सावधान, सरकार आपके हर फ़ोन, मैसेज, ईमेल, नेट ब्राउिज़ंग की जासूसी कर रही है!

सत्यम

“बेशक यह जानने का कोई तरीका नहीं था कि किसी निश्चित क्षण में आप पर नज़र रखी जा रही है या नहीं। विचार पुलिस कितने-कितने समय पर, या किस प्रणाली पर, किसी व्यक्ति की निगरानी करती थी इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता था। यह भी हो सकता था कि वे हर समय हर किसी पर नजर रखते थे। लेकिन यह तो पक्का था कि वे जब चाहें तब आपकी निगरानी शुरू कर सकते थे। आपको यह मानते हुए जीना और मरना था कि आपकी हर आवाज़ सुनी जा रही है, और अँधेरे के सिवा, हर हरकत पर नज़र रखी जा रही है।”

NSA-Big-Brother-is-Watching-You1अंग्रेज़ लेखक जॉर्ज ऑरवेल की इन पंक्तियों को समाजवादी राज्यों के कथित सर्वसत्तावाद पर चोट करने के लिए बार-बार उद्धृत किया जाता रहा है। मगर सच तो यह है कि ये पंक्तियाँ आज की पूँजीवादी दुनिया की सच्चाई को बयान करती हैं। ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में “बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू” की जो तस्वीर पेश की थी वह आज पूँजीवादी देशों पर पूरी तरह लागू होती है। पूरी दुनिया के ‘बिग ब्रदर’ बनने की कोशिश करते अमेरिका ही नहीं, यूरोप के ज़्यादातर मुल्कों में भी सरकारें बुर्जुआ ‘प्राइवेसी’ के तमाम उसूलों को धता बताते हुए अपने नागरिकों के निजी जीवन में ताक-झाँक और दखलंदाज़ी करती रहती हैं। आम धारणा के ठीक उलट हकीकत यह है कि पश्चिम के पूँजीवादी देशों में निजी ज़िन्दगी में राज्य का दखल बढ़ता गया है। एक-एक नागरिक का पूरा रिकार्ड सरकारी एजेंसियों के पास होता है और उनकी गतिविधियों पर राज्य हर समय नज़र रखे रहता है। यह सारा कुछ कहने को तो नागरिकों की सुरक्षा के नाम पर होता है लेकिन इसका पहला शिकार नागरिक स्वतंत्रताएँ ही होती हैं। किसी भी तरह की व्यवस्था विरोधी गतिविधियाँ, रैडिकल विचार रखने वाले लोग, परिवर्तनवादी राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी विशेष रूप से इनके निशाने पर होते हैं। अमेरिका में 11 सितंबर 2001 के हमले के बाद आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर तो सभी देशों की सरकारों को मानो नागरिक स्वतंत्रताओं में जब-जैसे चाहे कतर-ब्योंत करने का लायसेंस मिल गया। अमेरिका में कुख्यात पैट्रियट ऐक्ट के तहत बुकस्टोर्स को ऐसे निर्देश दिये गये थे कि वे ख़ास तरह की किताबें और पत्रिकाएँ ख़रीदने वालों की रिपोर्ट दें। अमेरिकी संघीय खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई को किसी भी नागरिक की तलाशी लेने और आपराधिक मंशा का कोई साक्ष्य दिये बिना उसकी सभी गतिविधियों का ब्योरा और उस्तावेज़ हासिल करने के लगभग असीमित अधिकार दे दिये गये हैं।

भारतीय शासक अपने नागरिकों की जासूसी करने के मामले में अमेरिकी प्रशासन के काफ़ी मुरीद रहे हैं और अमेरिकी एजेंसियाँ इस मामले में उनकी मदद भी करती रही हैं। चाहे फोन टैपिंग का मामला हो या कुछ साल पहले पंजाब में बुकसेलर्स को ख़रीदारों की जासूसी करने के निर्देश देने की घटना हो।

