निठारी काण्ड का फैसला: पूँजीवादी व्यवस्था में ग़रीबों-मेहनतकशों को इंसाफ़ मिल ही नहीं सकता
श्वेता
एक बार फिर ‘‘न्याय’’ का तराजू अमीरों के पक्ष में झुक गया। भारतीय न्यायपालिका ने रईसों के प्रति अपनी पक्षधरता को जाहिर करते हुए एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता के लिए इस न्याय व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है, न्यायपालिका की निष्पक्षता की तमाम लच्छेदार बातें महज़ एक भ्रम है और न्यायपालिका अन्य संस्थाओं की ही तरह देशी-विदेशी पूँजी एवं उसके चाटुकारों की सेवा में पूरी तरह सन्नद्ध है।
बीती 24 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मोनिन्दर सिंह पंढेर को ‘‘पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव’’ में रिहा करने का आदेश जारी किया। यह वही उद्योगपति पंढेर है जिसने नोएडा के सेक्टर 31 से सटे निठारी गाँव में ग़रीब मेहनतकशों के मासूम बच्चों की नृशंस हत्या को अंजाम दिया था। वर्ष 2006 में पंढेर के घर के पिछवाड़े के नाले से और आसपास की जमीन की खुदाई के दौरान बच्चों के 19 कंकाल बरामद हुए थे। ज्ञात हो कि वर्ष 2004 से ही निठारी गाँव के ग़रीब मेहनतकशों के 38 बच्चे और आसपास के इलाकों के 98 बच्चे ग़ायब हो चुके थे। बच्चों के परिजन जब पुलिस थाने में बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराने जाते थे तो पुलिस उन्हें डाँटकर, डरा-धमकाकर, गाली-गलौज करके थाने से भगा देती थी। कई बार गाँव के कुछ लोगों ने बच्चों की गुमशुदगी के मामले में पंढेर पर संदेह भी जताया, लेकिन पंढेर के कुकृत्यों की जाँच करने की बजाय पुलिस इस पूरे मामले में आँख मूँदकर और कान में तेल डालकर बैठी रही।
पंढेर की कोठी के पिछवाड़े से नरकंकालों के बरामद होने के बाद पंढेर सहित उसके नौकर सुरेन्द्र कोली को गिरफ्तार किया गया। पूछताछ करने पर पता चला कि कोली आसपास के इलाकों से ग़रीब बच्चों को बहला-फुसलाकर पंढेर की कोठी पर लाया करता था जहाँ दोनों मनोरोगी बच्चों से दुष्कर्म करके उनकी हत्या कर देते थे। जाँच के आगे बढ़ने के साथ यह बात भी सामने आयी कि मामला केवल दुष्कर्म और हत्या तक ही सीमित नहीं था। बच्चों के अधूरे कंकालों के मिलने से यह भी स्पष्ट होने लगा कि यह मामला मानव अंगों के व्यापार से भी जुड़ा हुआ था। ग़ौरतलब है कि पंढेर की कोठी के साथ ही नवीन चौधरी नाम के एक डाक्टर का बंगला सटा हुआ था जिसका नाम ग़रीबों के गुर्दे निकालकर बेचने के मामले में पहले ही सामने आ चुका था। हालाँकि सबूतों के अभाव का रोना रोकर उसे बेदाग बरी कर दिया गया था। जाँच के दौरान विलासी धनपशु पंढेर और उसके मनोरोगी नौकर कोली द्वारा बच्चों के माँस को भूनकर खाने और मृत शरीर से यौन संबन्ध बनाने जैसे घिनौने, उबकाई पैदा करने वाले और रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य भी उजागर हुए। मोनिन्दर पंढेर के कुकर्मों के सामने आने पर गुमशुदा बच्चों के गुस्साये परिजनों ने जब उसके घर पर पथराव किया तो पुलिस ने पूरी तत्परता के साथ क़ानून व्यवस्था को बनाये रखने की दुहाई देकर उन ग़रीबों पर जमकर लाठियाँ बरसाईं।
