हाशिमपुरा से तेलंगाना और चित्तूर तक भारतीय पूँजीवादी जनवाद के ख़ूनी जबड़ों की दास्तान
वर्ष 1987 की गर्मियों के दिन हैं। भारत का शाषक वर्ग संकट से गुज़र रहा है। इस संकट में साम्प्रदायिक राजनीति का पत्ता खेलना इसको ख़ूब रास आ रहा है। बाबरी मस्जिद का शोर शिखरों पर है। 22 मई को मेरठ के हाशिमपुरा गाँव में पीएसी के जवानों का ट्रक आ रुका है और देखते-देखते 40-50 मुसलमानों को बन्दूकों की नोक पर ट्रक में चढ़ा लिया गया और ट्रक गाँव से रवाना हो गया। …रात पड़ चुकी है, ट्रक गाजियाबाद नहर के किनारे खड़ा है। गोलियाँ चलने की आवाज़, कुछ भाग-दौड़ और ट्रक फिर से चल पड़ा … और पीछे छोड़ गया ख़ून से लथपथ धरती, सहमीं हुई झाड़ियों, कुछ दर्दनाक आवाज़ों और रंगत बदलता नहर का पानी। 42 बेदोशे मुसलमान भारतीय लोकतन्त्र के ख़ूनी जबड़ों का शिकार बन चुके हैं।
21 मार्च 2015 को दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट का एक गुनगुना दिन। हाशिमपुरा हत्याकाण्ड को 28 वर्ष बीत चुके हैं। 42 क़त्लों के लिए 16 जवानों पर मुक़दमा दर्ज हुआ था परन्तु आज तक कोई फ़ैसला नहीं हुआ, शायद आज हो जाये।… अदालत का फ़ैसला आ गया और 16 जवानों को सबूतों की कमी के चलते बरी कर दिया गया। पुलिस द्वारा उन 42 लोगों को ज़बरदस्ती ट्रक में चढ़ाये जाने का पूरा गाँव गवाह है, नहर पर गोली खाने वालों में से भी कुछ लोग मौत के मुँह से बचकर सारी कहानी बयान कर चुके हैं तथा और सबूतों के तौर पर फ़ोरैंसिक जाँच से यह देखा जा सकता था कि लाशों में मिली गोलियाँ पुलिस की बन्दूकों में से ही चली थीं …परन्तु भारतीय लोकतन्त्र को कोई सबूत नहीं दिखा।
7 मई 2015 की सुबह, भारतीय लोकतन्त्र का प्रधानमन्त्री “विकास”, “आज़ादी”, “बराबरी” के लच्छेदार भाषण घड़ रहा है। मीडिया की मेहरबानी से भारत की “बुद्धिमान” आबादी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के सबसे “ज्वलन्त मुद्दे” ‘आप’ पार्टी की खींचोतान के “चिन्तन” में डूबा हुआ है। लोकतान्त्रिक आज़ादी मानते “पढ़े-लिखों” के एक बड़े हिस्से को मीडिया ने क्रिकेट की ‘आईपीएल’ के नये शुरू हो रहे शैशन से सम्बन्धित आगामी “विश्लेषणों” में उलझा रखा हुआ है और तेलंगाना में पाँच मुलसमान क़ैदियों को पेशी पर ले जा रही पुलिस ने रास्ते में फ़र्जी मुकाबले बनाकर कत्ल कर दिया है। यह कहा जा रहा है कि मारे गये दोषियों के आतंकवादी संगठन ‘सिमी’ के साथ सम्बन्ध थे, परन्तु इससे सम्बन्धित अभी अदालत की कार्यवाही चल रही थी और यह साबित नहीं हुआ था। इस मामले में पुलिस के बयान आपा-विरोधी हैं। 