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अस्ति का मज़दूर आन्दोलन ऑटो सेक्टर मज़दूरों के संघर्ष की एक और कड़ी!
अजय
पूँजीवाद में हर दिन पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष का होता है। आये दिन कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी कारख़ाने में यह संघर्ष उभरकर सामने आता है। इस बार मामला है अस्ति इलेक्ट्रॉनिक्स इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड, प्लॉट नं. 399, सेक्टर 8, मानेसर। यह जापानी कम्पनी अस्ति कॉरपोरेशन की सब्सीडरी कम्पनी है। दुनियाभर में शोषण-उत्पीड़न के नये-नये पैंतरों के लिए जापानी कम्पनियाँ मशहूर हैं। इस बार इन्होंने तीन-चार सालों से ठेके पर काम कर रहे 310 मज़दूरों को बिना किसी नोटिस के काम से निकाल दिया, जिनमें 250 महिला मज़दूर हैं। मज़दूरों को 1 नवम्बर की शाम को बताया गया कि उन्हें काम से निकाला जा रहा है। मज़दूरों ने इस बात का प्रतिरोध करते हुए 3 नवम्बर से फ़ैक्टरी गेट पर स्थाई धरने का निर्णय लिया। कम्पनी ने 150 मीटर स्टेआर्डर का बहाना करके मज़दूरों को गेट से हटा दिया। साथ ही महिला मज़दूरों के साथ बदसलूकी की। लेकिन मज़दूर वहाँ से बस थोडी ही दूरी पर तम्बू गाड़कर चौबीसों घण्टे डटे हुए हैं। निकाले गये मज़दूरों में अधिकतर 3-4 सालों से मुख्य उत्पादन लाइन पर स्थायी मज़दूरों से अभिन्न ऑपरेटर का काम कर रहे थे। ठेका पर काम करने वाले मज़दूरों को ठेकेदार के मातहत काम करना होता है, लेकिन औद्योगिक बेल्ट के कई कारख़ानों की तरह यहाँ भी ठेका मज़दूर ठेकेदार के नीचे नहीं, बल्कि प्रबन्धन के निर्देश पर काम करते हैं। इस हालात में ठेके पर काम कराना पूरी तरह ग़ैर-क़ानूनी है। वहीं दूसरी तरफ़ प्रबन्धन ने स्थायी मज़दूरों को डरा-धमकाकर ठेका मज़दूरों के संघर्ष से दूर कर दिया है। ग़ौरतलब है कि स्थायी मज़दूरों की एच-एम-एस- से जुड़ी एक यूनियन है। जिसने ठेका मज़दूरों के इस संघर्ष से कुछ खानापूर्ति मदद करके अपना पल्ला झाड़ लिया। लेकिन जब यूनियन बनाने का संघर्ष चल रहा था, तब ठेका मज़दूरों ने स्थायी मज़दूरों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर इसमें हिस्सा लिया था, साथ ही लाखों रुपये का चन्दा इकट्ठा कर सहयोग किया था। ठेका मज़दूरों ने श्रम कार्यालय में पत्र डाल अपनी शिकायत दर्ज की जिसके पश्चात श्रम विभाग आन्दोलनरत मज़दूर और प्रबन्धन अधिकारी के बीच त्रिपक्षीय वार्ता शुरू हुई, जिसमें प्रबन्धन प्रतिनिधि अड़ियल रवैये पर डटा हुआ था। वैसे भी श्रम की लूट की प्रक्रिया में सरकार-प्रशासन और पूँजीपतियों का गठजोड़ सर्वविदित है। मज़दूर अपने संघर्ष के दौरान बीच-बीच में गेट मीटिंग भी करते रहते हैं, जहाँ पुलिस और मालिकान का गठजोड़ नंगे रूप में सामने आता है जोकि मज़दूरों को अपना संघर्ष करने से रोकता है। मज़़दूरों के इस संघर्ष में तकरीबन 250 महिलाएँ हैं, जिनमें से नौ गर्भवती हैं। सभी ठेका मज़दूर पूरी ऊर्जा के साथ इस संघर्ष में डटे हुए हैं। मज़दूरों ने संघर्ष को चलाने के लिए अस्ति ठेका मज़दूर संघर्ष समिति का गठन किया है जो संघर्ष के आगे की कार्ययोजना और निर्णय ले सके। श्रम-विभाग में चार दौर वार्ता के बाद प्रबन्धन अपने अड़ियल रुख़ पर क़ायम है। साफ़ है कि आज पूरे गुड़गाँव में ज़्यादातर कारख़ानों में 6 महीने ठेके का बोलबाला है। इसलिए कम्पनी 3-4 साल पुराने मज़दूरों को बाहर धकेलकर नये ठेका मज़दूरों को काम पर रखना चाहती है, ताकि इन मज़दूरों को स्थायी करने की बात से बच सके।
