जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे ऐवां कांप रहे हैं
साहिर लुधियानवी
जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे ऐवां1 कांप रहे हैं
मज़दूरों के बिगड़े तेवर देख के सुल्तां कांप रहे हैं।
जागे हैं अफलास2 के मारे उठ्ठे हैं बेबस दुखियारे
सीनों में तूफां का तलातुम3 आंखों में बिजली के शरारे।
चौक-चौक पर गली-गली में सुर्ख फरेरे लहराते हैं
मजलूमों के बाग़ी लश्कर सैल-सिफत4 उमड़े आते हैं।
शाही दरबारों के दर से फौजी पहरे खत्म हुए हैं
ज़ाती जागीरों के हक और मोहमल5 दावे खत्म हुए हैं।
शोर मचा है बाजारों में, टूट गए दर जिंदानों6 के
वापस मांग रही है दुनिया ग़सबशुदा7 हक इंसानों के।
रुस्वा बाजारू खातूनें हक़े-निसाई8 मांग रही हैं
सदियों की खामोश जबानें सहर-नवाई9 मांग रही हैं।
रौंदी कुचली आवाजों के शोर से धरती गूंज उठी है
दुनिया के अन्याय नगर में हक की पहली गूंज उठी है।
जमा हुए हैं चौराहों पर आकर भूखे और ग़दाग़र10
एक लपकती आंधी बन कर एक भभकता शोला होकर।
कांधों पर संगीन कुदालें होंठों पर बेबाक तराने
दहकानों के दल निकले हैं अपनी बिगड़ी आप बनाने।
आज पुरानी तदबीरों से आग के शोले थम न सकेंगे
उभरे जज्बे दब न सकेंगे, उखड़े परचम जम न सकेंगे।
राजमहल के दरबानों से ये सरकश तूफां न रुकेगा
चंद किराए के तिनकों से सैले-बेपायां11 न रुकेगा।
कांप रहे हैं जालिम सुल्तां टूट गए दिल जब्बारों12 के
भाग रहे हैं जिल्ले-इलाही मुंह उतरे हैं गद्दारों के।
एक नया सूरज ख्मका है, एक अनोखी ज़ौबारी13 है
खत्म हुई अफरात की शाही14, अब जम्हूर की सालारी15 है।
1. ऐवां – महल 2. अफलास – गरीबी 3. तलातुम – उथल-पुथल 4. सैल-सिफत – सैलाब की तरह 5. मोहमल – बेकार 6. जिंदान – जेल 7. ग़सबशुदा – हड़पे हुए 8. हक़े निसाई – नारी का अधिकार 9. सहरनवाई – सुबह के मीठे गीत 10. गदागर – भिखारी 11. सैले बेपायां – अथाह सैलाब 12. जब्बार – अत्याचारी 13. ज़ौबारी – प्रकाश की वर्षा 14. अफ़रात की शाही – मुठ्ठीभर लोगों की हुकूमत 15. जम्हूर की सालारी – जनता का शासन
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