17 पुलिस कर्मचारी इन पाँच क़ैदियों को ले जा रहे थे और पुलिस का कहना है कि रास्ते में हाथापाई हुई और वह पुलिस पर भारी पड़ गये जिसके चलते मजबूरन गोली चलानी पड़ी। पहले कहा गया कि दो क़ैदियों के पेशाब जाने के लिए हाथ खोले गये थे, फिर कहा गया कि पाँच की ही हथकड़ियाँ खोली गयी थीं (!)। लाशों की सामने आयी तस्वीरों में हथकड़ियाँ लगीं साफ़ दिखायी दे रही हैं जो पूरी कहानी बयान रही हैं।
उधर इसी समय आन्ध्र प्रदेश के चितूर ज़िले के जंगलों में भी इस लोकतन्त्र की रखवाली पुलिस 20 जीते-जागते मनुष्यों की बेरहमी के साथ हत्या कर चुकी है। अगले दिन अख़बारों में ख़बर आयी – ‘आन्ध्र प्रदेश में पुलिस के साथ मुठभेड़ में 20 तस्कर हलाक।’ भारतीय मध्यवर्ग के लिए यह आम सी ख़बर ही है क्योंकि उनको तो बस ‘आप’ के तमाशे, आईपीएल के “युद्ध” और इन जैसी अन्य बेहुदा घटनाओं की ही फ़िक्र है। बुद्धिजीवी वर्ग जनवाद के गुणगान कर रहा है।
पुलिस ने बयान दिया कि उन्हें सूचना मिली थी कि जंगल में तस्कर लाल चन्दन की लकड़ काट रहे हैं। जब ‘लाल चन्दन तस्करी विरोधी टास्क फ़ोर्स’ वहाँ पहुँची तो 150 से भी ज़्यादा तस्करों ने पत्थरों, कुलहाड़ियों आदि के साथ उन पर हमला कर दिया और मजबूरन पुलिस को जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी जिसमें 20 तस्कर मारे गये और बाक़ी फरार हो गये। कुछ जनवादी अधिकारों और मानवीय अधिकारों से सम्बन्धित संगठनों ने ‘तथ्य खोज समितियाँ’ बनाकर पूरे मामले की सच्चाई सामने लाने का यत्न किया। पुलिस ने कोई जानकारी और सफ़ाई देने की जगह 12 कारकुनों पर ही पर्चा दर्ज कर दिया। इन संगठनों के यतनों की वजह से इस मामले का सत्य सामने आया और इस मामले के फ़र्जी होने से सम्बन्धित ये बातें सामने आयीं –
1-) जिस जगह यह फ़र्जी मुकाबला हुआ, न तो उस जंगल में लाल चन्दन की लकड़ी है और न ही कई किलोमीटर तक और कहीं है।
2-) ख़ून के धब्बे सिर्फ़ लाशों पर ही हैं। इधर-उधर कहीं भी ख़ून और भाग-दौड़ के निशान नहीं हैं।
3-) मारे गये लोगों की लाशों के बिना कहीं भी धरती या वृक्षों पर गोलियों के निशान नहीं हैं।
4-) गोलियाँ लाशों के आर-पार निकली थीं, मतलब उनको काफ़ी पास से गोली मारी गयी थी।
5-) मुकाबले की जगह से जो लाल चन्दन की लकड़ी मिली है वह पूरी तरह साफ़ थी और काफ़ी समय से काटी हुई थी। लकड़ी के कम गिनती के लट्ठे ही घटनास्थल पर मिले हैं, अगर 150 से भी ज़्यादा तस्कर थे तो बाक़ी की लकड़ी किधर गयी?