मज़दूरों ने अपने संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए सात मज़दूर 25 नवम्बर से आमरण अनशन पर बैठे हैं। ये सात मज़दूर संजू, रासिका, रिंकू, हनी, कृष्णा, स्वगतिका, भावना हैं। ख़बर लिखे जाने तक सातों मज़दूर 14 दिनों तक आमरण अनशन जारी किये हुए है। अनशनकारी साथियों में महिला मज़दूर संजू और रासिका अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद अपना संघर्ष जारी रखे हुए है। वहीं दूसरी तरफ़ गुड़गाँव प्रशासन और श्रम विभाग सब कुछ देखकर भी अन्धा-गूंगा- बहरा बना हुआ है। अस्ति मज़दूरों के संघर्ष में मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन, मुंजाल किरुऊ, ऑटोफ़िट, सत्यम ऑटो, बैक्टसर और ऑटो मज़दूर संघर्ष समिति समेत अलग-अलग संगठन उनकी हौसला-अफ़ज़ाई और मदद के लिए उनके बीच पहुँचते रहते हैं।
आज अस्ति में मज़दूरों पर अन्याय, शोषण, अत्याचार की यह अकेली घटना नहीं है। ऑटो सेक्टर की यह पूरी बेल्ट में इस तरह मज़दूरों की हड्डियाँ का चूरा बनाकर कम्पनियाँ मुनाफ़ा कूट रही हैं। और इसके विरुद्ध मज़दूरों की आवाज़ अलग-अलग समय पर अलग-अलग फ़ैक्टरी से उठती ही रही हैं। लेकिन फ़ैक्टरी-कारख़ानों की चौहद्दी में कैद होकर ये आन्दोलन टूट और बिखराव का शिकार हो जाता है। इसलिए अस्ति के मज़दूरों को अपनी फ़ौरी लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी दूरगामी लड़ाई के लिए भी तैयार रहना होगा। क्योंकि आज पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल में ठेका, कैजुअल, ट्रेनी मज़दूर बेहद शोषण और अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए बेबस है। जिन कम्पनियों में यूनियन बनी है, उसका फ़ायदा भी सिर्फ़ स्थायी मज़दूरों को मिलता है। जबकि हम सभी जानते हैं कि मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में बदलाव के बाद स्थायी कर्मचारियों के भी हक़-अधिकारों पर हमला होना तय है। इसलिए स्थायी, कैजुअल और ठेका मज़दूरों को अपनी ठोस एकता कायम करनी होगी, साथ ही पूरे ऑटो सेक्टर के आधार पर गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के मज़दूरों की “ऑटो मज़दूर यूनियन” का निर्माण करना होगा। ज़ाहिरा तौर ऐसी ऑटो सेक्टर मज़़दूर यूनियन मज़दूर आन्दोलन से ग़द्दारी कर चुकी केन्द्रीय ट्रेड से स्वतन्त्र होनी चाहिए।
अस्ति के मज़दूरों का संघर्षः सम्भावनाएँ और चुनौतियाँ
ऑटो मज़दूर संघर्ष समिति की रिपोर्ट
जापानी बहुराष्ट्रीय कम्पनी अस्ती कारपोरेशन की मानेसर (गुड़गाँव) स्थित सब्सिडियरी कम्पनी ‘अस्ति इलेक्ट्रॉनिक्स इंडिया प्राइवेट लि. के बर्खास्त किये गये ठेका मज़दूर पिछले डेढ़ महीने से संघर्ष कर रहे हैं। कम्पनी ने 310 मज़दूरों को काम से निकाल दिया है जिनमें से 250 स्त्री मज़दूर हैं। उल्लेखनीय है कि ये मज़दूर 3-4 वर्षों से ज़्यादा से काम कर रहे थे और उन्हें बिना कोई कारण बताये निकाल दिया। श्रम विभाग की कम्पनी प्रशासन से साँठ-गाँठ है और हरियाणा सरकार का रवैया भी इससे अलग नहीं है। यहाँ तक कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन हिन्दुस्तान मज़दूर संघ (एचएमएस) ने अस्ति के स्थायी मज़दूरों को संघर्षरत ठेका मज़दूरों को अपना खुला और प्रभावी समर्थन देने से रोक दिया है। एटक, सीटू जैसी दूसरी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनों का भी यही रवैया है। उन्होंने भी संघर्ष को सार्थक समर्थन नहीं दिया है और महज़ जुबानी जमाखर्च तक सीमित हैं।
