आपस की बात
मुनाफ़े की व्यवस्था में हम मज़दूरों का कोई भविष्य नहीं
अनूप तिवारी, सादतपुर विस्तार, दिल्ली
मेरा नाम अनुप तिवारी, उम्र 37 साल है और मैं ज़िला आरा, बिहार का मूल निवासी हूँ। मैं 1992 में रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आया था। शुरु में मैंने एक ख़राद मशीन पर काम किया, फिर एक ब्रेक बनाने वाली फ़ैक्टरी में काम पकड़ा। फ़ैक्टरी का न. के-250, करावल नगर था और मालिक का नाम अमरीत सिंह था। मुझे महीने का 850 रु वेतन मिलता था। चार महीने काम करने के बाद मेरा हाथ मशीन में आ गया जिससे दायें हाथ की पहली दो अँगुलियाँ तो एकदम पिस गयी और बाक़ी दो अँगुलियाँ भी कट गयीं। मशीन की खराबी के बारे में हमने पहले ही मालिक को बताया था किन्तु उसने कोई ध्यान नहीं दिया। दुर्घटना के बाद मालिक ने बेटा-बेटा करके बहलाया और कहा कि मैं इलाज करा दूँगा और जब तक ठीक नहीं हो जाते पूरी तनख़्वाह भी दूँगा। घायल हाथ पर बन्धी पट्टी को गले में लटकाकर और दूसरे हाथ में टिफिन लेकर मैं फ़ैक्टरी आता और झाड़ू-बुहारी करके घर चला जाता। यह सब 5-6 दिन ही चल पाया था, फिर मालिक मुझे यह कहकर लक्ष्मीनगर ले गया कि वहाँ उसके भाई की फ़ैक्टरी है और उसमें एक आदमी की ज़रूरत है। वहाँ जाने पर मालिक व उसके भाई ने कुछ काग़ज़ों पर दस्तख़त करने को कहा, लेकिन पहले हमसे कभी भी दस्तख़त नहीं कराये जाते थे, मुझे दाल में कुछ काला लगा तो मैंने मना कर दिया। इसके बाद मालिक अपने असली रंग में आ गया, मेरे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती व मार-पीट की गयी और फिर भी न मानने पर मुझे कमरे में बन्द कर दिया गया। वहाँ से मैं पेशाब करने के बहाने जान छुड़ाकर भागा। मेरे एक हाथ में पट्टी थी, दूसरे में खाने का टिफिन और पैसे से जेब ख़ाली। किसी तरह बड़ी मुश्किल से मैं घर पहुँच पाया। मैं करीब 10 साल तक वकीलों, यूनियनों और लेबर कोर्टों के चक्कर काटता रहा, मैनें हाथ की दो अँगुलियाँ तो गँवाई ही साथ में काफ़ी पैसा भी केस में ख़र्च कर दिया, लेकिन अन्त में थकान और निराशा के अलावा कुछ नहीं हाथ लगा। वह वक़्त था और आज का वक़्त है मैंने कई तरह के काम पकड़े पर हर जगह मज़दूरों की मेहनत की भयंकर लूट होती है। आज मैं पी.वी.सी. लाइन पर कारीगर के तौर पर काम करता हूँ किन्तु मेरा वेतन कुल 6,500 रुपये है जबकि दिल्ली सरकार का कुशल मज़दूर का न्यूनतम वेतन 10,374 रुपये है। काम के दौरान ख़ूब धूल-धुआँ और बदबूदार गैस उड़ती है जिससे फेफड़ों के खराब होने का पूरा ख़तरा होता है। मालिक को हमारी सेहत नहीं चाहिए उसे केवल अपना मुनाफ़ा चाहिए। मज़दूर भाइयो, यह केवल मेरी कहानी नहीं है बल्कि देश के करोड़ों मज़दूरों की ऐसी ही कहानियाँ हैं। आज हम एकजुट होकर ही मुनाफ़े की इस व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ सकते हैं। हमें इस लड़ाई में मिठबोले मालिकों, धन्धेबाज वकीलों, और दलाल यूनियनों से भी सावधान रहना होगा।
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