6-) सब लाशें ख़ाली जगह पर थी और सीधी थी, मतलब उनको मरने के बाद लिटाया गया था और कोई भी लाश किसी वृक्ष, झाड़ी आदि की ओट में नहीं थी।
7-) पुलिस का दावा था कि तस्करों ने उन पर पत्थरों के साथ हमला किया जिसके चलते उनको जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी, परन्तु घटना की जगह पर इस तरह का कोई सुराग नहीं मिला जिससे यह साबित हो सके कि पत्थरबाज़ी हुई थी।
8 ) कई लाशों में से बदबू आ रही थी, मतलब वे लोग पहले मारे जा चुके थे और कईयों के शरीर पर कष्ट देने के निशान भी थे।
9-) इस मुकाबले में एक भी पुलिस कर्मचारी ज़ख्मी नहीं हुआ।
इस घटना के बाद तमिलनाडु के एक गाँव के शेखर नामी व्यक्ति ने बताया कि मारे गये लोगों में से 7 को तमिलनाडु-आन्ध्र प्रदेश सरहद पर से उसके सामने ही पुलिस ने बस में से उतारा था। वह ख़ुद एक औरत के साथ बैठा होने के कारण बच गया। इसके बाद दो अन्य गवाह भी सामने आ चुके हैं जिन्होंने इस बात की पुष्टि की कि मारे गये मज़दूरों को पुलिस ने एक दिन पहले गिरफ्तार किया था।
चितूर का हत्याकाण्ड भारत में हुए योजनाबद्ध फ़र्जी मुकाबलों में किये गये बड़े कत्लेआमों में एक बन गया है। यह भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र का खूँखार चेहरा पेश करता एक और सबूत है। एक बार फिर साबित हो गया कि पूँजीवादी जनवाद सिर्फ़ पूँजीपतियों, अमीरों और उनके टुकड़बाज़ों के लिए ही जनवाद है, बहुसंख्यक मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए यह भयानक तानाशाही है। इस घटना के साथ ही संसदीय सूअरवाड़े के नेताओं को गत्ते की तलवारे भाँजने का एक और मुद्दा मिल गया है, जिसका पहले की तरह कोई सार्थक नतीजा नहीं निकलने वाला। शोर पड़ने पर मुक़दमे और जाँच का तमाशा शुरू हुआ है, परन्तु पहले सरकारी कत्ल की तरह इसमें भी ज़्यादा से ज़्यादा निचले दर्जे के कुछ कर्मचारियों को सज़ा देने से ज़्यादा कुछ नहीं होने वाला। चितूर वाले मामले की तो छानबीन ही पुलिस विभाग को सौंपी गयी है, मतलब अब कातिल ख़ुद अपनी जाँच करके अपने दोषी या निर्दोष होने के बारे में बतायेंगे! वैसे भारतीय लोकतन्त्र की यह छानबीन कैसे चलेगी और इसका क्या नतीजा निकलेगा, वह हाशिमपुरा बता चुका है।
सत्ता की तरफ़ से इस तरह किये जाने वाले कत्लेआमों का सिलसिला बहुत लम्बा है। इस तरह का एक और बड़ा हत्याकाण्ड 2012 का कश्मीर का ध्यान में आता है जब पत्थर चला रही भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चला दीं और 112 लोगों को मौत के घाट उतार दिया, इनमें एक 11 साल का बच्चा भी था। ऐसे सरकारी ज़बरों का कहर पूरे देश में दशकों से जारी है। पंजाब में दहशतगर्दी के दौर में बने हज़ारों फ़र्जी मुकाबलों को कौन भूल सकता है, जिनकी वजह से अनेकों खाकी वर्दियों पर तगमे और सितारे टाँगे गये। कश्मीर और पूर्वी भारत के सूबों में तो ‘अफ़स्पा’ जैसे तानाशाह किस्म के क़ानून बनाये गये हैं जिनके तहत शक के आधार पर ही किसी को गोली मारी जा सकती है। झूठे मुकाबलों से बिना पुलिस हिरासत में मौतों की भी कोई संख्या नहीं है। इन सबमें एक बात साझी है कि मारे गये लोग आम मेहनतकश, मज़दूर परिवारों के साथ सम्बन्ध रखते हैं या फिर राष्ट्रीय और धार्मिक अल्प-संख्याओं के साथ।
