समाजवादी रूस और चीन ने नशाख़ोरी का उन्मूलन कैसे किया
तजिन्दर
नशाख़ोरी एक बीमारी के रूप में लम्बे समय से हमारे समाज में मौजूद रही है। आज यह कुष्ठ रोग की तरह एक पूरी पीढ़ी को निगल रही है। पंजाब की लगभग 73.5 प्रतिशत युवा आबादी नशों की आदी है। पंजाब के गाँवों के लगभग 76.47 प्रतिशत लोग हर रोज़ शराब पीते हैं। विश्व सेहत संस्था की रिपोर्ट के अनुसार हर साल संसार में 30 लाख से ज़्यादा लोग शराब के प्रयोग से मर जाते हैं।
नशाख़ोरी को रोकने की कोशिशें समय-समय पर की जाती रही हैं। लेकिन समाज लगातार इस दलदल में गहरे से गहरा धसता चला जा रहा है। अलग-अलग मुल्कों की सरकारें, समाजसेवी संस्थाएँ और मुनाफ़े पर खड़ी मौजूदा व्यवस्था की सेवा में लगे बुद्धिजीवियों द्वारा इस समस्या के हल के लिए इस व्यवस्था में रहते हुए यथा-सम्भव ढंग सुझाया और अपनाया जा चुका है, लेकिन ये सभी तरीक़े असफल रहे हैं।
लेकिन इतिहास में ऐसा सुनहरा दौर भी रहा है जब नशाख़ोरी और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक बीमारियों को पूरी तरह जड़ से मिटा दिया गया था। यह दौर था रूस और चीन का समाजवादी दौर। मानवीय इतिहास का वह समय जब सदियों से लूटे जा रहे सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित हुई। जिसने न सिर्फ़ आर्थिक तरक्की के नये से नये शिखरों को छुआ, बल्कि लूट और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था के द्वारा पैदा की गयी सामाजिक बीमारियों को भी जड़ से उखाड़ फेंका। इस लेख में हम रूस और चीन के समाजवादी समय के दौरान चलायी गयी नशा विरोधी लहर की चर्चा करेंगे, जिससे हम आज इस समस्या के आस-पास सरकारों की दोगली नीति, साम्राज्वादी फ़ण्ड पर चलने वाले एनजीओ और नशे के आदी और बेचने वालों को दिये जा रहे धार्मिक और नैतिक उपदेशों की धुँध को साफ़ कर सकें।
रूस में शराबख़ोरी के खि़लाफ़ लहर
रूस में अक्तूबर 1917 क्रान्ति से पहले और बाद में शराबख़ोरी, वेश्यावृत्ति, औरतों की ख़रीदो-फ़रोख़्त, भ्रूण हत्या आदि विरोधी लहर की चर्चा अमेरिकी पत्रकार डायसन कार्टर की किताब ‘पाप और विज्ञान’ में मिलती है। डायसन कार्टर ने ख़ुद क्रान्ति के बाद रूस में जाकर बदली हुई हालत का अध्ययन किया और साथ ही उस समय अमेरिका और यूरोप में इन समस्याओं के हल के लिए अपनाये जा रहे (असफल) तरीक़ों की भी चर्चा की है। हम अपनी चर्चा शराबख़ोरी के खि़लाफ़ लहर तक ही सीमित रखेंगे।
क्रान्ति से पहले का दौर
अक्तूबर क्रान्ति से पहले रूस में शराब आम जीवन का हिस्सा थी। लगभग सारा रूस ही शराब पीता था। सड़कों पर शराब से लड़खड़ाते हुए लोगों को आम ही देखा जा सकता था। शराबख़ोरी को रोकने की कोशिशों का सिलसिला 1819 में शुरू होता है। ज़ार सरकार ने नशाख़ोरी के खि़लाफ़ जो क़दम उठाये, वे थे:
शराब को सरकारी कण्ट्रोल में रखना: इससे शराब की बिक्री में तो कोई कमी नहीं आयी, लेकिन इससे ज़ार सरकार की आमदनी में ज़रूर इज़ाफ़ा हो गया। यह चलन आठ साल तक क़ायम रहा, इस पर अमल करना मुश्किल होने के कारण इसको दोबारा निजी हाथों में सौंप दिया गया।
शराब पर टैक्स: इसके पीछे ज़ार सरकार का मक़सद था कि आम नागरिकों के लिए शराब महँगी हो जाये, लेकिन इससे मुनाफ़ा ज़रूर आता रहे। इस तरीक़े से भी शराब की बिक्री में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि लोगों ने रोटी पर ख़र्च घटाकर शराब पर करना शुरू कर दिया।
लाइसेंस प्रबन्ध: तीस साल तक रूस में शराबख़ोरी लगातार बढ़ती रही। पादरियों के उपदेशों के बावजूद रूस के लोगों ने शराब पीना जारी रखा। बाद में लाइसेंस प्रबन्ध लागू कर दिया गया, जिससे दुकानों की संख्या घटायी जा सके। बाद के सालों में रूस में शराब की दुकानों की संख्या तो 2,50,500 से 1,15,000 रह गयीं लेकिन इससे शराब की बिक्री और भी बढ़ गयी।
नशा रोकू संगठन: ज़ार सरकार द्वारा नशाख़ोरी को रोकने के लिए जो क़दम उठाये जा रहे थे, उनके पीछे चालक शक्ति रूस के उद्योगपति थे। क्योंकि नशे की हालत में मज़दूर फ़ैक्टरियों में काम करते थे जिससे पैदावार को भारी नुक़सान होता था। दूसरी तरफ़ जागीरदारों के हिमायती ज़ार के चचेरे भाई प्रिंस अलेक्सान्द्र (जो ख़ुद भी एक अमीर जागीरदार था) का मानना था कि नशे की हालत में किसान भी खेती की पैदावार को भारी नुक़सान पहुँचाते थे। इस दिक्कत के चलते वह ज़ार से अलग हो गया और उसने एक नशा रोकू संगठन बनाया। नशाख़ोरी को रोकने के लिए इस संगठन ने जो तरीक़े अपनाये, वे थे:
इस संगठन ने बड़े स्तर पर पार्क, बाग, आरामघरों का प्रबन्ध किया। मनोरंजन केन्द्र, नाटक घर आदि बनाये। ऐसे ज़्यादातर स्थानों पर लोगों का कोई पैसा नहीं ख़र्च होता था। इन स्थानों पर भाषण दिये जाते जिनमें शराब के नुक़सान से सम्बन्धित वैज्ञानिक दलीलें दी जातीं। 1903 तक इस संगठन की सरगर्मियाँ शिखर पर थीं। लेकिन इस सबका जो नतीजा निकला, वह यह था कि लोग मुफ्त में इन स्थानों पर जाते, खाते-पीते, नाटक देखते और बचे हुए पैसों को शराब पर ख़र्च कर देते।
शराब पर मुकम्मल पाबन्दी: नशा विरोधी लहर के शुरू होने से 1914 तक रूस में वोदका की मात्रा 500 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ गयी। स्कूलों में 80 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे वोदका पीते थे। इसी समय एक तरफ़ रूस के पूर्वी मोर्चे पर जंग छिड़ गयी और दूसरी तरफ़ फ़ैक्टरियों और खेतों की पैदावार नीचे गिर रही थी। रूस के फ़ैक्टरी मालिकों ने ज़ार सरकार पर नशाख़ोरी को रोकने के लिए दबाव और बढ़ा दिया। अतः 1916 में ज़ार सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए रातो-रात शराब पर मुकम्मल पाबन्दी लगा दी। शराब बेचने और बनाने के स्थानों को बरबाद कर दिया गया।
इसका निष्कर्ष यह निकला कि 1916 के शुरुआती महीनों में तो लोगों ने शराब को हाथ नहीं लगाया। लेकिन अचानक ही पूरे का पूरा रूस शराब में डूब गया। एक तरफ़ जंग में हो रही मौतें और दूसरी तरफ़ ग़रीबी, बदहाली और भुखमरी। इस सबसे बचने के लिए सभी लोग शराब की तरफ़ भागे। रूस के घर-घर में ग़ैर-क़ानूनी शराब बनायी जाने लगी। लोगों ने अनाज को शराब में तब्दील करना शुरू किया, ताकि इसको बेचकर कुछ पैसे कमाये जा सकें।
हमने ऊपर देखा कि ज़ार सरकार के द्वारा नशाख़ोरी को रोकने के लिए अपनाये गये ढंग-तरीक़ों का नतीजा उल्टा ही निकला। अब हम अक्तूबर 1917 के बाद के सोवियत समाजवादी समय के दौरान अपनाये गये ढंग-तरीक़ों की बात करेंगे, जिससे इन दोनों में फ़र्क़ करते हुए नशाख़ोरी की समस्या की जड़ को समझा जा सके।
क्रान्ति के बाद का दौर
अक्तूबर 1917 क्रान्ति के बाद रूस में मज़दूरों की सत्ता क़ायम हुई। निजी मालिकाने पर आधारित व्यवस्था को ख़त्म करके समाजवादी व्यवस्था को खड़ा किया गया। लेकिन उस समय रूस में अकाल की हालत थी। लोग अनाज को मण्डी में पहुँचाने की जगह शराब बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे। दूसरा इस तरह बनायी जा रही शराब बहुत ज़हरीली थी। सोवियत सरकार के लिए सबसे पहले यह ज़रूरी था कि ज़हरीली शराब की बिक्री को रोका जाये और अनाज की समस्या को हल किया जाये। सोवियत अधिकारियों ने सबसे पहले यह किया कि आलू से शराब बनाना क़ानूनी घोषित कर दिया।
सोवियत सरकार ने अब तक शराबख़ोरी के खि़लाफ़ चली लहरों की मौजूदा रिपोर्टों और जानकारियों का अध्ययन किया। इन तथ्यों की छानबीन के बाद सोवियत अधिकारियों ने शराबख़ोरी की समस्या की जाँच-पड़ताल का काम नये सिरे से अपने हाथ में लिया। इस जाँच-पड़ताल के दौरान यह सामने आया कि रूस में शराबख़ोरी की समस्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के साथ जुड़ी हुई है। लोग शराब की तरफ़ उस समय दौड़ते हैं जब वे अपने आपको ग़रीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी समस्याओं से घिरा हुआ देखते हैं। उनको अपने दुख-तकलीप़फ़ों को भूलने का एक ही हल नज़र आता था – शराब। दूसरा इसको प्रोत्साहन इसलिए दिया जाता था कि सरकार इससे टैक्सों के द्वारा भारी लाभ कमा सके। ज़ार सरकार की कुल आमदनी का चौथा हिस्सा शराब से आता था।
इस पूरी समस्या के साथ निपटने के लिए सोवियत सरकार ने जो ठोस क़दम उठाये वे थे:
घरेलू और ज़हरीली शराब बनाने वालों का सफाया: सोवियत अधिकारियों ने घरेलू शराब बनाने वालों को मण्डी में से बाहर करने के लिए शराब पर से टैक्स हटा दिया और परचून शराब की क़ीमत घटा दी। इसके साथ ही ऐसे तथ्य भी प्रकाशित किये गये, जिनसे पता चलता था कि ज़ार सरकार की शराब के व्यापार में कितनी हिस्सेदारी थी। इससे लोग यह समझ गये कि नयी बनी सोवियत सरकार शराब से लाभ नहीं कमाना चाहती। शराब की क़ीमतों में कमी के कारण लोगों में ख़ुशी की लहर थी। डायसन कार्टर के शब्दों में – “वह दिन ख़ुद-ब-ख़ुद राष्ट्रीय त्योहार का दिन बन गया था। उस दिन लोगों ने जी भर कर नयी, सस्ती, बढ़िया किस्म की वोदका पी। लेकिन इसके साथ ही हुआ यह कि घरेलू और ग़ैरक़ानूनी शराब बनाने वालों का मुकम्मल सफाया हो गया।”
शराब की बिक्री से सम्बन्धित नियम: शराब को सस्ती करने के बाद सोवियत अधिकारियों ने इसकी बिक्री सम्बन्धित कुछ नियम बनाये। ये नियम थे: फ़ैक्टरियों के नजदीक शराब नहीं बेची जायेगी, छुट्टियाँ और तनख़्वाह वाले दिन भी वहाँ शराब नहीं बिकेगी, कोई भी नौजवानों या नशा किये लोगों को शराब बेचेगा तो उसे कड़ी सज़ा दी जायेगी।
शराबख़ोरी के खि़लाफ़ प्रचार मुहिम: रूस के एक कोने से दूसरे कोने तक नशाख़ोरी के खि़लाफ़ प्रचार मुहिम चलायी गयी। शराबख़ोरी के खि़लाफ़ इस नयी वैज्ञानिक लहर के दौरान लोगों को अल्कोहल से सम्बन्धित बड़े स्पष्ट तरीक़े से वैज्ञानिक तथ्य बताये गये। उनको बताया गया कि ज़्यादा शराब पीने से दिमाग़ की नसों को गहरा नुक़सान पहुँचता है। लोगों को बताया गया कि शराब पीना कोई ज़रूरी नहीं। रूस के लोगों तक इन तथ्यों को नाटक-घरों और टेलीविजन जैसे नये-नये तरीक़ों से पहुँचाया गया। यह तथ्य लोगों के लिए सिर्फ़ भाषण मात्र ही नहीं थे। क्योंकि रूस में अब हालात बदल चुके थे। अब रूस के लोगों को पता था कि उनकी अपनी सत्ता क़ायम हो चुकी है और उनके द्वारा की गयी पैदावार जागीरदारों और फ़ैक्टरी मालिकों के मुनाफ़े के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के साझे हितों के लिए हो रही है। इसलिए शरीर पर अल्कोहल के प्रभाव के साथ-साथ लोगों को यह भी बताया गया कि उनके शराब पीने से देश के निर्माण पर क्या प्रभाव पड़ता है। खेतों, कारख़ानों और खानों में काम करने वालों को बताया गया कि शराब पीने से उनके काम पर क्या प्रभाव पड़ता है। लोगों को शराब छोड़ने के लिए न तो कोई नैतिक उपदेश दिये गये और न ही शराब पीने वालों को पापी के रूप में देखा गया। हाँ, उनको समाज को नुक़सान पहुँचाने वालों के रूप में ज़रूर पेश किया जाता था।
सामाजिक दबाव: रूस में ऐसे पियक्कड़ भी थे जिन्होंने वोदका की 9 आने की बोतल के लिए शराबख़ोरी के खि़लाफ़ प्रचार से कान बन्द किये हुए थे। इन पियक्कड़ों के लिए सोवियत अधिकारियों ने अलग विधि को अपनाया। यह विधि थी सामाजिक दबाव। जिन जगहों पर शराबख़ोरी की समस्या गम्भीर थी, उन्हीं जगहों पर शराब-विरोधी केन्द्र क़ायम किये गये। जब भी कोई ऐसा पियक्कड़ मिलता तो उसे इस केन्द्र में पहुँचाया जाता। अच्छी तरह नहलाकर कुछ दिन तक उसकी देखभाल की जाती और फिर उसका नाम, पता और काम की जगह के बारे जानकारी लेने के बाद छोड़ दिया जाता। फिर जहाँ वह काम करता था, वहाँ से मज़दूर सभा को उसकी पूरी रिपोर्ट भेज दी जाती। ऐसे लोगों के साथ निपटने के लिए ख़ास समितियाँ बनायी गयी थीं। जब वह शराबी दोबारा काम पर पहुँचता तो उसे स्वागत कर रहे समिति के लोग मिलते जिनके पास शराब की बोतल के साथ उस शराबी का व्यंग्य चित्र होता। शराबी अगर दोबारा अपनी हरकत दोहराता तो उसकी और भी बेइज़्ज़ती की जाती। कुछ ज़्यादा ही ढीठ शराबियों के खि़लाफ़ सख़्त अनुशासन भी लागू किया जाता।
यह ढंग बहुत कारगर सिद्ध हुआ क्योंकि अब शराबियों पर पूरा सामाजिक दबाव था। उनको डर था कि लोग उसे देश की तरक्की के रास्ते में पत्थर कहेंगे।
खाने-पीने की जगहों पर शराब: सोवियत मनो-विशेषज्ञों के द्वारा सुझाये गये ढंग के आधार पर खाने-पीने की जगहों में शराब का प्रयोग बढ़ाने के लिए एक लहर चलायी गयी। देखने को यह शराब को प्रोत्साहन देने वाला क़दम लगता है, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक कारण थे। एक यह कि लोग उन शराब के अड्डों पर शराब पीना छोड़ दें जहाँ सिर्फ़ शराब ही मिलती थी। क्योंकि ख़ालिस शराब पीना हानिकारक होता है। दूसरा पुराने तजुर्बों से यह साबित हो चुका था कि लोग ग़रीबी के कारण ही शराब की तरफ़ भागते थे। उनको शराब और खाने में से किसी एक को चुनना पड़ता था और वह अक्सर शराब को प्राथमिकता देते थे।
सोवियत सरकार द्वारा बनाये गये नये क़ानून के अन्तर्गत शराब सिर्फ़ ऐसे खाने-पीने के घरों में ही मिलती थी, जहाँ परिवार भोजन करते थे और पूरा घरेलू वातावरण होता था। इससे लोगों के व्यवहार और आदतों में सुधार हुए। लोग अब शराब कम पीते थे, क्योंकि साथ खाना भी खाना होता था। इस ढंग से सोवियत रूस में शराबख़ोरी काफ़ी तेज़ी के साथ घटी।