नतीजतन, अस्ति के ठेका मज़दूरों का संघर्ष अपने बूते पर चल रहा है। आन्दोलनरत स्त्री मज़दूरों में से 9 गर्भवती हैं। मज़दूरों की भूख हड़ताल एक सप्ताह से ज़्यादा समय से जारी है। इनमें से दो मज़दूरों की हालत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल के आईसीयू में भरती कराना पड़ा। इसके बाद फैक्टरी के स्थायी मज़दूरों ने ठेका मज़दूरों के साथ एकजुटता दिखाते हुए लंच लेने से इंकार कर दिया। लेकिन महज़ यह प्रतीकात्मक समर्थन काफी नहीं है। चाहने के बावजूद परमानेंट मज़दूर एचएमएस की नीतियों के विरोध में नहीं गये, जिसके साथ उनकी यूनियन जुड़ी हुई है। एचएमएस लगातार इस कोशिश में है कि आन्दोलन को कम्पनी के मैनेजमेंट और श्रम विभाग के लिए सुरक्षित दायरे के भीतर ही बनाये रखा जाये। संघर्षरत मज़दूरों की हालत बिगड़ रही है और उन्हें आन्दोलन जारी रखने के लिए राजनीतिक और वित्तीय मदद की ज़रूरत है। इस बीच आस्ट्रेलिया एशिया वर्कर्स लिंक और ऑटो मज़दूर संघर्ष समिति की पहल पर कई देशों की यूनियनों और मज़दूर संगठनों से एकजुटता सन्देश भी आने लगे हैं। ब्राज़ील के एक संगठन टी.आई.ई. ने अपने देश में इस संघर्ष के बारे में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है।
लेकिन अस्ति के मज़दूर संघर्ष के सामने कठिन चुनौतियाँ मौजूद हैं। इनमें सबसे अहम चुनौती है संघर्ष की सही रणनीति तय करना। किसी भी आन्दोलन को आगे बढ़ने के लिए दो पैरों पर चलना होता है। पहला, सड़कों पर चलने वाला संघर्ष, और दूसरा, क़ानूनी संघर्ष। अस्ति के ठेका मज़दूरों ने इस लड़ाई में शानदार साहस दिखाया है और वे दृढ़ता के साथ मोर्चे पर जमे हुए हैं। लेकिन, चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं और उनका सामना करने के लिए एक स्पष्ट और विस्तृत रणनीति ज़रूरी है। यह स्पष्ट है कि मज़दूरों को साथ लेने के लिए ज़्यादा कारगर क़दम उठाने होंगे। खासकर दूसरे कारख़ानों के ठेका और कैजुअल मज़दूरों को। चुनावी पार्टियों से जुड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनें इस रास्ते में एक बड़ा रोड़ा बनी हुई हैं। पिछले संघर्षों का अनुभव बताता है कि उन्होंने कभी आन्दोलन को आगे बढ़ाने में भूमिका नहीं निभायी। वे हमेशा आन्दोलन को नपुंसक औपचारिक क़ानूनी कार्रवाइयों के दायरे में बाँधे रखती रही हैं। यहाँ भी, एचएमएस अब तक मज़दूरों को हतोत्साहित करने का ही काम करता रहा है और आगे इस भूमिका में बदलाव आयेगा, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता। फिर भी, इन चुनौतियों के बावजूद, अगर ठेका मज़दूर केन्द्रीय यूनियनों के नौकरशाहों को दरकिनार करके सीधे एक-दूसरे से मिलें तो तमाम कारख़ानों की एक यूनियन बनायी जा सकती है। बेशक, यह काम आसान नहीं है, लेकिन यही एकमात्र रास्ता है। इलाके के सभी कारख़ानों के मज़दूरों के बीच, ख़ासकर कैजुअल और ठेका मज़दूरों के बीच, एकजुटता के कारगर रिश्ते कायम करना आज अत्यावश्यक है।
