लक्ष्मीनगर हादसा : पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर
शिवानी
मुनाफा! हर हाल में! हर कीमत पर! मानव जीवन की कीमत पर। नैतिकता की कीमत पर। नियमों और कानूनों की कीमत पर। यही मूल मन्त्र है इस मुनाफाख़ोर आदमख़ोर व्यवस्था के जीवित रहने का। इसलिए अपने आपको ज़िन्दा बचाये रखने के लिए यह व्यवस्था रोज़ बेगुनाह लोगों और मासूम बच्चों की बलि चढ़ाती है। इस बार इसने निशाना बनाया पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर के ललिता पार्क स्थित उस पाँच मंज़िला इमारत में रहने वाले ग़रीब मज़दूर परिवारों को जो देश के अलग-अलग हिस्सों से काम की तलाश में दिल्ली आये थे। इमारत के गिरने से लगभग 70 लोगों की मौत हो गयी और 120 से अधिक लोग घायल हो गये जिनमें कई महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं। यह घटना शायद दिल्ली के इतिहास की सबसे बड़ी मानव-निर्मित त्रासदियों (या यूँ कहें कि व्यवस्था-निर्मित, क्योंकि यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) में से एक थी। स्वयं दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित ने इसे अभूतपूर्व करार दिया और कहा कि दिल्ली में ऐसी घटना इसके पहले कभी नहीं हुई। जैसा कि आमतौर पर ऐसे सभी ‘हादसों’ के बाद होता है, इस बार भी तमाम सरकारी महकमों और नागरिक संस्थाओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का घिनौना खेल शुरू हो गया। कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे को बेनकाब करने के पीछे पड़ गयीं। लेकिन जिस हमाम में सबके-सब नंगे हों वहाँ कौन ज्यादा नंगा है और कौन कम नंगा इस पर बहस करना ही बेमानी है। ज्ञात हो कि जो इमारत गिरी वह अनधिकृत थी और इसलिए एक बार फिर दिल्ली में अनधिकृत निर्माण के अवैध कारोबार का मुद्दा चर्चा में आ गया। हालाँकि, दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम और पुलिस प्रशासन ऐसा जता रहे हैं, मानो कि अनधिकृत-अवैध निर्माण का मसला कोई नयी बात है।
दिल्ली में लक्ष्मी नगर इकलौता ऐसा इलाका नहीं है, जहाँ अनधिकृत इमारतें और कालोनियाँ बनी हैं। कायदे से तो दिल्ली का कोई ऐसा इलाका नहीं बचा है जहाँ अवैध निर्माण न हुआ हो। लक्ष्मी नगर, शकरपुर, पाण्डव नगर, पूर्वी और पश्चिमी विनोद नगर, मण्डावली, मधु विहार से लेकर नरेला, बवाना और बुराड़ी तक कोई ऐसा इलाका नहीं जहाँ अवैध इमारतों का निर्माण न हुआ हो। सूत्रों की मानें तो दिल्ली का करीब 60 प्रतिशत इलाका अवैध निर्माण से भरा हुआ है जिसमें दिल्ली की 80 प्रतिशत आबादी रहती है। दिल्ली नगर निगम के मुताबिक 1962 से 1977 के बीच 567 अनधिकृत कालोनियों को नियमित कर दिया गया। इसके अलावा, 1639 अनधिकृत कालोनियों का नियमितीकरण होना अभी बाकी है। यही नहीं,आये दिन नये अनधिकृत निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। लगभग हर रोज़ ही दिल्ली सरकार से लेकर नगर निगम के अधिकारियों के बयान आते हैं कि अब कोई अनधिकृत कालोनी बसने नहीं दी जायेगी, लेकिन हम सब जानते हैं कि यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। ये वे कालोनियाँ होती हैं, जहाँ घर तो पहले बन जाते हैं लेकिन नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था बाद में होती है। ज़ाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर इस किस्म की कालोनियों का निर्माण काफी संगठित तरीके से प्रशासन की देख-रेख और संरक्षण में ही हो सकता है। जो काम ही सरकार, पुलिस, नगर निगम, भूमाफिया और बिल्डरों की मिलीभगत से हो रहा हो उस पर नकेल कसना असम्भव ही है। और न ही ऐसी किसी की गरज़ है।
लक्ष्मी नगर हादसे के बाद आनन-फानन में दिल्ली सरकार ने घटना की न्यायिक जाँच के आदेश दे दिये। इसमें भी कोई नयी बात नहीं है। ऐसी दुर्घटनाओं के बाद ख़ानापूर्ति और अपनी बची-खुची इज्ज़त बचाने के लिए सरकार को इतना तो करना ही था। अब विपक्ष इस बात के पीछे पड़ गया है कि इसकी सी.बी.आई. जाँच हो। अब चाहे न्यायिक जाँच हो या सी.बी.आई. जाँच, इसके बाद क्या होगा, यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं। फिलहाल, इमारत के मालिक अमृत सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। इन जनाब की कहानी भी काफी दिलचस्प है। जो इस व्यवस्था की सड़ान्ध और ग़लाज़त को बख़ूबी दर्शाती है। इस चर्चा पर हम जल्द ही लौटेंगे।
हादसा जिस इमारत के साथ हुआ, वह काफी पुरानी थी। केवल ढाई सौ वर्ग गज़ की ज़मीन में 50 से भी ज्यादा कमरे बने थे, जिनमें 300 से भी ज्यादा लोग रह रहे थे। इमारत के सबसे निचले तल में आइसक्रीम का कारख़ाना भी चल रहा था। मानसून के समय इस पूरे इलाके में यमुना का पानी घुसने से इमारत की नींव कमज़ोर हो गयी थी। इमारत के भूतल में हादसा होने तक पानी जमा था। कई बार धयान दिलाने के बावजूद मकान-मालिक ने वहाँ से पानी निकालना ज़रूरी नहीं समझा। यही नहीं, यमुना की तलहटी पर बने इस इलाके में, जहाँ 15 मीटर से ऊँची इमारतें बनाना कानूनन जुर्म है वहाँ यह मकान-मालिक हर साल इमारत में एक नयी मंज़िल जोड़ता चला जा रहा था। ऐसी बेहद ख़तरनाक स्थितियों के बावजूद यहाँ रहने वाले मज़दूर परिवार लगभग 3000 रुपये महीना किराया देते थे। जहाँ तक इस इमारत के मकान मालिक अमृतपाल सिंह का सवाल है, तो वह इस देश के टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग का प्रतीकात्मक उदाहरण है। अमृत सिंह के आपराधिक इतिहास को देखते हुए उसे जेल के अन्दर होना चाहिए था। लेकिन फिर इस हिसाब से तो इस वर्ग के ज्यादातर लोगों को सलाख़ों के पीछे होना चाहिए। परचून की दुकान से अपने धन्धे की शुरुआत करने वाले अमृत सिंह ने अवैध शराब के धन्धे से लेकर मिलावटी सीमेण्ट बेचने का धन्धा करते हुए चोरी और लूट का सामान ख़रीदकर फिर बेचने के धन्धे तक, सब किस्म के काले धन्धों पर अपना हाथ आज़माया है। वह शकरपुर थाने में हिस्ट्रीशीटर के रूप में दर्ज है। हत्या, हत्या के प्रयास, लूटपाट, डकैती – ऐसे सभी मामले उस पर दर्ज हैं। तो फिर वह बाहर क्या कर रहा था? बताने की ज़रूरत नहीं है कि उसके अवैध मकान की जानकारी भी स्थानीय पुलिस और निगम अधिकारियों को थी।
इस सन्दर्भ में जो बात ग़ौर करने लायक है, वह यह है कि मीडिया अमृतपाल जैसे व्यक्ति के इस मामले से जुड़े होने को एक असामान्य घटना के रूप में पेश कर रहा है। लेकिन इसमें असामान्य और असाधारण कुछ भी नहीं है। अमृतपाल उस टुटपुँजिया परजीवी वर्ग के एक प्रतिनिधि के रूप में उभरा है जो इस किस्म के गोरखधन्धे और काले कारनामे करके ऊपर पहुँचते हैं। वह अकेला ऐसा शख्स नहीं है। यह पूरा परजीवी वर्ग ग़रीबों की लाशों पर पैसा कमाता है और मुनाफा बटोरता है। लक्ष्मी नगर जैसी घटना देश के दूर-दराज़ के इलाकों से दिल्ली में काम करने आये मज़दूर परिवारों के साथ ही होती है। वसन्त विहार, वसन्त कुंज, चाणक्यपुरी, अशोक विहार, शालीमार बाग जैसे इलाकों में रहने वाले लोगों के साथ नहीं।
दुर्घटनाओं का भी वर्ग चरित्र होता है। ज्यादातर अनधिकृत इमारतें जिन्हें ख़ुद दिल्ली नगर निगम रिहायश की दृष्टि से ख़तरनाक बता चुका है, मज़दूर और निम्न मध्यम वर्गीय आबादी के रिहायशी इलाके हैं। ये इलाके अमृतपाल सिंह सरीखे मालिकों और छुटभैये बिल्डरों द्वारा प्रशासन से साँठ-गाँठ के ज़रिये ही बसाये गये हैं। निर्माण-कार्य में निम्न स्तरीय सामग्री का प्रयोग करके बेहद कम लागत में कार्य सम्पन्न कर दिया जाता है। फिर इन्हीं निम्नस्तरीय मकानों और कमरों को ग़रीब परिवारों को किराये पर रहने के लिए दे दिया जाता है। दूसरी तरफ हम देखते हैं दिल्ली और आस-पास के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बड़े-बड़े अपार्टमेण्ट बहुत ही सुनियोजित रूप से उच्च मध्यवर्ग और धनाढय वर्ग के लिए बनाये जा रहे हैं। विलासिता की इन मीनारों में लक्ष्मी नगर जैसी घटना नहीं हो सकती। सोचने की बात यह है कि दिल्ली की बहुसंख्यक आबादी जो इन अनधिकृत कालोनियों में रह रही है, लगातार मौत के साये में जी रही है।
इस हादसे के बाद दिल्ली नगर निगम ने ललिता पार्क इलाके में ऐसी ही कई असुरक्षित इमारतों को सील कर दिया है। लेकिन क्या यह समस्या का निवारण है? दिल्ली का इतिहास बताता है कि जिस रफ्तार से पहले से बनी अनधिकृत कालोनियों को नियमित किया गया है या फिर ऐसी कालोनियों को गिरा दिया गया है, उससे भी तेज़ी से नयी अवैध कालोनियाँ अस्तित्व में आयी हैं। जब ख़ुद व्यवस्था ही अवैध निर्माण को संरक्षण और प्रोत्साहन दे रही है तो इस पर रोक लगाना इसके बूते की बात ही नहीं। वास्तव में दिल्ली टुटपुँजिया पूँजीपतियों का शहर है। यह वर्ग यहाँ पर सत्ता के बहुत बड़े अवलम्ब का काम करता है। अमृतपाल जैसे लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए ही बेहद कीमती हैं। इस वर्ग पर किसी भी किस्म से नकेल कसने का न तो पूँजीवादी चुनावी पार्टियों का इरादा है और न ही उनकी सरकार के लिए यह सम्भव है। सच्चाई तो यह है कि इन पार्टियों के स्थानीय छुटभैये नेता स्वयं इसी वर्ग से आते हैं। ऐसे में, यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि दिल्ली सरकार इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कुछ भी करेगी। तब तक दिल्ली की सारी चमक-दमक को खड़ा करने वाला वर्ग अगर इमारत के ढहने पर मौत के मुँह में जाने से बच भी गया तो इन ख़तरनाक इमारतों की खोलियों में घुट-घुटकर दम तोड़ता रहेगा।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2010
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