साहब! एक बात पूछूँ?
संजू यादव, कलायत, कैथल, हरियाणा
साहब! एक बात पूछूँ?
हाँ-हाँ, पूछो!
देश में भुखमरी क्यूँ है?
अरे बस! इतनी सी बात, जनसंख्या बढ़ रही है
नहीं भई! ये बात हज़म नहीं हुई,
देखो तो गोदामों में, कितना गेहूँ सड़ रहा है।
भैया एक सवाल और…?
हाँ-हाँ पूछो!
लोग नंगे क्यूँ हैं?
अरे जनसंख्या ज़्यादा है,
क्या! समझ में नहीं आया लफड़ा?
नहीं-नहीं भाई, ये बात भी ग़लत,
जाकर देखो तो दुकानों में,
ख़ूब पड़ा है कपड़ा
भैया एक सवाल…?
अरे हाँ-हाँ, पूछो-पूछो
छोटी-मोटी बीमारी से भी,
क्यूँ मर जाते हैं लोग?
भाई साहब! जनसंख्या बढ़ रही है,
क्या! बात समझ नहीं आयी?
ऊँ हूँ, हर साल टनों के हिसाब से,
एक्सपायर होती हैं दवाइयाँ
घबराये से लहजे में…
भैया, मकान भी नहीं हैं,
यार जनसंख्या ज़्यादा है,
कहाँ से आयेंगे इतने बंकर?
मज़ाक़ मत करो भैया,
देश में ख़ूब है,
मिट्टी, रेत, पत्थर, कंकर और बनाने वाले हाथ भी,
थोड़े हौसले से…
क्यूँ नहीं सबको अच्छी शिक्षा?
बरखुद्दार! जनसंख्या बहुत है,
क्या अब ग़रीब भी,
रीस करेंगे नवाबों की?
भाई साहब! एक बात बताऊँ,
देश में कमी नहीं है
शिक्षक और किताबों की
पूरे हौसले से…
क्या ग़रीब मज़दूर,
नहीं छूटेंगे शोषण से?
सब मौजूद! इसके बावजूद!
हर रोज़ हज़ारों बच्चे, भूखे-नंगे,
मरते हैं कुपोषण से,
बस भैया! अब और नहीं।
थी जो ग़लत धारणा की पट्टी,
मेरी आँखों पर
अब वो धीरे-धीरे हट रही है,
अब आया मेरी समझ में
जनसंख्या बढ़ नहीं, घट रही है।
जनसंख्या बढ़ नहीं, घट रही है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015
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