पूँजीवादी लोकतंत्र में ”बहुमत” की असलियत : महज़ 12 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं देश के नये सांसद
कार्यालय संवाददाता
बार-बार यह साबित हो चुका है कि पूंजीवादी जनतंत्र, पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के सिवाय कुछ नहीं होता। इसमें हर पाँच साल बाद लोकतंत्र का फूहड़-नंगा खेल खेला जाता है, जिसमें यह फैसला होता है कि अगले पाँच साल तक मेहनतकश जनता के शोषण का अधिकार किस दल को मिलेगा और कौन-सा दल मालिकों के हित में तमाम नीतियों-काले कानूनों को लागू करेगा। उस पर तुर्रा यह कि इसे अल्पमत पर बहुमत के शासन के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में, यह बहुमत पर अल्पमत का शासन होता है और पूँजीपति और उनके पत्तलचाटू बुद्धिजीवी, अखबार, नेता-अभिनेता हमारे इसी ”महान लोकतंत्र” की दुहाई देते नहीं थकते।
मतदाताओं को वोट देने के लिए मनाने के तमाम प्रचार के बावजूद देश के आम चुनावों में वोटों का प्रतिशत बढ़ना तो दूर कम ही हो रहा है। इस बार कुल लगभग 59 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाला। वोट किस तरह पड़ते हैं इसे बताने की ज़रूरत नहीं।
ख़ैर, इस बार चुनाव जीतकर संसदीय सुअरबाड़े में पहुँचने वाले सांसदों को औसतन 25.7 प्रतिशत वोट ही मिले, जबकि 1997 में यह प्रतिशत 35.7 था। अब प्रतिशत के बजाय संख्या पर गौर किया जाए, तो देश की करीब 115 करोड़ आबादी में से 71 करोड़ यानी करीब 61 प्रतिशत लोग ही मतदाता हैं। ऐसा नहीं है कि बाकी के 54 करोड़ की आबादी में सभी 18 वर्ष से कम उम्र के हैं। इनमें से कई करोड़ आबादी मेहनतकश जनता के सबसे निचले तबकों की है जिनके पास रहने का कोई स्थायी ठिकाना ही नहीं है तो मतदाता कार्ड कैसे बनेगा। शहरों में रहने वाले करोड़ों मजदूरों तक के कार्ड नहीं बन पाते हैं। इन 71 करोड़ में मतदाताओं में से करीब 42 करोड़ ने इस बार मतदान किया। इन 42 करोड़ में भी केवल 25.7 प्रतिशत मतदाताओं यानी लगभग 10.7 करोड़ के वोट ही जीतने वाले सांसदों को मिले। यानी ये सांसद देश की जनता की कुल आबादी के लगभग 12.3 प्रतिशत के ही प्रतिनिधि हैं लेकिन जनता को बार-बार बताया जाता है कि लोकतंत्र का मतलब होता है बहुमत का शासन। जबकि असलियत यह है कि अगर इस पूँजीवादी चुनाव प्रणाली को ही पैमाना माना जाये तो बहुमत ऐसे लोगों का होता है जो चुनाव जीतने वालों के ख़िलाफ थे। इस बार के आम चुनावों में वोटों का प्रतिशत और गिर गया है। इस बार चुनाव जीतने वाले 145 सांसद तो अपने क्षेत्र के मतदाताओं के 20 प्रतिशत से भी कम वोट से जीतकर संसद पहुँच गये हैं। यानी वे तो मुश्किल से 9-10 प्रतिशत लोगों के ही नुमाइन्दे हैं।
ये ऑंकड़े तो बस इस सच्चाई की पुष्टि करते हैं कि यह पूँजीवादी लोकतंत्र, वास्तव में बहुसंख्यक आबादी पर मुट्ठीभर लोगों का शासन होता है। यह लोकतंत्र नहीं धनतंत्र है। यह 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ लोगों पर, 100 करोड़ आम अवाम पर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही है, जिसमें पूँजीपतियों को लूटने की आज़ादी है, लेकिन मजदूरों को केवल यह चुनने की आज़ादी है कि कौन-सा मालिक उनको लूटेगा। इतना ही नहीं, चुनाव के बाद बनने वाली इस या उस पार्टी की सरकारें तो केवल कुछ नीतियाँ तय करती हैं। सरकार का असली कामकाज तो नौकरशाही सँभालती है जिसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। इसका विकल्प केवल ऐसा सच्चा लोकतंत्र ही हो सकता है, जिसमें उत्पादन और वितरण के साथ ही राजकाज के पूरे ढाँचे पर मेहनतकश जनता का नियंत्रण हो। जिसमें कार्यपालिका और विधायिका अलग-अलग नहीं हों। नीतियाँ बनाने वाले लोगों पर उनको लागू करने की ज़िम्मेदारी हो और वे जनता के प्रति जवाबदेह हों। नीचे से लेकर ऊपर तक शासन के सभी पदाधिकारी लोगों द्वारा चुने जायें और जनता को उन्हें चुनने के साथ ही वापस बुलाने का भी अधिकार हो। ऐसा लोकतंत्र इस पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव ही नहीं है। केवल एक ऐसे सामाजिक ढाँचे में ही यह मुमकिन है जिसका आधार मुनाफा नहीं बल्कि व्यापक जनता का हित हो।
बिगुल, जून 2009
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