निठारी काण्ड में पंढेर और कोली की गिरफ्तारी के बाद दोनों ने ही पुलिस हिरासत में अपने घिनौने कृत्यों को स्वीकार किया। बाद में यह मामला सीबीआई के पास चला गया। सीबीआई ने मामले की गम्भीरता से जाँच करने की बजाय वर्ष 2007 में पंढेर को क्लीन चिट दे दी। इसका मृत बच्चों के परिजनों ने जमकर विरोध किया। अन्य हलकों से भी विरोध के स्वर उठने पर सीबीआई ने नये सिरे से आरोप पत्र में पंढेर पर केवल मानव तस्करी का आरोप लगाया, उसे बलात्कार और हत्या के आरोपों से पूरी तरह बरी कर दिया गया। ग़ौरतलब है कि सीबीआई ने अपने किसी भी आरोप पत्र में पंढेर द्वारा पुलिस हिरासत में अपने कुकृत्यों की स्वीकृति का कोई हवाला नहीं दिया। बहरहाल सीबीआई ने पंढेर के नौकर कोली को 19 बच्चों के बलात्कार व हत्या का दोषी करार दिया, पर पंढेर को बचाने के लिए वह इस कदर गिर गयी कि उसने कहना शुरू कर दिया कि इस पूरे काण्ड में कोली के कुकृत्यों के बारे में पंढेर को कुछ भी नहीं पता था क्योंकि वह अकसर काम के सिलसिले में शहर से बाहर रहता था। बाद में एक मृत बच्चे के परिजन ने जब सीबीआई पर मुख्य आरोपी पंढेर को बचाने का इल्ज़ाम लगाया तब कहीं जाकर अपनी नाक कटने से बचाने के लिए सीबीआई ने पंढेर को दो बच्चों के बलात्कार एवं हत्या के मामलों में दोषी ठहराया। इसी आधार पर वर्ष 2009 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने पंढेर और कोली को मौत की सज़ा सुनाई।
अदालत के इस फैसले के खि़लाफ़ पंढेर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दाखिल की। उच्च न्यायालय ने पंढेर को मौत की सज़ा के फैसले से बरी कर दिया जबकि नौकर कोली की सज़ा बरकरार रखी गयी। यह अनायास नहीं है कि उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान नोएडा के पुलिस अधिकारियों (सब-इंस्पेक्टर से लेकर सर्किल ऑफिसर तक) पर लाखों रुपयों की बरसात की गयी। उनके लिए पंढेर ने दावतें सज़ायीं। उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान पंढेर ने अपने इन ‘‘वफ़ादार और पालतू’’ पुलिस अधिकारियों की इलाहाबाद की यात्राओं का विशेष रूप से एसी फर्स्ट क्लास में प्रबन्ध करवाया। नोएडा के जिस थाने में पुलिस हिरासत के दौरान पंढेर ने अपने कुकृत्यों को कबूला था, वहाँ केस से सम्बन्धित सभी काग़ज़ों को नष्ट कर दिया गया। बहरहाल इस पूरे घटनाक्रम के बाद वर्ष 2011 में उच्चतम न्यायालय ने पंढेर के नौकर कोली की मौत की सज़ा को बरकरार रखा। राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका ख़ारिज हो जाने के बाद फिलहाल 28 अक्टूबर को उसकी फाँसी की तारीख निश्चित की गयी है। हालाँकि सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि दिल दहलाने वाले इस बर्बर काण्ड को अंजाम देने वाले मास्टरमाइंड पंढेर को पर्याप्त सबूतों के अभाव की लफ्फाजी करते हुए बाइज्जत बरी कर दिया गया है। यह है भारतीय न्यायपालिका का असली चेहरा।
