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कई सारे शहरों में मैंने काम किया है, लेकिन सभी जगह मज़दूरों की हालत एक सी ही है
मेरा नाम मोहम्मद मेहताब है और मैं मुम्बई के मण्डाला की एक स्टील फ़ैक्टरी में काम करने वाला मज़दूर हूँ। जिस फ़ैक्टरी में मैं काम करता हूँ उसमें 25 से 30 लोग काम करते हैं जिनमें 10-12 महिलाएँ हैं। यहाँ पास में ही दो और फ़ैक्टरियाँ भी हैं और तीनों फ़ैक्टरियों में कुल मिलाकर लगभग 350 मज़दूर काम करते हैं जिनमें लगभग 200 महिलाएँ हैं। फ़ैक्टरी में स्टील पोलिशिंग का काम होता है और यह काफ़ी ख़तरनाक है। स्टील लाइन में वैसे भी सारे ही काम बहुत ख़तरनाक हैं और आये दिन फ़ैक्टरियों में दुर्घटना होती रहती है। दुर्घटना होने पर मालिक थोड़ी-बहुत दवा-दारू करवा देता है, लेकिन मुआवज़ा कभी नहीं दिया जाता। दुर्घटना के बाद मालिक मज़दूरों को काम पर भी नहीं रखता है।
यहाँ रोज़ 12-13 घण्टे से कम काम नहीं होता है। जिस दिन लोडिंग-अनलोडिंग का काम रहता है उस दिन तो 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। हफ्ते में 2-3 बार तो लोडिंग-अनलोडिंग भी करनी ही पड़ती है। मुम्बई जैसे शहर में महँगाई को देखते हुए हमें मज़दूरी बहुत ही कम दी जाती है। अगर बिना छुट्टी लिये पूरा महीना हाड़तोड़ काम किया जाये तो भी 8-9 हज़ार रुपये से ज़्यादा नहीं कमा पाते हैं। हम चाहकर भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। यहाँ किसी भी फ़ैक्टरी का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है और श्रम-क़ानूनों के बारे में किसी भी मज़दूर को नहीं पता है। बहुत से मज़दूरों को फ़ैक्टरी के अन्दर ही रहना पड़ता है क्योंकि मुम्बई में सिर पर छत का इन्तज़ाम कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे मज़दूरों का तो और भी ज़्यादा शोषण होता है। हमें शुक्रवार को छुट्टी मिलती है लेकिन उन्हें तो रोज़ ही काम करना पड़ता है।
पहले मैं इलाहाबाद में रहता था और वहाँ पर खाद के कारख़ाने में काम करता था। और भी कई सारे शहरों में मैंने काम किया है, लेकिन सभी जगह मज़दूरों की हालत एक सी ही है। मेरे ख़्याल से हम सभी मज़दूरों को एकजुट हो जाना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। हमें अपनी मजबूत यूनियन बनानी होगी और तभी हम मालिकों से लड़ सकते हैं। पहले से जो बड़ी-बड़ी यूनियनें हैं, वे मज़दूरों के लिए काम नहीं करती हैं। हमें ऐसी यूनियनों से बचना होगा और ख़ुद अपनी क्रान्तिकारी यूनियन बनानी होगी।
मोहम्मद मेहताब, मुम्बई
(2)
कुछ दिन पहले मुझे कुछ लोगों से मज़दूर बिगुल अख़बार मिला जिसको कुछ लड़के-लड़कियाँ मेरी बस्ती में भाषण देकर बेच रहे थे। पढ़कर मुझे लगा कि इसमें हमारे हक़ की बात लिखी है। मैंने उसमें दिये नंबर पर फोन करके बताया कि मेरे कारख़ाने का मालिक मेरे नाजायज़ पैसे काट लेता है, जबरन ओवरटाइम करवाता है और माँगने पर गाली देता है। क्या आप लोग इसमें कोई मदद करेंगे। उधर से कहा गया कि इस तरह से एक-एक मज़दूर को पैसे दिलवाने का काम हम लोग नहीं करते। अगर आप अपने हक़ के लिए लड़ने को तैयार हो तो हम आपके साथ खड़े होंगे और आपको लड़ाई के तरीक़े भी बतायेंगे। लेकिन आपकी लड़ाई का ठेका हम नहीं लेंगे। पहले तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने मन ही मन गाली देकर फोन रख दिया। लेकिन वे लोग अगले महीने मुझे फिर मिले, अब मैं सोचता हूँ कि उनकी बात तो सही है। मैं और मज़दूरों से अब यही बात करता हूँ।
एक मज़दूर, तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र, लखनऊ
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन