Table of Contents
लाइलाज मर्ज़ से पीड़ित पूँजीवाद को अज़ीम प्रेमजी की ख़ैरात की घुट्टी
अखिल
हाल ही में देश की शीर्ष आईटी कम्पनी विप्रो के चेयरमैन अज़ीम प्रेमजी द्वारा अपनी आधी सम्पत्ति दान किये जाने को लेकर पूरा पूँजीवादी मीडिया उन्हें वर्तमान युग के “दानवीर कर्ण” के रूप में पेश कर रहा है। विप्रो में 73.39 फ़ीसद (99,500 करोड़ रुपये) के हिस्सेदार अज़ीम प्रेमजी ने कम्पनी में अपने 39 फ़ीसद हिस्से को दान करने की घोषणा की है। उनके इस क़दम ने पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक संकट से उबरने की नाकाम कोशिश कर रहे पूँजीपति वर्ग के उदास चेहरे पर भीनी मुस्कान ला दी है। यही नहीं, इस बाबत पूँजीवादी मीडिया द्वारा किये जा रहे प्रचार से आम मध्यवर्ग तथा मज़दूरवर्ग का पढ़ा-लिखा हिस्सा भी प्रभावित हो रहा है। मध्यवर्ग (ख़ासकर युवा) तो जैसे इस “दयालु-कृपालु” धनपशु की पूजा-आराधना में ही लग गया है। भारत के “बिल गेट्स” कहे जाने वाले अज़ीम प्रेमजी की “सादगी” (बाक़ी पूँजीपतियों से तुलना में) तथा “दयालुता” पर वह इस क़दर अभिभूत है कि अज़ीम प्रेमजी को अपने “रोल मॉडल” (प्रेरणास्रोत) के रूप में देख रहा है। लेकिन क्या दान देना पूँजीपतियों के लिए कोई नयी बात है? आइये देखें, सन् 1848 में लिखी गयी महान रचना “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” में कार्ल मार्क्स इस बाबत क्या कहते हैं:
मार्क्स लिखते हैं कि पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा हमेशा धर्मार्थ और सुधार के कामों में लगा रहता है। इससे जनता का पूँजीवाद के प्रति भ्रम बरकरार रहता है और पूँजीवाद की उम्र बढ़ती है। इससे पूँजीवादी समाज में ग़रीबी और बदहाली का उन्मूलन नहीं होता, समानता और न्याय की स्थापना नहीं होती। बल्कि शोषक और अन्यायी व्यवस्था के क़ायम रहने की ज़मीन तैयार होती है।
इस आधार पर पूँजीपतियों को मौटे तौर पर दो धड़ों में विभाजित किया जा सकता है। पहले धड़े में वे पूँजीपति हैं जिन्हें अपनी नाक के आगे कुछ नज़र नहीं आता। अपने व्यक्तिगत हित इनके लिए सर्वोपरि हैं। ये पूँजीपति नितान्त अदूरदर्शी हैं क्योंकि वे अपने तात्कालिक हितों की प्राप्ति को तरजीह देते हैं। पूँजीपतियों का बहुसंख्य इसी धड़े में ही आता है। भारत के सन्दर्भ में देखें तो अम्बानी, सहारा, माल्या आदि इसी श्रेणी में आते हैं। जनता में भी इनके बारे में कोई भ्रम नहीं है, बल्कि वह इन्हें नफ़रत भरी दृष्टि से ही देखती है। दूसरा धड़ा उन पूँजीपतियों का है जो अपने व्यक्तिगत हितों की चिन्ता करते हुए, उन्हें लूट का अधिकार प्रदान करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा के लिए भी तत्पर रहते हैं। अपनी लूट की कमाई का एक हिस्सा ख़ैरात में बाँट वे पूँजीवादी व्यवस्था के “मानवीय पहलू” (जो वास्तव में है ही नहीं) को उजागर करने की कोशिश करते हैं। ये पूँजीपति इस मायने में अधिक ख़तरनाक होते हैं कि इनके धर्म-कर्म के कामों की वजह से आम जनता की इनके बारे में अच्छी राय होती है। और इनके द्वारा किये जाने वाले धर्म-कर्म के कामों का मक़सद भी यही होता है। आर्थिक संकटों के दौर में जब जनता पूँजीवादी व्यवस्था से पूरी तरह निराश-हताश होकर नये विकल्प के बारे में सोचना शुरू करती है तो यह पूँजीपति जनता में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति झूठी उम्मीद जगाते हैं। भारत के सन्दर्भ में टाटा, अज़ीम प्रेमजी और नारायण मूर्ति इस धड़े के बड़े नाम हैं। 2010 में विश्व के सबसे बड़े धनपशुओं बिल गेट्स और वॉरेन बफ़ेट द्वारा शुरू किये गये अभियान “गिविंग प्लेज” यानी “दान देने की सौगन्ध” पर हस्ताक्षर करने वाले पहले भारतीय पूँजीपति अज़ीम प्रेमजी ही थे।
लेकिन क्या अज़ीम प्रेमजी की इस “दयालुता” का अर्थ यह निकाला जाये कि वे अपनी कम्पनी में काम करने वाले कर्मचारियों के शोषण में भी रियायत बरतते होंगे? बिल्कुल नहीं। इसका पता इसी बात से लग जाता है कि जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी के भूतपूर्व सीईओ तथा अपने कर्मचारियों पर निरंकुश प्रबन्धन की पद्धति लागू करके उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ने के लिए कुख्यात जैक वेल्च कोवे अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं। भारत में जैक वेल्च की इस पद्धति को सबसे पहले लागू करने वाली कम्पनी भी “दानवीर” अज़ीम प्रेमजी की विप्रो ही थी। और उनकी इस “दानवीर” वाली छवि की पोल 2013 में ऑक्सफाम द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट पर उनकी एक टिप्पणी से ही खुल जाती है। यह रिपोर्ट अमीरी-ग़रीबी के बीच में बढ़ती खाई की एक डरावनी तस्वीर पेश कर रही थी। इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए प्रेमजी ने कहा था कि समाजवादी ताक़तों को हावी होने से रोकने के लिए भारत के सर्वाधिक अमीर पूँजीपतियों को अधिक से अधिक दान देना चाहिए। इस टिप्पणी में जनान्दोलनों के प्रति उनका खौफ़ साफ़ नज़र आ रहा है।
दूसरा, क्या अज़ीम प्रेमजी ने अपनी आधी सम्पत्ति सचमुच लोगों में बाँट दी है या उन्होंने यह सम्पत्ति कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखने के मक़सद से सरकार को दे दी है? नहीं, उन्होंने यह सम्पत्ति अपनी संस्थाओं “अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन” और “अज़ीम प्रेमजी फ़िलैन्थ्रोपिक इनिशियेटिव्ज़” को स्थानान्तरित की है। “अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन” पिछले दस साल से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही है। लगभग 8 राज्यों में इस संस्था ने अज़ीम प्रेमजी के नाम पर स्कूल तथा विश्वविद्यालय खोले हैं। बाक़ी स्वयंसेवी संस्थाओं की ही तरह यह भी शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने का काम करती है। जनता में यह भ्रम फैलाने का काम करती है कि इनकी ख़ैरात के दम पर शिक्षा की समस्या दूर हो जायेगी, जबकि असलियत में इनकी ख़ैरात से बहुत कम बच्चों को ही लाभ पहुँचता है। हाँ, “निशुल्क एवं समान शिक्षा” की माँग के इर्द-गिर्द संगठित होने से जनता का ध्यान ज़रूर भटक जाता है। ऐसी संस्थाओं द्वारा खोले गये विश्वविद्यालय तो और भी ख़तरनाक काम करते हैं। अमेरिका की कारनेगी, फ़ोर्ड, रोकफ़ेलर, बिल गेट्स मेलिण्डा आदि फ़ाउण्डेशनों की तर्ज पर “अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन” के विश्वविद्यालय भी पूँजीपति वर्ग के “थिंक टैंक” पैदा करने की मशीनरी के तौर पर काम करते हैं। जो सरकारों को पूँजीवादी व्यवस्था पर मँडरा रहे ख़तरों के बारे में पहले से आगाह करने का काम करते हैं तथा सरकारों द्वारा लोक-नीतियों के निर्माण के लिए गठित कमेटियों में घुसकर पूँजीपति वर्ग के हित में नीतियाँ गढ़ने में सरकार की मदद करते हैं।
अज़ीम प्रेमजी की दूसरी संस्था “अज़ीम प्रेमजी फ़िलैन्थ्रोपिक इनिशियेटिव्ज़” शिक्षा के अलावा अन्य क्षेत्रों में अपना आधार बनाने के चलते बनायी गयी है। यह संस्था इन क्षेत्रों में काम कर रहीं स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान देने का काम करती है। अपने आधार को विस्तारित करने की सनक पूरी करने के चलते अज़ीम प्रेमजी ने अप्रैल, 2015 में आरएसएस से सम्बद्ध संस्था राष्ट्रीय सेवा संगम के कार्यक्रम में जाने से भी गुरेज़ नहीं किया था। राष्ट्रीय सेवा संगम नाम की इस संस्था के अन्तर्गत 500 स्वयंसेवी संस्थाएँ आती हैं। और संघ से जुड़ी यह संस्था किस मक़सद से धर्म-कर्म का काम करती है इसके बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है। संघ की ये संस्थाएँ जनता में अन्धविश्वास, अतार्किकता, साम्प्रदायिकता फैलाने का ही काम करती हैं। इसके लिए संघ से सम्बद्ध “भारत विकास परिषद” नाम की स्वयंसेवी संस्था द्वारा बच्चों के बीच चलायी जा रही सवाल-जवाब प्रतियोगिता “भारत को जानो” का उदाहरण ही काफ़ी है। इस प्रतियोगिता के ज़रिये यह संस्था मिथकों से जुड़े सवाल पूछकर उन्हें इतिहास के रूप में स्थापित करने का काम कर रही है। लेकिन अज़ीम प्रेमजी को इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि आरएसएस की विचारधारा क्या है, उन्हें तो बस पूँजीवादी हितों की पूर्ति से मतलब है।
देखा जाये तो मोदी सरकार ने आम बजट में कल्याणकारी नीतियों के मद में भारी कटौती (75,000 करोड़ रुपये) की है। अज़ीम प्रेमजी को जनता से अगर इतना ही प्यार होता तो वे मोदी सरकार पर यह कटौती न करने के लिए दबाव बना सकते थे। मोदी सरकार ने अब तक के अपने कार्यकाल में जितने जनविरोधी क़दम उठाये हैं उनके विरुद्ध आवाज़़ उठा सकते थे। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अज़ीम प्रेमजी एक पूँजीपति हैं और वह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी तथा उनके भाई-बन्धुओं की कमाई मज़दूरों के शोषण पर टिकी है। और लूट की कमाई खाने की उनकी आदत ने दुनिया की मेहनतकश आबादी को बदहाल कर दिया है। यही वजह है कि दुनियाभर में मज़दूरों के स्वयंस्फूर्त संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हीं बदलते हालातों से भयभीत अज़ीम प्रेमजी तथा उनके जैसे अन्य पूँजीपति ख़ैरात बाँटने में लग गये हैं। लेकिन वे ख़ुद भी इस भ्रम के शिकार हैं कि उनकी ख़ैरात पूँजीवाद को चिरजीवी बना सकती है।
आम कर्मचारियों एवं धनपशुओं की तनख़्वाहों में ज़मीन-आसमान का अन्तर
ग़ौरतलब है कि कम्पनियों के मालिकों और उँचे अधिकारियों के पास मालिकाने हक़ के रूप में कम्पनियों के शेयर तो रहते ही हैं, उसके अलावा वे कम्पनी के पदाधिकारी की हैसियत से मोटी रक़म तनख़्वाह के रूप में वसूलते हैं। हालाँकि ये तनख़्वाहें इन धनपशुओं की आय का मुख्य स्रोत नहीं होती हैं लेकिन फिर भी कर्मचारियों की तनख़्वाहों का उनकी तनख़्वाह से तुलना करना दिलचस्प होगा। अभी कुछ समय पहले तक उनकी तनख़्वाहें सार्वजनिक नहीं की जाती थीं। लेकिन नये कम्पनी कानून और सेबी के ताज़ा कार्पोरेट गवर्नेंस कोड आने के बाद से कई कम्पनियों ने शीर्ष प्रबन्धन की तनख़्वाहें सार्वजनिक की हैं जो आँखें खोलने वाली हैं। भारत के सबसे बड़े रईस मुकेश अम्बानी की तनख़्वाह रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ में काम कर रहे कर्मचारियों की औसत आय से 205 गुना अधिक है। आईटीसी कम्पनी के कार्यकारी अध्यक्ष वाई सी देवेश्वर के मामले में तो यह अनुपात 439 गुना है। विप्रो के अज़ीम प्रेमजी के मामले में यह अनुपात 89 गुना, एचडीएफ़सी के आदित्य पुरी के मामले में यह 117 गुना, इन्फोसिस के सीईओ विशाल सिक्का के मामले में यह 116 गुना है। इसके अलावा इन खुलासों में यह भी सामने आया है कि अधिकांश कम्पनियों में शीर्ष प्रबन्धन की तनख़्वाहें औसत कर्मचारी की तनख़्वाह के मुक़ाबले कहीं अधिक तेज़़ी से बढ़ी हैं। दूसरी तरफ़ आम कर्मचारियों और मज़दूरों की वास्तविक तनख्वाहों में लगातार गिरावट आ रही है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि उद्योगों में कुल पूँजी निवेश के अनुपात में वेतन, चिकित्सा, मुआवजा आदि के रूप में मजदूरों को मिलने वाले धन में गिरावट लगातार जारी है। एक अधययन के अनुसार उद्योगों में कुल उत्पादन-व्यय में मज़दूरी का हिस्सा वर्ष 1990-91 की तुलना में वर्ष 2000-01 में घटकर आधा रह गया था। इसमें गिरावट लगातार जारी है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन