लाज एक्सपोर्ट के मज़दूर और किराये के नेता!

बिगुल संवाददाता

दलाल यूनियन नेताओं के जाल में फँसे मज़दूर किस क़दर असहाय हो सकते हैं इसका ताज़ा उदाहरण नोएडा के जे-1, सेक्टर-63 स्थित लाज एक्सपोर्ट लिमिटेड में देखने को मिला। यह कम्पनी 1998 से काम कर रही है। आज इसमें क़रीब 500 मज़दूर काम करते हैं जिसमें क़रीब 125 महिला मज़दूर भी हैं। इस कम्पनी में बने सिले-सिलाये कपड़े विदेशी बाज़ारों में निर्यात किये जाते हैं जिसकी मुख्य ख़रीददार अमेरिका की वॉलकॉम कम्पनी है जिसके आलीशान शोरूम उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, अफ़्रीका और एशिया के कई देशों में हैं।

लाज एक्सपोर्ट के मज़दूरों की शिकायत थी कि कम्पनी उनकी मज़दूरी में से 12.5 प्रतिशत पीएफ़ का पैसा तो काट रही है लेकिन उसे उनके पीएफ़ अकाउण्ट में जमा नहीं करवा रही है। एक मज़दूर ने बताया कि जब वह अपना अकाउण्ट चेक करने पीएफ़ विभाग गया तो वहाँ उसे बताया गया कि दिया गया अकाउण्ट नम्बर फ़र्ज़ी है। मज़दूरों ने बताया कि पहले तो उन्हें वेतन पर्ची भी नहीं दी जाती थी। लेकिन काफ़ी दबाव बनाने के बाद जब यह मिलने भी लगी तो उसमें लाज एक्सपोर्ट की जगह एम.एम. इण्टरप्राइज़ेज़ या डी.के. इण्टरप्राइज़ेज़ का नाम लिखा आने लगा। इस वेतन पर्ची पर कोई मुहर नहीं होती और न ही उस पर जारीकर्ता के हस्ताक्षर रहते हैं। इन वेतन पर्चियों पर कम्पनी का पता भी जे-1, सेक्टर-63 की जगह सेक्टर-62 का पता छपा रहता है। मज़दूरों का कहना है कि जब वे वेतन पर्ची पर दिये गये पते पर मालूम करने गये तो वहाँ पर कोई और ही कम्पनी काम कर रही थी।

एक महिला मज़दूर ने बताया कि उनके काम के हालात बेहद ख़राब हैं। कम्पनी किसी भी क़िस्म की सुविधा नहीं देती। यहाँ तक कि कम्पनी के भीतर प्राथमिक उपचार तक की सुविधा नहीं है। उसने बताया कि एक महिला को नर्स के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन हक़ीकत में वो एक ऑपरेटर है और कम्पनी में मज़दूरी करती है। महिला मज़दूरों की सुरक्षा को लेकर कम्पनी कितनी फ़ि‍क्रमन्द है इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विक्रम गुप्ता नाम का कम्पनी अधिकारी महिला शौचालयों तक में घुस जाता है। मज़दूरों ने बताया कि उन्हें क़ानूनी तौर पर नियत छुट्टियाँ जैसे ईएल, पीएल, सीएलएसएल आदि तक नहीं मिलती। मज़दूरी में बढ़ोतरी की बात तो छोड़ ही दी जाये, नियमित रूप से लगने वाले महँगाई भत्ते का भुगतान भी नहीं किया जाता।

कम्पनी की बेईमानियों के खि़लाफ़ मज़दूर पहले से ही आक्रोशित थे। हाल ही में कम्पनी ने ओवरटाइम में एक घण्टे की कटौती भी कर दी। मज़दूरों को महसूस हुआ कि इस तरह तो उनकी मासिक आमदनी काफ़ी घट जायेगी और वे पीएफ़ अकाउण्ट में धाँधली के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने लगे। 1 नवम्बर को जब विवाद ज़्यादा बढ़ गया तब दोपहर साढ़े तीन बजे कम्पनी ने गुण्डे बुलवाये और मज़दूरों को धक्के देकर कम्पनी से बाहर कर दिया गया। गुण्डों ने महिला मज़दूरों के साथ बदसलूकी और मारपीट भी की। मज़दूर इस अन्याय की शिकायत के लिए रिपोर्ट लिखवाने सेक्टर-63 की पुलिस चौकी पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि कम्पनी का एक दलाल चौकी इंचार्ज से बातचीत कर रहा था। जैसा कि होना ही था, चौकी इंचार्ज ने मज़दूरों की रिपोर्ट लिखने से इन्कार कर दिया और उन्हें वापस कम्पनी जाने की सलाह दी। आमतौर पर देखा गया है कि ऐसे हालात में मज़दूर अपने संघर्षों को दिशा देने के लिए किराये का नेता ढूँढ़ने निकल पड़ते हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि मज़दूर अपने गली-मुहल्लों में ट्रेड-यूनियन की दुकान खोले नेताओं को ही आन्दोलन की बागडोर सौंप देते हैं। लाज एक्सपोर्ट के मज़दूरों ने भी यही किया। मज़दूरों के बुलावे पर पाँच-छह दलाल नेता उनके बीच पहुँच गये। पहले तो ये दलाल आपस में ही बन्दरबाँट के लिए खींचातानी करते हुए दिखे, लेकिन जल्दी ही उनके बीच एकता क़ायम हो गयी। एक दलाल नेता क़रीब सौ-सवा सौ मज़दूरों को लेकर अपने खोड़ा कार्यालय पर पहुँच गया। बाक़ी मज़दूर सम्भवतः हताश होकर छिटक गये और अपने-अपने घरों की ओर चले गये। जब नेताओं ने देखा कि सौ-सवा सौ मज़दूर उनके कहने में आ चुके हैं और अब उनके सामने कहीं और जाने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचा है तब उन्होंने मज़दूरों को दबे स्वरों में धमकाना शुरू किया और यहाँ तक कहा कि अगर कम्पनी वालों से पैसा मिले तो हम वह भी लेने को तैयार हैं।

इस घटना के बाद लाज एक्सपोर्ट के ही कुछ मज़दूरों से व्यक्तिगत बातचीत के दौरान पता चला कि ज़्यादातर मज़दूर एकता के अभाव को अपनी असफलता का मुख्य कारण मान रहे हैं। यह बात एक हद तक सही भी है। लेकिन क्या आज मज़दूर यह जानते हैं कि उनके बीच एकता कैसे क़ायम हो पायेगी? इसका रास्ता क्या होगा? अगर मज़दूर किसी भ्रष्ट नेता या दलाल यूनियन या फिर किसी पूँजीवादी दल के इर्द-गिर्द संगठित हो भी जायें तो क्या वे पूँजी के विरुद्ध अपने संघर्षों को सही दिशा में बढ़ा सकने में सफल होंगे?

 

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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