की जो प्रक्रिया रही थी, उस ऐतिहासिक विमर्श में अम्बेडकर जाते ही नहीं। अन्तिम विश्लेषण में, हर धर्म की तरह बौद्ध धर्म भी अस्तित्वमान शोषणकारी सम्बन्धों के पक्ष में खड़ा होता है। अम्बेडकर इस मार्क्सवादी स्थापना का भी कोई तर्कपूर्ण प्रतिवाद नहीं करते। बौद्ध धर्म में समाधान ढूँढ़ते हुए वे अतार्किक ढंग से बौद्ध ग्रन्थों की कुछ कथाएँ सुनाते हैं और निहायत अधकचरा धार्मिक यूटोपिया प्रस्तुत करते हैं। वे यह भी नहीं बताते कि यदि आधुनिक युग की समस्याओं का समाधान बौद्ध धर्म में है तो बौद्ध धर्मानुयायी देशों में भी सामन्ती और पूँजीवादी शोषण और समस्याएँ क्यों मौजूद थीं। अम्बेडकर का अनुगमन करते हुए देश के कुछ हिस्सों में कुछ दलित बौद्ध बने, पर उन्हें “नवबौद्ध” कहा गया। “नवबौद्ध” शब्द दलित शब्द का ही पर्यायवाची बन गया और दलित जातियों का सामाजिक पार्थक्य और उत्पीड़न यथावत् बना रहा। आरक्षण ने आम दलितों की समस्या का कितना समाधान किया है, साठ वर्षों की यह हक़ीक़त भी हमारे सामने है!
अपने ही बनाये संविधान से अम्बेडकर तो नाराज़ हो गये, पर दलितों को कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं सुझा गये। हाथ में संविधान लिये उनकी मूर्ति आज भी देशव्यापी प्रतिष्ठाप्राप्त है। दलित-मुक्ति की कोई परियोजना समस्त शोषित- उत्पीड़ित मेहनतकशों के मुक्ति-संघर्ष के एक हिस्से के तौर पर ही आगे क़दम बढ़ा सकती है। लेकिन कम्युनिस्ट आन्दोलन की अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों के अतिरिक्त डॉ. अम्बेडकर का संविधानवादी-क़ानूनवादी नज़रिये का व्यापक प्रभाव भी एक कारण है कि दलित जातियों के मेहनतकश जनसमुदाय की भारी आबादी के बीच बुर्जुआ संसदीय विभ्रम आज भी गहराई से जड़ जमाये हुए हैं जिनका लाभ उठाकर भाँति-भाँति की दलित बुर्जुआ राजनीतिक धाराएँ उभरती और विघटित होती रहती हैं और पूँजी के कुछ टुकड़ख़ोर चाकर दलित नेता का चोंगा पहनकर वोटों की फ़सल काटते रहते हैं तथा अपनी गोट लाल करते रहते हैं।
प्रश्न अम्बेडकर की नीयत और सदिच्छाओं का नहीं है। इतिहास में फ़ैसला इस बात से होता है कि नेता या सिद्धान्तकार-विशेष के सिद्धान्त या राजनीतिक विचार निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति में मददगार हैं अथवा नहीं!
इसी दृष्टि से डॉ. अम्बेडकर के विचारों और उनके सामाजिक-राजनीतिक अमल के वस्तुपरक विश्लेषण की ज़रूरत है! यहाँ संविधान-निर्माण में अम्बेडकर की भूमिका तथा संविधान और क़ानून के बारे में उनके विचारों का एक विश्लेषण इसी दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है।
दलित प्रश्न का समाधान न “राजकीय समाजवाद” है, न शहरीकरण, न धर्मान्तरण, न आरक्षण। बुर्जुआ वर्ग द्वारा तय की गयी संवैधानिक व क़ानूनी चौहद्दी के भीतर दलित मेहनतकश सिर्फ़ रियायतों की भीख पा सकता है तथा इस या उस सजातीय भ्रष्ट नेता या जातीय आधार पर गठित पार्टी का वोट बैंक बना रहकर मुक्ति पाने की मृग मरीचिका में भटकता रह सकता है। मुक्ति का एकमात्र व्यावहारिक मार्ग यही हो सकता है कि दलित जातियों के मेहनतकश वर्ग-संघर्ष में सर्वहारा पाँतों में अपनी ज़्यादा से ज़्यादा सक्रिय एवं प्रभावी दख़ल बनायें। संशोधनवादियों के कुकर्मों और पाखण्डों का पाप कम्युनिज़्म के सिद्धान्तों के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता। कम्युनिस्ट आन्दोलन की तमाम विफलताओं के बावजूद, सच्चाई यह भी है कि देश में जहाँ भी कभी कम्युनिस्ट गाँव के ग़रीबों की लड़ाई लड़े हैं, वहाँ के ग़रीब दलित आज भी अधिक सम्मान से सिर उठाकर चलते हैं। मार्क्सवाद सहस्राब्दियों से मौजूद जाति-प्रश्न का चुटकी बजाते जादुई हल नहीं बताता। सर्वहारा राज्यसत्ता ‘सबके लिए समान शिक्षा और रोज़गार के समान अवसर’ की गारण्टी से समस्या के हल की दिशा में पहला बुनियादी क़दम उठायेगी। समाजवादी शिक्षा और संस्कृति अन्तर्जातीय ‘रोटी-बेटी’ के रिश्तों को भरपूर बढ़ावा देगी। जातिगत आधार पर जो सांस्कृतिक-सामाजिक पार्थक्य है, वह सतत् सांस्कृतिक क्रान्ति की एक लम्बी प्रक्रिया के बाद ही जड़ से नष्ट हो सकेगा। मेहनतकशों की राजनीतिक मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष में दलित मेहनतकशों की भागीदारी और आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष के साथ सांस्कृतिक-सामाजिक आन्दोलन की अनिवार्य मौजूदगी – जाति प्रश्न के आमूलगामी समाधान की राह यहीं से फूटती है।
(अगले अंक में: भारतीय संविधान की अन्तर्वस्तु और उसके विविध पक्षों का विश्लेषण)
मज़दूर बिगुल, मार्च 2011
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