आन्दोलन के सामले दूसरी चुनौती एक स्पष्ट राजनीतिक दृष्टिकोण की है। आज किसी भी आन्दोलन के लिए ज़रूरी है कि वह मज़दूर आन्दोलन में मौजूद विजातीय प्रवृत्तियों के बारे में सचेत रहे, ख़ासकर अराजकतावादी- संघाधिपत्यवादी संगठनों और एनजीओ-मार्का संगठनों से जो ‘सहायता’ करने का दावा करते हैं। साथ ही, उन्हें प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों से जुड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों से सावधान रहना होगा। अस्ति के मज़दूरों के आन्दोलन के सामने अपने सच्चे राजनीतिक मित्रों की पहचान करने की भी चुनौती है। संघर्षरत मज़दूर अपने अनुभवों से तेज़ी से इसे सीख भी रहे हैं। इस लड़ाई के दौरान मज़दूरों ने काफी कुछ सीखा है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि राजनीतिक दोस्त-दुश्मन की पहचान करने का काम भी मज़दूर सफलतापूर्वक पूरा करेंगे। सवाल है कि कब तक? हमारे पास कितना समय है?
जहाँ तक क़ानूनी संघर्ष की बात है, यह साफ है कि इलाक़े के उप श्रमायुक्त कार्यालय विवाद को हल करने के लिए अपनी ओर से कोई सक्रिय क़दम नहीं उठाने जा रहा। बल्कि वह मज़दूरों से लम्बा इन्तज़ार कराने की चाल चल रहा है। मज़दूर आन्दोलनों को तोड़ने में अतीत में यह चाल काफी कामयाब रही है क्योंकि क़ानूनी समाधान में बहुत देर होने पर मज़दूरों की धीरज चुकने लगता है। तो फिर रास्ता क्या है? मज़दूरों को सीधे हाई कोर्ट जाना चाहिए और डीएलसी कार्यालय को विवाद जल्द से जल्द सुलझाने का निर्देश दिलवाने का फैसला हासिल करना चाहिए क्योंकि यहाँ सैकड़ों मज़दूरों, ख़ासकर स्त्री मज़दूरों के अस्तित्व का सवाल है। हमें मानना होगा कि अब तक आन्दोलन की क़ानूनी रणनीति पूरी तरह सही नहीं रही है। अगर मज़दूर नवम्बर के मध्य में ही हाई कोर्ट में चले गये होते, तो डीएलसी कार्यालय को तारीख पर तारीख देते रहने के बजाय कोई कारगर कार्रवाई करनी पड़ती। लेकिन गलत क़ानूनी सलाह के कारण ऐसा नहीं हो सका। इस कारण से भी, अस्ति के मज़दूर आन्दोलन के लिए अपने सच्चे दोस्तों और विजातीय प्रवृत्तियों की पहचान करना ज़रूरी है। अगर आन्दोलन विवाद के हल के लिए हाई कोर्ट में जाने का क़ानूनी क़दम उठाता है तो क़ानूनी लड़ाई आगे बढ़ सकती है। इससे संघर्षरत मज़दूरों का उत्साह भी बढ़ेगा। जैसाकि हमने पहले कहा है, दोनों तरह के संघर्षों के बीच सीधा रिश्ता होता है।
अस्ति का मज़दूर आन्दोलन आज दो स्तरों पर इन्हीं चुनौतियों का सामना कर रहा हैः सड़क का संघर्ष और क़ानूनी संघर्ष। जब तक इन दोनों स्तरों पर समस्याएँ बनी रहेंगी, आन्दोलन को लम्बे समय तक जारी रखना कठिन होता जायेगा। दूसरी ओर, अगर अस्ति के मज़दूरों का नेतृत्व इन चुनौतियों की पहचान करने में सफल रहा और उन्हें हल करने की दिशा में आगे बढ़ा, तो संघर्ष आगे जा सकता है और इलाके के अन्य कारख़ानों के मज़दूरों से समर्थन भी हासिल कर सकता है। यह तमाम कारख़ानों के ठेका और कैजुअल मज़दूरों का साझा संघर्ष भी बन सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014
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