निठारी काण्ड के बाद वर्ष 2006-2014 तक के इस पूरे घटनाक्रम ने मुख्यतः तीन बातों को स्पष्ट कर दिया है। पहला, ग़रीब मेहनतकशों के मासूम बच्चों के जीवन और उनकी सुरक्षा का इस मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था में कोई मोल नहीं है। आज बहुत बड़े पैमाने पर ग़रीबों के बच्चों को अगवा कर उनकी तस्करी से भारी मुनाफ़ा कमाया जा रहा है। अवैध बाल तस्करी के तहत बच्चों को भीख माँगने, घरेलू मज़दूरों के रूप में खटाने एवं यौन व्यापार में झोंकने का काम किया जा रहा है। घरेलू मज़दूरों के रूप में बच्चों को खटाकर और उनके यौन शोषण से होने वाले व्यापार से हर साल 21 लाख करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया जा रहा है जो देश के सकल घरेलू उत्पाद का पाँचवा हिस्सा है। देश में हर साल करीब एक लाख लड़कियाँ अगवा कर ली जाती हैं। अगर वर्ष 2013-14 की ही बात कर ली जाये तो कम से कम 67000 बच्चे लापता हुए थे जिनमें से 45 प्रतिशत नाबालिगों को यौन व्यापार में धकेल दिया गया था। यह स्पष्ट है कि इन तमाम अपराधों का शिकार ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले मासूम बच्चे बनते हैं जिनकी हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी न तो पुलिस और न ही शासन-प्रशासन लेता है।
दूसरी बात जो निठारी काण्ड के उजागर होने के आठ वर्षों के घटनाक्रम के दौरान साबित हुई वह थी पूँजीवादी जनवाद की तमाम संस्थाओं का घोर-जनविरोधी और संवेदनहीन चरित्र। पुलिस, सीबीआई, शासन-प्रशासन से लेकर न्यायपालिका धनिकों की सेवा में मुस्तैदी से लगी हुई है। इनका कोई भी हिस्सा आज जनता के सरोकारों और संवेदनाओं के साथ खड़ा नहीं है। असल में इन तमाम संस्थाओं से आम मेहनतकश जनता के हित में न्याय की उम्मीद करना महज़ एक ख़ामख़्याली है। वर्ग समाज में हर संस्था का वर्ग चरित्र होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में इन तमाम संस्थाओं का काम मूलतः और मुख्यतः पूँजी की सेवा करते हुए ‘‘न्याय’’, ‘‘निष्पक्षता’’, ‘‘समानता और जनवाद’’ जैसी शब्दावलियों का इस्तेमाल करके मेहनतकश जनता के बीच भ्रम पैदा करना है। हमें खुद को इस भ्रमजाल से मुक्त करना होगा।
तीसरी बात, निठारी काण्ड इस पूँजीवादी व्यवस्था की पतनशीलता को उजागर करने वाली कोई आम घटना नहीं बल्कि एक प्रातिनिधिक घटना थी। पूँजीवाद में मौजूद बर्बरता और अमानवीयता की आम तस्वीरों से तो हम रोज़-ब-रोज़ रूबरू होते हैं। निठारी काण्ड ने साबित कर दिया कि पूँजीवाद आज जिस पतनशील दौर में प्रवेश कर चुका है वहाँ चरम विलासिता में डूबा हुआ नव-धनिकों का एक ऐसा तबका पैदा हो गया है जो मनुष्य होने की सारी बुनियादी शर्तों को खो चुका है। यह तबका अपनी पाशविक सनकों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। इस कुलीन वर्ग को न तो पुलिस का भय है और न ही क़ानून-व्यवस्था का। ये नव-धनिकों की जमातें मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम को लूटकर भारी अधिशेष निचोड़कर अपने बचे हुए वक़्त में अपनी विलासिता की सनकों को पूरा करने की नयी-नयी तरकीबों को आज़माने के लिए लालायित हैं। बहरहाल यह बात तो उतनी ही सच है कि पतित पूँजीवादी संस्कृति और उसकी नैतिक सडाँध की तमाम अभिव्यक्तियाँ पूँजीवादी व्यवस्था के बने रहने तक सामने आती रहेंगी। इसका अन्त तो पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे के साथ ही संभव है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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