5 दिसम्बर को जन्तर-मन्तर पर 11 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के “प्रतिरोध दिवस” की एक और रस्म अदायगी!
क्या भगवा और नक़ली लाल का गठजोड़ मज़दूरों आन्दोलन को आगे ले जा सकता है?
अजय
5 दिसम्बर को संसद मार्ग जन्तर-मन्तर पर मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी बदलाव के खि़लाफ़ देश की 11 ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मोर्चा ने प्रतिरोध दिवस बनाया गया। गुरूदास गुप्ता, हरभजन सिद्धू जैसे बड़े-बड़े ट्रेड यूनियन नेताओं ने फिर रटे-रटाये भाषणों की छड़ी लगायी। सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने मोदी सरकारों द्वारा श्रम-क़ानूनों में बदलाव पर विरोध दर्ज कराया। इस विरोध-प्रदर्शन में लगभग 3000 मज़दूरों ने शिरकत की। असल में दिल्ली और आस-पास से आये ज़्यादातर मज़दूरों के लिए प्रदर्शन किसी पिकनिक से कम नहीं था। क्योंकि वे भी जानते हैं कि सुंयक्त केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के प्रदर्शन की ये नौटंकी कोई नयी नहीं। हर साल-दो साल में ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें विरोध-प्रदर्शन की रस्म अदायगी करके मज़दूरों के बीच भ्रम बनाने की कोशिश करती हैं कि हमें ही मज़दूरों के सच्चे प्रतिनिधि (असल में धन्धेबाज़) हैं। लेकिन सबसे मज़ेदार बात यह है कि श्रम क़ानूनों में हो रहे बदलाव पर संसद में बैठी इनकी पार्टियाँ मौन हैं। वहीं संसदीय वामपन्थी पार्टियों की यूनियनों जैसे सीटू, एटक, एक्टू से लेकर अन्य चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियन इण्टक, बीएमएस लम्बे समय बाद चुप्पी तोड़कर जुबानी जमाख़र्च करते हुए शिकायत कर रही है कि संशोधनों के प्रावधानों के बारे में उनसे कोई सलाह नहीं ली गयी यानी कि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की मुख्य शिकायत यह नहीं थी कि पहले से ढीले श्रम क़ानूनों को और ढीला क्यों बनाया जा रहा है, बल्कि यह थी कि यह काम पहले उनसे राय-मशविरा करके क्यों नहीं किया गया।
वहीं दूसरी ओर केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ की इस बारात में धुरीविहीन “इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र” भी अपने 20-25 मज़दूरों के साथ शामिल बाजे की तरह पहुँच गये। असल में इंमके की अवसरवादी ट्रेड यूनियनवादी समझदारी यही है कि किसी तरह केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ के पूँछ बनकर लटक रहे। असल में न तो इंमके को केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ ने मंच पर कोई जगह दी और न ही इनके किसी वक्ता ने कोई बात रखी। बस ये जन्तर-मन्तर पर चल रही राष्ट्रीय दलित महासभा और केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ के प्रदर्शन के बीच ख़ाली जगह पर अपने बैण्ड-बाजा लेकर बैठे रहे। जिसको न तो कोई सुन रहा था और न ही कोई देख रहा था। साफ़ है कि मज़दूरों के बीच लोकरंजक तरीक़े से ट्रेड यूनियन के काम करने की विजातीय प्रवृति इंमके को अवसरवादी ट्रेड यूनियनवाद के विचलन तक ले जाती है।
असल में ये चुनावबाज़ पार्टियों की केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ कथनी में तो मज़दूरों की रहनुमाई का दावा करते हैं, लेकिन करनी में इनका काम मालिकों, प्रबन्धन और सरकार की ओर से दलाली करना और मज़दूर आन्दोलन को ऐसे समझौतों तक सीमित रखना है जिनमें हमेशा प्रबन्धन का पक्ष मज़दूरों पर हावी रहता है। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और विधानसभाओं में हमेशा मज़दूर-विरोधी नीतियाँ बनाती हैं तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारख़ाना लगाने के लिए ग़रीब मेहनतकशों का क़त्लेआम हुआ तो सीपीआई व सीपीएम से जुड़ी ट्रेड यूनियनों ने इसके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरों के हक़ों को छीनती हैं तो भारतीय मज़दूर संघ, इण्टक आदि जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? ज़्यादा से ज़्यादा चुनावी पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें इस तरह रस्मी प्रदर्शन या विरोध की नौटंकी करती हैं। ऐसे में, इन चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों से हम मज़दूर क्या कोई उम्मीद रख सकते हैं? पिछले कई वर्षों से लगातार इन ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी को देखने के बावजूद क्या हम इनके भरोसे रहने को तैयार हैं? बार-बार धोखा खाने के बावजूद क्या हम इन्हीं पर निर्भर रहेंगे? हर साल ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें “आम हड़ताल”, “भारत बन्द” या “प्रतिरोध दिवस” के कर्मकाण्ड का आयोजन करती हैं, जिसमें बैंक, बीमा से लेकर रेल के सरकारी कर्मचारियों की वेतन-भत्ते की माँगें सबसे ऊपर होती हैं और केवल भीड़ जुटाने के लिए ये असंगठित मज़दूरों की माँगों को रख लेते हैं। वास्तव में इन दिखावटी हड़तालों से ये मज़दूरों के गुस्से की आग पर पानी के छींटे मारने और उन्हें चन्द टुकड़े दिलवाने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं। ज़्यादातर ऐसी रैलियों में शामिल हुए मज़दूर भी जानते हैं कि एक-दो दिन के दिखावटी विरोध-प्रदर्शन या हड़ताल से मालिकों को खुजली भी नहीं होने वाली। वैसे भी देश की 12 केन्द्रीय यूनियनों के पास पूरे देश के 46 करोड़ मज़दूरों में से सिर्फ़ 5 करोड़ मज़दूरों की सदस्यता है। यानी, पूरे देश की 90 फ़ीसदी मज़दूर आबादी अभी भी इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के दायरे से बाहर है। साफ़तौर पर केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ दिखाने के लिए एक साथ है, लेकिन वास्तव में फ़ैक्टरी-कारख़ानों के स्तर पर ये मज़दूरों के संघर्ष में अलग-अलग दुकानदारी चलाते हैं। तभी सीटू, एटक, इण्टक, एक्टू, बीएमएस से लेकर एचएमएस जैसी यूनियनों के पास न तो मज़दूर आन्दोलन को आगे ले जाने का कोई रास्ता है और न ही इनकी ऐसी कोई मंशा है। वास्तव में, ट्रेड यूनियन आन्दोलन में इनकी भूमिका सिर्फ़ दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार को कुन्द करना और इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देना और साथ ही पूँजीपति वर्ग के दलाल की भूमिका निभाना है।
इसलिए हमें आज सही क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए पहले क़दम से मज़दूर वर्ग की ग़द्दार इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के चरित्र को मज़दूरों के सामने पर्दाफाश करना होगा। साथ ही आज के समय में नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए मज़दूरों की पूरे सेक्टर (जैसे ऑटो सेक्टर, टेक्सटाइल सेक्टर) की यूनियन और इलाक़ाई यूनियन का निर्माण करना होगा। क्योंकि मज़दूर से छीने जा रहे श्रम-क़ानूनों की रक्षा भी जुझारू मज़दूर आन्दोलन ही कर सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन