फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों का नारकीय जीवन
सनी
चीन की फ़ॉक्सकॉन कम्पनी एप्पल जैसी कम्पनियों के लिए महँगे इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर के साजो-सामान बनाती है। इसके कई कारख़ानों में लगभग 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। यहाँ जिस ढंग से मज़दूरों से काम लिया जाता है उसके चलते 2010 से 2014 तक ही में 22 ख़ुदकुशी की घटनाएँ सामने आयीं और कई ऐसी घटनाओं को दबा दिया गया। दुनियाभर में “कम्युनिस्ट” देश के तौर पर जाने वाले चीन का पूँजीवाद इससे ज़्यादा नंगे रूप में ख़ुद को नहीं दिखा सकता था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। परन्तु बाज़ारों में पटे सस्ते चीनी माल चीन के मज़दूरों के हालात नहीं बताते हैं। पर फ़ॉक्सकॉन की घटना पूरे चीन की दुर्दशा बताती है। फ़ॉक्सकॉन चीन का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है आईफ़ोन, आईपैड, एक्स बॉक्स, प्ले स्टेशन जैसे महँगे सामान बनाता है। दिनभर में मज़दूरों को एक जगह बैठकर मोबाइल और लैपटॉप के महीन पुर्जों को असेम्बली लाइन पर 12-12 घण्टे तक बनाने का काम करना पड़ता है। जब एप्पल कम्पनी कोई नया आईफ़ोन बाज़ार में उतारती है तो इस माँग की पूर्ति के लिए मज़दूरों से हफ्तेभर में 120 घण्टे से ऊपर काम कराया जाता है। यही काम 24 घण्टे और सातों दिन चलता है। फ़ैक्टरी में मैनेजर, इंस्ट्रक्टर और गार्ड गुण्डों की तरह व्यवहार करते हैं। ग़लती होने पर मज़दूरों को सबके बीच बुलाकर ज़लील किया जाता है। हर दिन काम से पहले कम्पनी का उत्पादन बढ़ाने के लिए जोशीले भाषण दिये जाते हैं और काम के वक़्त भी उत्पादन बढ़ाने की अपीलें दी जाती हैं। अनुशासन बरतने के पोस्टरों से पूरी फ़ैक्टरी पटी पड़ी है। मज़दूरों को कम्पनी ही अपने कैम्पस पर रहने की जगह देती है। इन्हें जेल ही कहा जाये तो बेहतर होगा। एक कमरे में कई लोग ठुँसकर रहते हैं। ऊपर से उनके हर क़दम को सेक्युरिटी कैमरे देखते रहते हैं। हर जगह गार्ड और कम्पनी मज़दूरों पर नज़र रखती है। फ़ॉक्सकॉन के जेलनुमा होस्टलों में मज़दूरों के बीच तमाम धर्मगुरु, कौंसिलर और डॉक्टर भी घूमते हैं जो मज़दूरों को इस जीवन को जीने का पाठ पढ़ाते हैं। और अगर बात उनके बस से निकलती दिखती है तो ऐसे मज़दूरों को सीधे पागलों के अस्पताल भेज दिया जाता है। 2010 में हुई 14 आत्महत्याओं के बाद जब दुनियाभर में फ़ॉक्सकॉनकी आलोचना हुई तो फ़ॉक्सकॉन ने मज़दूरों के काम के हालात में सुधार करने की जगह ऐसी व्यवस्था की कि मज़दूर आत्महत्या न कर पायें। स्टील के जाल से मज़दूरों के होस्टलों को घेर लिया गया है और खिड़कियों पर भी स्टील की रोड लगा दी गयी हैं, जिससे कि मज़दूर कूदकर आत्महत्या न कर पायें! काम पर रखे जाते वक़्त मज़दूरों से काग़ज़ पर दस्तख़त करवाया जाता है कि वे आत्महत्या नहीं करेंगे और अगर करते हैं तो इसके लिए फ़ॉक्सकॉन जि़म्मेदार नहीं होगी। 2014 में आत्महत्या करने वाले फ़ॉक्सकॉन के मज़दूर लिझी ने अलगाव को शब्दों में ढालते हुए कहा था कि वे अपने ‘युवा कब्रिस्तान की रखवाली’ कर रहे हैं। यही आज हर मज़दूर कर रहा है पर साथ ही विद्रोह का जज़्बा भी पाल रहा है और यह अब अभिव्यक्त भी हो रहा है। अक्टूबर महीने में ही करीब 1000 मज़दूर वेतन बढ़ोतरी और कार्यस्थल पर सुविधाओं के लिए हड़ताल पर चले गये थे। पिछले कुछ सालों में फ़ॉक्सकॉन ही नहीं चीनभर में मज़दूरों के संघर्षों में तेज़ी आ रही है। यह संघर्ष तब तक चलेगा जब तक युवा मुनाफ़ाखोर व्यवस्था को ही कब्रिस्तान में नहीं पहुँचा देते।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014
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