यह तो साफ़ ही है कि इतने बड़े फ़र्जी मुकाबले और हत्याकाण्ड निचले स्तर के कर्मचारियों, अधिकारियों के बस की बात नहीं है। इनमें पुलिस, फ़ौज के अतिरिक्त अफ़सरों से लेकर सरकारों में बैठे राजनैतिक नेता शामिल होते हैं। हर हत्याकाण्ड समूचे पूँजीपति वर्ग या फिर कुछ ख़ास पूँजीपतियों के हितों के साथ जुड़ा होता है। हाशिमपुरे के हत्याकाण्ड से लेकर अदालती फ़ैसले तक की दास्तान चीख़-चीख़कर यही बयान कर रही है। तेलंगाना हत्याकाण्ड के पास तो “आतंकवाद” का बुर्का भी तो है और आतंकवाद को तो भारतीय लोकतन्त्र कहाँ छोड़ता है (अफ़ज़ल गुरू याद ही होगा!)। जहाँ तक चितूर हत्याकाण्ड का सवाल है तो वो भी लाल चन्दन की लकड़ी के कारोबार के साथ जुड़ा हुआ है। इस लकड़ी की क़ीमत तीन हज़ार रुपये प्रति किलोग्राम तक है और इसकी अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में काफ़ी माँग है। आन्ध्र प्रदेश में यह कारोबार करने वाले पूँजीपतियों के कई गिरोह हैं जिनके स्थानीय जंगलात विभाग के अफ़सरों से लेकर राज्य और केन्द्र सरकार तक अच्छी मिली-भगत है जिसके दम पर ये अरबों का कारोबार करते हैं। अधिक से अधिक लकड़ी हथियाने के लिए इन गिरोहों में आपसी टकराव भी चलता रहता है। बहुत सम्भावना यही है कि इन कारोबारियों के एक धड़े ने अपने राजनैतिक प्रभाव-रसूख के दम पर दूसरे धड़े के कारोबार को ठप्प करने, उनमें दहशत फैलाने के लिए यह हत्याकाण्ड करवाया है। जितने योजनाबद्ध ढंग के साथ और जितने बड़े स्तर पर यह हत्याकाण्ड हुआ है उससे यह साफ़ है कि इसमें स्थानीय पुलिस ही शामिल नहीं है, बल्कि इसको राज्य सरकार से भी शह हासिल थी। इस तरह दो पूँजीपति गिरोहों के आपसी टकराव में 20 निर्दोष मज़दूरों की हत्या की गयी जो लकड़ी काटने का काम अपने गुज़ारे के लिए दिहाड़ी पर करते थे।
आन्ध्र प्रदेश में यह बात भी ध्यान देने वाली है कि यहाँ पुलिस ने बड़े स्तर पर माओवादियों और आदिवासियों का नरसंहार किया है, उन पर दमन किया है, अनेकों की मारपीट की, लोग ज़बरन उजाड़े और औरतों के साथ बलात्कार किये गये। इस सबको राजनैतिक सरपरस्ती हासिल थी, बल्कि यह सब राजसत्ता के इशारों पर ही हुआ है। ऐसे माहौल के कारण भी यहाँ पुलिस बेख़ौफ़ है, सरकारी ज़बर शिखरों पर है, दिन-दिहाड़े सरकारी दहशतगर्दी का नंगा नाच खेला जाता है। इसलिए भारतीय राजसत्ता के लिए यहाँ 20 मज़दूरों को सरेआम कत्ल करना भी कोई बड़ी बात नहीं है। यहाँ भारत का पूँजीवादी लोकतन्त्र स्पष्ट रूप में अपने असली रंग में दिखायी देता है।
वर्गों में बाँटे पूँजीवादी समाज में जनवाद कोई निरपेक्ष चीज़ नहीं होता, बल्कि इसका भी एक वर्गीय चरित्र होता है। जनवाद एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग का शोषण और दमन करने का ही एक यन्त्र होता है, यह डण्डे का ही एक रूप होता है। पूँजीवादी जनवाद वास्तव में जायदाद के मालिक वर्गों (पूँजीपति वर्ग) के लिए ही जनवाद होता है और बहु-संख्या मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए यह तानाशाही, डण्डा ही होती है जिसको “लोकतन्त्र” की थोथी लफ्फ़ाज़ी के नीचे छिपाया जाता है। इस जनवाद की असलियत को नंगा करती अनेकों घटनाएँ रोज़मर्रा के जीवन में ही देखी जा सकती हैं। समाज में कुदरती ख़ज़ानों और जायदाद के साधनों का बँटवारा एक तरफ़ कोई काम ना करने वाले और ऐयाश धनाढ्यों के झुण्ड और दूसरी तरफ़ दिन भर मेहनत करते करोड़ों ग़रीब लोग – पूरा भारतीय संविधान, इसकी चयन प्रणाली, इसका राजनैतिक ढाँचा और हर साल पेश होते बजट – शिक्षा, सेहत व यातायात सहूलतों में दोहरी प्रणाली या दोहरी क़ानूनी और न्याय प्रणाली – रोटी, कपड़ा और मकान जैसी सहूलतें से लेकर मनोरंजन के साधनों में विभाजन आदि सब यह साबित करते हैं कि जनवाद आर्थिक (वर्गीय) हैसियत के साथ जुड़ा हुआ है, कि जिसकी वर्गीय हैसियत जितनी ऊँची है उसको उतने ही अधिक मौक़े व सहूलतें हैं और जिसकी वर्गीय हैसियत जितनी नीची है उसके लिए आज़ादी और जनवाद उतना ही सिकुड़ा हुआ है, बल्कि वह सीधे-सीधे तानाशाही के नीचे जीने के लिए मजबूर हैं। समाज के इस वर्गीय विभाजन के कारण देश के करोड़ों लोग ग़रीबी, बदहाली के गड्डे में धकेल दिये गये हैं। आर्थिक साधन न होने के कारण भारत में रोज़ ही हज़ारों लोग भुखमरी, साधारण बीमारियों का इलाज न मिलने और अधिक गर्मी या ठण्ड पड़ने के कारण मारे जाते हैं। यह भी इस पूँजीवादी जनवाद की तरफ़ से किये जाते ठण्डे कत्ल ही हैं – यह है मौजूदा जनवाद की असली सच्चाई जिसका गुणगान पूँजीपतियों के टुकड़बाज़ों से लेकर भ्रमग्रस्त बुद्धिजीवी आम ही अख़बारों, टीवी चैनलों, किताबों, सेमीनारों और आम बातचीत में करते रहते हैं। हाशिमपुरे के हत्याकाण्ड से लेकर अदालती फ़ैसले ने और चितूर और तेलंगाना के कत्लेआमों ने एक बार फिर इस लोकतन्त्र के ख़ूनी जबड़ों की असली दास्तान पेश की है, मसला बस सत्य पहचानने और उसको मानने का है।
इसलिए जहाँ आज तत्काल तौर पर यह ज़रूरत है कि ऐसे कत्लेआमों से लेकर रोज़मर्रा के जीवन में होती बेइंसाफ़ियों के खि़लाफ़ डटा जाये, लोकतन्त्र के नाम पर होती तानाशाही को लोगों की एकता के दम पर रोकने की कोशिश की जाये, वहाँ यह असली ज़रूरत भी ध्यान में रखी जाये कि मौजूदा पूँजीवादी जनवाद का ही अन्त किया जाना चाहिए और इसकी जगह मज़दूर वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित क्यिा जाना चाहिए। लाजिमी ही वर्गीय समाज में इस अधिनायकत्व का भी दोहरा चरित्र होगा। यह अल्प-संख्या लुटेरे जायदाद मालिक वर्गों के लिए अधिनायकत्व (तानाशाही) होगा और बहु-संख्या मज़दूर, मेहनतकश आबादी के लिए जनवाद। ऐसे समाज में ही बुनियादी ज़रूरतों से लेकर आधुनिक सुख-सहूलतों के साधन, कला, साहित्य, मनोरंजन के साधनों तक सब लोगों की बराबर पहुँच हो सकती है और ऐसे समाज में ही चितूर, तेलंगाना, हाशिमपुरा, कश्मीर जैसे कत्लेआमों का सिलसिला रुक सकता है।
(पंजाबी पत्रिका ‘ललकार’ से साभार)
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