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फ़ॉक्सकॅान के मज़दूर की कविताएँ
ये कविताएँ चीन की फ़ॉक्सकॅान कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू़ लिझी (Xu lizhi) ने लिखी हैं। लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी। लेकिन लिझी की मौत आत्महत्या नहीं है, एक नौजवान से उसके सपने और उसकी जिजीविषा छीनकर इस मुनाफ़ाख़ोर निज़ाम ने उसे मौत के घाट उतार दिया। लिझी की कविताओं का एक-एक शब्द चीख़-चीख़कर इस बात की गवाही देता है। आज भी दुनियाभर में लिझी जैसे करोड़ों मज़दूर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते हैं जो यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है।
1.
मैंने लोहे का चाँद निगला है
मैंने लोहे का चाँद निगला है
वो उसको कील कहते हैं
मैंने इस औद्योगिक कचरे को,
बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगला है,
मशीनों पर झुका युवा जीवन अपने समय से
पहले ही दम तोड़ देता है,
मैंने भीड़, शोर-शराबे और बेबसी को निगला है।
मैं निगल चुका हूँ पैदल चलने वाले पुल,
ज़ंग लगी जि़न्दगी,
अब और नहीं निगल सकता
जो भी मैं निगल चुका हूँ वो अब मेरे गले से निकल
मेरे पूर्वजों की धरती पर फैल रहा है
एक अपमानजनक कविता के रूप में।
2.
एक पेंच गिरता है ज़मीन पर
एक पेंच गिरता है ज़मीन पर
ओवरटाइम की इस रात में
सीधा ज़मीन की ओर, रोशनी छिटकता
यह किसी का ध्यान आकर्षित नहीं करेगा
ठीक पिछली बार की तरह
जब ऐसी ही एक रात में
एक आदमी गिरा था ज़मीन पर
3.
मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास
खड़ा रहता हूँ
मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास
खड़ा रहता हूँ
मेरे दोनों हाथ हवा में उड़ते हैं
कितने दिन और कितनी रातें
मैं ऐसे ही वहाँ खड़ा रहता हूँ
नींद से लड़ता।
4.
मैं एक बार फ़िर समुद्र देखना चाहता हूँ
मैं एक बार फ़िर समुद्र देखना चाहता हूँ, बीत चुके आधे जीवन के आँसुओं के विस्तार को परखना
चाहता हूँ
मैं एक और पहाड़ पर चढ़ना चाहता हूँ,
अपनी खोई हुई आत्मा को वापिस ढूँढ़ना चाहता हूँ
मैं आसमान को छूकर उसके हल्के नीलेपन को महसूस करना चाहता हूँ
पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता,
इसीलिए जा रहा हूँ मैं इस धरती से
किसी भी शख़्स जिसने मेरे बारे में सुना हो
उसे मेरे जाने पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए
न ही दुख मनाना चाहिए
मैं ठीक था जब आया था और जाते हुए भी ठीक हूँ
5.
मशीन भी झपकी ले रही है
मशीन भी झपकी ले रही है
सीलबन्द कारख़ानों में भरा हुआ है बीमार लोहा
तनख़्वाहें छिपी हुई हैं पर्दों के पीछे
उसी तरह जैसे जवान मज़दूर अपने प्यार को
दफ़न कर देते है अपने दिल में,
अभिव्यक्ति के समय के बिना
भावनाएँ धूल में तब्दील हो जाती हैं
उनके पेट लोहे के बने हैं
सल्फ़युरिक, नाइट्रिक एसिड जैसे गाढे़ तेज़ाब से भरे
इससे पहले कि उनके आँसुओं को गिरने का
मौक़ा मिले
ये उद्योग उन्हें निगल जाता है
समय बहता रहता है, उनके सिर धुँध में खो जाते हैं
उत्पादन उनकी उम्र खा जाता है
दर्द दिन और रात ओवरटाइम करता है
उनके वक़्त से पहले एक साँचा उनके शरीर से चमड़ी अलग कर देता है
और एल्युमीनियम की एक परत चढ़ा देता है
इसके बावजूद भी कुछ बच जाते हैं और बाक़ी बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं
मैं इस सब के बीच ऊँघता पहरेदारी कर रहा हूँ
अपने यौवन के कब्रिस्तान की।
(ये कविताएँ libcom.org वेबसाइट से ली गयी हैं, जिन्होंने चीनी भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद सिमरन ने किया है।
Poems by worker of Foxcon company
1.
I Swallowed a Moon Made of Iron
I swallowed a moon made of iron
They refer to it as a nail
I swallowed this industrial sewage, these unemployment documents
Youth stooped at machines die before their time I swallowed the hustle and the destitution Swallowed pedestrian bridges, life covered in rust I can’t swallow any more
All that I’ve swallowed is now gushing out of my throat
Unfurling on the land of my ancestors
Into a disgraceful poem.
19 December 2013
2.
A Screw Fell to the Ground
A screw fell to the ground
In this dark night of overtime
Plunging vertically, lightly clinking It won’t attract anyone’s attention Just like last time
On a night like this
When someone plunged to the ground
9 January 2014
3.
I Fall Asleep, Just Standing Like That
The paper before my eyes fades yellow With a steel pen I chisel on it uneven black Full of working words
Workshop, assembly line, machine, work card, overtime, wages…
They’ve trained me to become docile Don’t know how to shout or rebel How to complain or denounce
Only how to silently suffer exhaustion
When I first set foot in this place
I hoped only for that grey pay slip on the tenth of each month
To grant me some belated solace
For this I had to grind away my corners, grind away my words
Refuse to skip work, refuse sick leave, refuse leave for private reasons
Refuse to be late, refuse to leave early
By the assembly line I stood straight like iron, hands like flight, How many days, how many nights
Did I – just like that – standing fall asleep?
20 August 2011
4.
On My Deathbed
I want to take another look at the ocean, behold the vastness of tears from half a lifetime
I want to climb another mountain, try to call back the soul that I’ve lost
I want to touch the sky, feel that blueness so light But I can’t do any of this, so I’m leaving this world Everyone who’s heard of me
Shouldn’t be surprised at my leaving
Even less should you sigh or grieve
I was fine when I came, and fine when I left.
30 September 2014
5.
The Last Graveyard
Even the machine is nodding off Sealed workshops store diseased iron Wages concealed behind curtains
Like the love that young workers bury at the bottom of their hearts
With no time for expression, emotion crumbles into dust
They have stomachs forged of iron
Full of thick acid, sulfuric and nitric
Industry captures their tears before they have the chance to fall
Time flows by, their heads lost in fog
Output weighs down their age, pain works overtime day and night
In their lives, dizziness before their time is latent
The jig forces the skin to peel
And while it’s at it, plates on a layer of aluminum alloy
Some still endure, while others are taken by illness
I am dozing between them, guarding
The last graveyard of our youth.
21 December 2011
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