सोवियत रूस की नशाख़ोरी के खि़लाफ़ लहर से 20 साल बाद के हालात
डायसन कार्टर और उसकी पत्नी सोवियत रूस में शराबख़ोरी से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन करने गये तो उन्होंने शराबख़ोरी के खि़लाफ़ लहर के बाद की हालत को इस तरह बयान किया है –
“हमने देखा कि मेहमान का स्वागत करने के लिए आमतौर पर जो लोग आये होते वह पानी का गिलास या फलों के रस का गिलास हाथ में ले लेते। बाद में जब खाना परोसने वाले अलग-अलग किस्म के पेय पदार्थ लाते तो लोग साफ़ इशारा कर देते कि वह या तो बीयर या हल्की किस्म की शराब लेंगे।”
… “हमने भोजनालयों और छोटे-बड़े होटलों में भोजन किया। इनमें से लगभग आधे में शराब पेश की गयी। हमने तरह-तरह के हज़ारों सोवियत नागरिकों को खाते-पीते देखा। लेकिन, एक बार भी हमने खाना खाते समय या सड़कों पर चलते समय किसी व्यक्ति को नशे में झूलते नहीं देखा।”
…“बीस-तीस साल की उम्र के ज़्यादातर लोग वहाँ किसी ख़ास समय पर ही शराब पीते हैं। बहुत से तो कभी अल्कोहल छूते भी नहीं।”
समाजवादी चीन ने नशाख़ोरी का उन्मूलन कैसे किया?
1949 की क्रान्ति से पहले चीन के लोग ग़रीबी, बदहाली में अपनी ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे थे। मुट्ठीभर जागीरदारों, जंगी सरदारों और उपनिवेशवादियों द्वारा चीन के लोगों को बुरी तरह लूटा जाता था। क्रान्ति से पहले नशाख़ोरी की हालत यह थी कि 7 करोड़ लोग अफ़ीम, मौर्फ़िन और हेरोइन के आदी थे। भूखे ग़रीब लोग अपनी दुख-तकलीफ़ों से निजात पाने के लिए अफ़ीम का सहारा लेते थे। दूसरी ओर अमीर और जागीरदार अपना ख़ाली समय बिताने के लिए नशा करते थे। हालत यह थी कि नशे को छोटी-छोटी बोतलों में भरकर शहर में हर नुक्कड़ पर आईसक्रीम की तरह बेचा जाता था। इस सबका नतीजा यह था कि लोग नशे के लिए अपने बच्चों तक को बेच रहे थे, महिलाओं को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर किया जाता था।
चीन में नशाख़ोरी कैसे शुरू हुई
चीन पर नशा यूरोप और अमेरिका के उपनिवेशवादियों द्वारा थोपा गया था। ब्रिटेन की सरकार के द्वारा तो चीन को अफ़ीम का निर्यात जबरन कबूलने और चीन में अफ़ीम को क़ानूनी करने के लिए 1839 में जंग भी थोपी गयी, जिसे प्रसिद्ध ‘अफ़ीम जंग’ के नाम से भी जाना जाता है। ब्रिटेन की तरफ़ से बड़े स्तर पर चीन में अफ़ीम का निर्यात किया गया जिससे चीन में से पूँजी को बाहर निकाला जा सके। चीन के लोगों को अफ़ीम का आदी बनाया गया, जिससे अफ़ीम से पैदा हुए मुनाफ़े को दोबारा चीन के लोगों को गुलाम करने के लिए इस्तेमाल किया जा सके। यह उस तरह ही था जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति रीगन काल के दौरान सीआईए के द्वारा कई टन कोकीन अमेरिका में लायी गयी। अमेरिका की ग़रीब बेरोज़गार आबादी, जिसके लिए जीते रहने और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, कोकीन की बाढ़ में बह चले। बाद में अमेरिकी सरकार ने ‘नशे के खि़लाफ़ जंग’ के नाम पर इन लोगों, ख़ासतौर पर काले लोगों पर अत्याचार का कहर बरपाना शुरू कर दिया जिसको ‘क्रैक कोकीन महामारी’ भी कहा जाता है। दूसरी ओर अमेरिकी सरकार कोकीन से हो रहे मुनाफ़े को निकारागुआ की साम्यवादी सरकार के खि़लाफ़ गुप्त जंग को आर्थिक मदद देने के लिए इस्तेमाल कर रही थी।
ऊपर दिये गये तथ्यों से यह सत्य भी दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि मौजूदा व्यवस्था नशाख़ोरी को ख़त्म नहीं कर सकती।
चीन में नशाख़ोरी के खि़लाफ़ लहर
चीन में नशे की पैदावार, बिक्री और प्रयोग को रोकने के लिए जनता की भागीदारी की विधि को अपनाया गया। नशे के आदी लोगों को नशा छोड़ने के लिए प्रेरित किया गया। नशा छोड़ चुके लोगों, उनके परिवार वालों, स्कूल के बच्चों और अख़बार, रेडियो इन सबको नशा-विरोधी लहर के लिए एकजुट किया गया।
दूसरी ओर क्रान्तिकारियों के द्वारा लोगों को नशे का व्यापार ख़त्म करने के लिए संगठित किया गया जिससे इसकी पूर्ति घटायी जा सके। नशे की पूर्ति घटने से इसके आदी लोगों के लिए हमेशा नशे में रहना मुश्किल हो गया। नशाख़ोरी के खि़लाफ़ चली इस लहर में, जिसमें हर वर्ग के लोगों की सक्रिय भूमिका थी, वे पुरानी व्यवस्था द्वारा पैदा की गयी बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए एकजुट हो गये थे। नशाख़ोरी के खि़लाफ़ इस संघर्ष ने एक लोक लहर का रूप धारण लिया था।
चीन की सरकार ने नशाख़ोरी से निपटने के लिए दो तरह की नीति अपनायी: लोगों को बताया गया कि नशे के आदी पुरानी लूट पर आधारित व्यवस्था के शिकार हैं, इसलिए उनकी नशे के जाल में से निकलने में मदद की जाये। नशा बेचने के धन्धे में लगे ग़रीब लोगों को भी इस व्यापार में से निकलने के लिए बेहतर बदलाव दिया गया और नशा-विरोधी लहर में शामिल होने के लिए प्रेरित किया गया। किसी भी व्यक्ति से नशा छुड़ाने के लिए न तो ज़बरदस्ती की गयी और न ही सज़ा दी गयी। लोगों को नशा छोड़ने के लिए पूरा समय दिया। नशा छोड़ने के लिए उसे परिवार के साथ-साथ पूरे समूह का सहयोग मिलता था।
नशा बेचने वाले बड़े व्यापारी, जो लोगों की दुख-तकलीफ़ों से लाभ कमा-कमाकर अमीर बन रहे थे,के लिए क्रान्तिकारियों के द्वारा अलग नीति अपनायी गयी। उनको ‘लोगों के दुश्मन’ की सूची में रखा गया। उनको हज़ारों उन लोगों के सामने पेश किया गया जिन लोगों की ज़िन्दगी ऐसे लोगों ने तबाह की थी। ज़्यादातर अपराधियों को उम्र कैद की सज़ा दी गयी और कुछ ऐसे अपराधी जिनके अपराध माफ़ी योग्य नहीं थे, को मौत की सज़ा दी गयी।
1951 आते-आते उत्तरी चीन में नशाख़ोरी पूरी तरह ख़त्म कर दी गयी। दक्षिणी चीन में इस पर क़ाबू पाने में लगभग एक या दो साल का समय और लगा।
1953 में रूस में स्तालिन और 1976 में चीन में माओ की मौत के बाद पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी। लूट पर आधारित व्यवस्था फिर से क़ायम हो गयी। इसके साथ ही यह व्यवस्था नशाख़ोरी जैसी अपनी, पुरानी बीमारियों को भी ले आयी। लेकिन रूस और चीन के समाजवादी दौर के तजुर्बों ने यह साबित किया कि यदि मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था को ख़त्म करके क्रान्तिकारी ढाँचा खड़ा किया जाये जिसके केन्द्र में मानव हो, न कि लाभ तो लोगों की ताक़त को आर्थिक बुलन्दियों को छूते हुए एक सेहतमन्द समाज का सृजन करने की तरफ़ मोड़ा जा सकता है।
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