लेकिन भारत सरकार सेंट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम (सी.एम.एस.) के ज़रिये जो तैयारी कर रही है उसने देश के नागरिकों की एक-एक निजी गतिविधि पर नज़र रखने के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। सी.एम.एस. के तहत देश में टेलिफोन और इंटरनेट से होने वाले समस्त संचार का सरकार और इसकी एजेंसियों द्वारा विश्लेषण किया जायेगा। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह है कि हम फोन पर जो भी बात करेंगे या मैसेज भेजेंगे, या इंटरनेट पर हम जो भी ईमेल, फेसबुक पोस्ट, ब्लॉग आदि लिखेंगे या जो भी वेबसाइट देखेंगे उसे सरकार की केन्द्रीय निगरानी प्रणाली द्वारा देखा और सुना जायेगा।

यूपीए सरकार द्वारा स्थापित सी.एम.एस. कुछ राज्यों में काम करना शुरू कर चुका है और मोदी सरकार इसे जल्द से जल्द देश भर में लागू करने के लिए काम कर रही है। टेलिकॉम एन्फोर्समेंट, रिसोर्स एंड मॉनिटरिंग (ट्रेम) और सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलिमेटिक्स (सी.डॉट) ने सी.एम.एस. का ढाँचा तैयार किया है और इसका संचालन इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को सौंपा गया है। सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन क़ानून 2008 के द्वारा सरकार ई-जासूसी का अधिकार अपनी एजेंसियों को दे चुकी है और सी.एम.एस. के तहत केन्द्रीय तथा क्षेत्रीय डेटाबेस बनाये जायेंगे जो केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों को सूचनाओं के इंटरसेप्शन तथा निगरानी में मदद करेंगे। अब टेलिकॉम कम्पनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं की मदद लिये बिना ही सरकारी एजेंसियाँ किसी भी नंबर या ईमेल खाते की सारी जानकारी सीधे हासिल कर सकती हैं।

सी.एम.एस. की शुरुआती लागत लगभग 400 करोड़ बतायी गयी थी जो अब बढ़कर 1000 करोड़ पार कर चुकी है। यह टेलिफोन कॉल इंटरसेप्शन सिस्टम (टीसीआईएस) से भी जुड़ा होगा जो वॉयस कॉल, एसएमएस-एमएमएस, फैक्स, सीडीएमए, वीडियो कॉल, जीएसएम और 3जी नेटवर्कों की निगरानी करने में मदद करेगा। जिन एजेंसियों की सी.एम.एस. तक सीधी पहुँच होगी उनमें रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ), केन्द्रीय खुफिया ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए), केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय समेत कुल नौ एजेंसियाँ शामिल हैं। इसके अलावा, रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ‘नेत्र’ नाम से एक और ख़ुफ़िया तंत्र विकसित कर रहा है जो मुख्यतः इंटरनेट की जासूसी करेगा। इसके बारे में कोई भी ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया गया है।

