3 तेल कम्पनियों को “नुक़सान” पूर्ति के लिए 11 हज़ार करोड़ की सरकारी मदद

रौशन

Cartoon-Oil-Companyभारत सरकार ने देश की तीन प्रमुख तेल कम्पनियों को “नुक़सान” पूर्ति के लिए चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में 11000 करोड़ रुपये बाँटे हैं। इन में से 6,076 करोड़ रुपये इण्डियन ऑयल निगम को, 2407 करोड़ रुपये भारत पेट्रोलियम निगम को और 2517 करोड़ रुपये हिन्दोस्तान पेट्रोलियम निगम को दिये गये हैं। अख़बारी ख़बरों में कहा जा रहा है कि यह राशि तेल कम्पनियों के नुक़सान की पूर्ति के लिए दी जा रही है। ख़बरों के मुताबिक़ इन कम्पनियों को अप्रैल से जून तक के तीन माह में पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री में 28,690 करोड़ रुपये का घाटा पड़ा है। इस घाटे की पूर्ति के लिए एक तो इन तेल कम्पनियों को गैस कम्पनियों की तरफ़ से गैस सस्ती मुहैया करवाई जाती है और बाक़ी घाटा सरकार की तरफ़ से पूरा किया जाता है। गैस कम्पनियों की तरफ़ से 15,500 करोड़ से अधिक की छूट दी गयी है और 11000 करोड़ रुपये सरकार दे रही है, इसके बाद भी इन कम्पनियों को 2500 करोड़ रुपये के करीब नुक़सान हो रहा है।

किसी को भी यह लग सकता है कि जनता को पेट्रोलियम उत्पाद सस्ते देने के कारण हुए नुक़सान की पूर्ति के लिए सरकार की तरफ़ से सब्सिडी देना किसी भी तरह से ग़लत नहीं है। लेकिन वास्तव में “घाटा पूर्ति” शब्द जनता को भरमाने का एक शब्द-जाल है। होता यह है कि हर कम्पनी अपने पिछले कारोबार के चक्र के आधार पर मुनाफ़ों का एक लक्ष्य तय करती है और एक चक्र पूरा होने पर जब हिसाब किया जाता है तो जिस चीज़ को वह “नुक़सान” कहते हैं उसका मतलब यह नहीं होता कि उस कम्पनी ने अपने उत्पाद उनकी लागत से कम पर बेचे हैं, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि कम्पनी को मुनाफ़ा तो हुआ है लेकिन उतना नहीं जितना वह कमाना चाहती थी और इस पहले से तय लाभ और असली लाभ के बीच के फ़र्क़ को वह “घाटे” का नाम देती है। मिसाल के तौर पर एक कम्पनी 100 करोड़ रुपये निवेश करके 500 करोड़ कमाने का लक्ष्य रखती है, चक्र पूरा होने के बाद उसकी कुल आमदनी 400 करोड़ बनती है तो यह नहीं कहा जाता कि कम्पनी को 300 करोड़ का मुनाफ़ा हुआ बल्कि यह कहा जाता है कि कम्पनी को 100 करोड़ का घाटा पड़ा। यही कुछ तेल कम्पनियों के मामलों में होता है। पहले तो यह तेल कम्पनियाँ जनता की अच्छी तरह से खाल उधेड़कर मोटे मुनाफ़े बटोरती हैं और बाद में सरकार आम जनता से टैक्स के रूप में वसूले पैसे इन कम्पनियों को “घाटा पूर्ति” के नाम पर लुटा देती है। फिर इस भारी ‘सब्सिडी’ की दुहाई देकर तेल और गैस की कीमतें बढ़ाने का खेल शुरू हो जाता है।

फिलहाल तेल की कीमतों में मामूली कटौती से जनता को ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में भारी कमी का थोड़ा सा फ़ायदा जो अभी मिल रहा है वह कच्चे तेल के दाम बढ़ते ही काफ़ूर हो जायेगा।

जहाँ 3 कम्पनियों को तीन महीनों में ही 11 हज़ार करोड़ रुपये बाँटे गये हैं, वहीं सरकार दूसरी तरफ़ देश की करोड़ों कामगार जनता, नौजवानों और बच्चों के रहन-सहन, खान-पान, सेहत, शिक्षा और रोज़गार जैसी सहूलियतें देने से हाथ खींचती जा रही है। देश के 33 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, 60 प्रतिशत से अधिक जनता को पीने के लिए साफ़ पानी उपलब्ध नहीं, सरकारी स्कूलों, अस्पतालों की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है और यह भी पूँजीपतियों की लूट के अड्डे बन रहे हैं, करोड़ों बच्चे स्कूल जाने की जगह बाल-मज़दूरी करने पर मजबूर हैं और करोड़ों नौजवान हाथ में डिग्रियाँ लेकर रोज़गार की खोज में भटकते फिरते हैं।

इन दोगली नीतियाँ से साफ़ है कि ये सरकारें तो मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हाथों में खेलती कठपुतलियाँ हैं जो जनता को लूटने, पीटने और भरमाए रखने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। जनता के हाथ में वोटों की पर्ची थमाकर उनसे सरकार “चुनने” का ढोंग करके उन्हें भ्रमित किया जाता है और पूँजीपति मोटे मुनाफ़े काटते हैं। ऐसे राजनैतिक ढाँचे और ऐसी सरकारों से जनता की भलाई की कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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