नयी समाजवादी क्रान्ति के तूफान को निमंत्रण दो! सर्वहारा के हिरावलों से अपेक्षा है स्वतंत्र वैज्ञानिक विवेक की और धारा के विरुद्ध तैरने के साहस की!
इतिहास में पहले भी कई बार ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक पटल पर शासक वर्गों के आपसी संघर्ष ही सक्रिय और मुखर दिखते हैं तथा शासक वर्गों और शासित वर्गों के बीच के अन्तरविरोध नेपथ्य के नीम अँधेरे में धकेल दिये जाते हैं। ऐसा तब होता है जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी होती है, ऐतिहासिक प्रगति की शक्तियों पर गतिरोध और विपर्यय की शक्तियाँ हावी होती हैं। हमारा समय विपर्यय और प्रतिक्रिया का ऐसा ही अँधेरा समय है। और यह अँधेरा पहले के ऐसे ही कालखण्डों की तुलना में बहुत अधिक गहरा है, क्योंकि यह श्रम और पूँजी के बीच के विश्व ऐतिहासिक महासमर के दो चक्रों के बीच का ऐसा अन्तराल है, जब पहला चक्र श्रम की शक्तियों के पराजय के साथ समाप्त हुआ है और दूसरा चक्र अभी शुरू नहीं हो सका है। विश्व-पूँजीवाद के ढाँचागत असाध्य संकट, उसकी चरम परजीविता, साम्राज्यवादी लुटेरों की फिर से गहराती प्रतिस्पर्द्धा, पूरी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में साम्राज्यवादी बर्बरता और पूँजीवादी लूट-खसोट के विरुद्ध जनसमुदाय की लगातार बढ़ती नफ़रत और इस कठिन समय में क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व के अभाव के बावजूद दुनिया के किसी न किसी कोने में भड़कते रहने वाले जन संघर्षों का सिलसिला यह स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि आने वाले समय में विश्व पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ा जाने वाला युद्ध निर्णायक होगा। श्रम और पूँजी के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर का अगला चक्र निर्णायक होगा क्योंकि अपनी जड़ता की शक्ति ये जीवित विश्व पूँजीवाद में अब इतनी जीवन शक्ति नहीं बची है कि अक्तूबर क्रान्ति के नये संस्करणों द्वारा पराजित होने के बाद वह फिर विश्वस्तर पर उठ खड़ा हो और दुनिया को विश्वव्यापी विपर्यय का एक और दौर देखना पड़े। इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों के ऊपर पूँजीवाद के पूरे युग को इतिहास की कचरा-पेटी के हवाले करने की जिम्मेदारी है। साथ ही, ये क्रान्तियाँ केवल पाँच सौ वर्षों की आयु वाले पूँजीवाद के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि पाँच हज़ार वर्षों की आयु वाले समूचे वर्ग समाज के विरुद्ध निर्णायक क्रान्तियाँ होंगी, क्योंकि पूँजीवाद के बाद मानव सभ्यता के अगले युग केवल समाजवादी संक्रमण और कम्युनिज़्म के युग ही हो सकते हैं – समाज-विकास की गतिकी का ऐतिहासिक-वैज्ञानिक अध्ययन यही बताता है।
इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि भावी क्रान्तियों को रोकने के लिए विश्व- पूँजीवाद आज अपनी समस्त आत्मिक-भौतिक शक्ति का व्यापकतम, सूक्ष्मतम और कुशलतम इस्तेमाल कर रहा है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि विश्व ऐतिहासिक महासमर के निर्णायक चक्र के पहले, प्रतिक्रिया और विपर्यय का अँधेरा इतना गहरा है और गतिरोध का यह कालखण्ड भी पहले के ऐसे ही कालखण्डों की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पूरी दुनिया में नई सर्वहारा क्रान्तियों की हिरावल शक्तियाँ अभी भी ठहराव और बिखराव की शिकार हैं। यह सबकुछ इसलिए है कि हम युग-परिवर्तन के अबतक के सबसे प्रचण्ड झंझावाती समय की पूर्वबेला में जी रहे हैं।
यह एक ऐसा समय है जब इतिहास का एजेण्डा तय करने की ताक़त शासक वर्गों के हाथों में है। कल इतिहास का एजेण्डा तय करने की कमान सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगी। यह एक ऐसा समय है जब शताब्दियों के समय में चन्द दिनों के काम पूरे होते हैं, यानी इतिहास की गति इतनी मद्धम होती है कि गतिहीनता का आभास होता है। लेकिन इसके बाद एक ऐसा समय आना ही है जब शताब्दियों के काम चन्द दिनों में अंजाम दिये जायेंगे।
लेकिन गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयों को समझने का यह मतलब नहीं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें। हमें अनवरत उद्विग्न आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा। केवल वस्तुगत परिस्थितियों से प्रभावित होना इंकलाबियों की फितरत नहीं। वे मनोगत उपादानों से वस्तुगत सीमाओं को सिकोड़ने-तोड़ने के उद्यम को कभी नहीं छोड़ते। अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नहीं आँका जाना चाहिए। अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक लाइन के निष्कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली क्रान्तिकारी कतारों की शक्ति को लामबन्द कर दिया जाये तो बहुत कम समय में हालात को उलट-पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते हैं। हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है। इसलिए, हमें विचारधारा पर अडिग रहना होगा, नये प्रयोगों के वैज्ञानिक साहस में रत्ती भर कमी नहीं आने देनी होगी, जी-जान से जुटकर पार्टी-निर्माण के काम को अंजाम देना होगा और वर्षों के काम को चन्द दिनों में पूरा करने का जज़्बा, हर हाल में कठिन से कठिन स्थितियों में भी बनाये रखना होगा।
(बिगुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007 अंक में प्रकाशित सम्पादकीय के अंश, अगर आप इस संपादकीय को पूरा पढ़ना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें)
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015
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