दरअसल, भारतीय राज्य द्वारा नागरिकों की जासूसी कोई नयी बात नहीं है। किसी भी प्रकार की जनपक्षधर राजनीति से जुड़े लोग जानते हैं कि उनकी चिट्ठियों को खोलकर पढ़ा जाता है, टेलिफोन सुने और रिकॉर्ड किये जाते हैं, उनके घरों-दफ्तरों पर निगरानी रखी जाती है, पीछा किया जाता है। अंग्रेज़ों के बनाये तमाम क़ानूनों की तरह भारत सरकार ने 1885 के इंडियन टेलिग्राफ़ ऐक्ट के उस प्रावधान को भी बनाये रखा है जिसके तहत किसी भी नागरिक के टेलिग्राम या टेलिफोन को टैप किया जा सकता था। पीयूसीएल की एक याचिका के बाद उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर 1999 में सरकार ने इस क़ानून में सुधार कर कुछ बन्दिशें जोड़ीं लेकिन उनका कोई ख़ास मतलब नहीं है। अमेरिका में फोन टैप करने का आदेश केवल एक जज दे सकता है और वह भी तब जब उसे यह भरोसा हो जाये कि राज्य के पास ऐसा करने के लिए क़ानूनी आधार मौजूद है। जबकि भारत में कोई भी नौकरशाह या पुलिस अधिकारी इसका आदेश दे सकता है। इंग्लैण्ड में भी फोन टैप करने का आदेश नौकरशाहों को है लेकिन इसकी समीक्षा एक स्वतंत्र ऑडिटर और एक न्यायिक ट्रिब्यूनल द्वारा की जाती है। भारत में ऐसे आदेश की समीक्षा भी दूसरे नौकरशाहों यानी आदेश देने वाले अफसर के समकक्षों द्वारा ही की जाती है। दुनिया के दूसरे देशों में गम्भीर अपराधों या सुरक्षा को गम्भीर ख़तरे की स्थिति में भी ऐसे आदेश देने का प्रावधान है, जबकि भारत में आयकर विभाग भी फोन टैप करवा सकता है। ज़मीनी सच्चाई तो यह है कि एक थानेदार भी आपके फोन टैप करवा सकता है। हालाँकि, बढ़ते सामाजिक असन्तोष और पूँजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट के चलते पश्चिम के देशों में भी लम्बे संघर्षों से हासिल किये गये नागरिक अधिकार लगातार छीने जा रहे हैं और इसीलिए वहाँ भी ऐसे खुफ़िया तंत्र विकसित किये गये हैं जो इन क़ानूनी बन्दिशों से किनारा करके बेरोकटोक नागरिकों की जासूसी कर सकें। भारत में तो नागरिक स्वतंत्रताएँ पहले ही बहुत कम हैं और यहाँ नागरिक अधिकार आन्दोलन भी बेहद कमज़ोर है। ऐसे में सी.एम.एस. जैसे खुफ़िया तंत्र के विरुद्ध कोई प्रभावी आवाज़ तक नहीं उठ रही है।

सी.एम.एस. के पूरी तरह सक्रिय होने के बाद क्या होगा इसका अनुमान लगाने के लिए मुम्बई पुलिस द्वारा पिछले साल शुरू किये गये ‘सोशल मीडिया हब’ के काम से लगाया जा सकता है। इस सेंटर में 20 पुलिस अफसर तैनात हैं जो फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल नटवर्किंग साइटों पर नज़र रखते हैं। पुलिस प्रवक्ता सत्यनारायण चौधरी के मुताबिक ये अधिकारी ख़ास तौर पर इस बात पर नज़र रखेंगे कि नौजवानों के बीच आजकल किन मुद्दों पर चर्चाएँ चल रही हैं और उनका मूड क्या है और इसी के अनुसार क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के इन्तज़ाम किये जायेंगे। कहने की ज़रूरत नहीं कि सभी परिवर्तनकामी आन्दोलनों और जनसंगठनों पर इसकी विशेष निगाह रहेगी और राजनीतिक बहसों तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए इसका इस्तेमाल किया जायेगा। राजधानी दिल्ली में हाल में कई ऐसे धरना-प्रदर्शन हुए जिनकी एकाध दिन पहले योजना बनायी गयी और केवल फोन या फेसबुक के ज़रिये भाग लेने वालों को इसकी सूचना दी गयी, मगर सूचना न देने के बावजूद पुलिस की स्पेशल ब्रांच से उनके पास कार्यक्रम की जानकारी लेने के लिए फोन आने शुरू हो गये। ज़ाहिर है कि दिल्ली पुलिस बिना घोषणा के ही सोशल मीडिया की निगरानी शुरू कर चुकी है। बाल ठाकरे की मौत के बाद मुम्बई को ठप कर देने की आलोचना करने वाली एक फेसबुक पोस्ट के कारण ठाणे की दो युवतियों की गिरफ्तारी आने वाले दिनों का एक संकेत है।

प्रौद्योगिकी की बढ़ती ताकत ने सत्ता के लिए समाज की हर गतिविधि पर नज़र रखना और भी आसान कर दिया है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी दैत्याकार कंपनियाँ इंटरनेट पर लोगों की हर गतिविधि का ब्योरा जुटाने और एक-एक नेट प्रयोक्ता की प्रोफ़ाइल तैयार करने में लगी हुई हैं जिनका इस्तेमाल कारोबार से लेकर विचारों के नियंत्रण और दमन तक किया जा सकता है।

survellianceकुछ वर्ष पहले यूरोपीय संसद की एक जाँच समिति ने एक वर्ष की जाँच-पड़ताल के बाद इस बात की पुष्टि की थी कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश लम्बे समय से दुनिया भर में ई-मेल, फैक्स और फोन सन्देशों को चोरी-छिपे पढ़ते और सुनते रहे हैं। ‘एकेलॉन’ नामक यह अति गोपनीय विश्वव्यापी जासूसी तंत्र कई दशकों से इस हरकत में लगा हुआ है। इसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड शामिल हैं। इस भण्डाफोड़ के बाद भी अमेरिका बेशर्मी के साथ झूठ बोलता रहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर 11 सितंबर की घटना हुई और इस मामले पर सभी ने चुप्पी साध ली। मगर यह तंत्र पहले से भी ज़्यादा मुस्तैदी से अपना काम कर रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही एकेलॉन का जाल फैलना शुरू हो गया था। संचार माध्यमों के उन्नत होते जाने के साथ अमेरिका ने इसमें जमकर पैसा लगाया ताकि ई-मेल, फैक्स आदि को भी जासूसी के दायरे में लाया जा सके। अभी यूरोपीय देशों में इसकी मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि तीसरी दुनिया के देशों में भी एकेलॉन का अदृश्य जाल ज़रूर फैला होगा। अमेरिका ने सहयोगी देशों की मदद से अनेक देशों में अपने खुफ़िया केन्द्र स्थापित किये हैं जहाँ से वह यूरोप और अमेरिका में कहीं से कहीं भी भेजे जाने वाले सभी ई-मेल और फैक्स संदेशों को बीच में ही पढ़ सकता है और फोन कॉलों को सुनकर रिकार्ड कर सकता है। ऐसे खुफ़िया केन्द्र किसी न किसी छद्म नाम से काम करते हैं। प्रायः किसी तकनीकी संस्थान या रेडियो स्टेशन या ऐसे ही आवरण का इस्तेमाल किया जाता है। ब्रिटेन जैसे देशों में ख़ुद सरकार की मदद से ऐसा किया जा रहा है।

अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई द्वारा चलाये जा रहे कार्निवोर (मांसभक्षी) नामक तंत्र के ज़रिए अमेरिका में किसी नागरिक द्वारा भेजे या प्राप्त किये गये समस्त ई-मेल सन्देश पढ़े जा सकते हैं, वह कौन सी वेबसाइट खोलता है, किस चैट रूम में जाता है, यानी इंटरनेट पर उसकी एक-एक कार्रवाई को बाकायदा दर्ज किया जा सकता है। अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए, जिसकी तर्ज पर भारत में एनआईए बनाया गया है) ‘प्रिज़्म’ नाम से ऐसा ही ख़ुफ़िया तंत्र चलाती है। सी.एम.एस. को प्रिज़्म की ही तर्ज पर खड़ा किया गया है।

अन्यायी शासक वर्ग हमेशा ही इस आशंका से भयाक्रान्त रहते हैं कि दबे-कुचले लोग एक दिन एकजुट हो जायेंगे और उनके शासन को उखाड़कर फेंक देंगे। सभी अत्याचारी शासक जनता से कटे होते हैं और उन्हें पता नहीं होता कि लोगों के दिलो-दिमाग में क्या चल रहा है। इसीलिए सारी ही शोषक सत्ताएँ लम्बा-चौड़ा ख़ुफ़िया तंत्र खड़ा करती रही हैं ताकि किसी भी बग़ावत को पहले ही कुचल दिया जाये। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि जब जनता जाग उठती है तो सारे ख़ुफ़िया तंत्र और सारी टेक्नोलॉजी धरी की धरी रह जाती है और शोषकों का तख़्ता पलट दिया जाता है।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2015


 

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