शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह के 108वें जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर
अरविन्द
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो अपना जांगर खटाकर दुनिया का सब कुछ पैदा करते हैं। इन्हीं के ख़ून-पसीने की चमक कायनात की हर शै में झलकती है। इस मेहनतकश वर्ग के पास उत्पादन का कोई साधन नहीं होता और केवल अपनी श्रमशक्ति बेचकर ही यह ज़िन्दा रहता है। हर तरह की नियामतें पैदा करने के बाद भी इन्हें नसीब होती है; भूख, ग़रीबी, कुपोषण और बदहाली। लुब्बे-लुआब यह है कि इस मेहनतकश वर्ग की मेहनत को लूटा जाता है इसीलिए यह वर्ग शोषित वर्ग कहलाता है। दूसरी तरह के लोग वे होते हैं जो प्रत्यक्षतः किसी भी उत्पादक कार्यवाही में भागीदारी नहीं करते, कोई मेहनत नहीं करते और दूसरों की मेहनत पर ऐश करते हैं। समाज के इस छोटे हिस्से के पास उत्पादन के तमाम साधन होते हैं। इन संसाधनों के बूते ही यह वर्ग मेहनतकशों की श्रमशक्ति खरीदता है और बदले में उन्हें केवल इतना देता है कि वे किसी तरह से अपना बस पेट भरकर अगले दिन काम पर आ सकें और अपने जैसे उजरती गुलामों की जमात को भी बढ़ा सकें। दूसरों की श्रम शक्ति यानी मेहनत को लूटकर ही यह वर्ग अपनी ऐयाशियों की मीनारें खड़ी करता है। यह वर्ग शोषक वर्ग कहलाता है। उत्पादन के सभी साधनों पर इस वर्ग के मालिकानें के कारण ही इसे मालिक वर्ग भी कहते हैं। अपने मालिकाने हक और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था को कायम रखने के लिए राज्यसत्ता का पूरा ढाँचा जिसमें कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और तमाम तरह के निकाय शामिल होते हैं भी इसी वर्ग की सेवा करता है यानी अपनी राज्यसत्ता के द्वारा ही यह मेहनतकशों के वर्ग पर शासन करता है इसीलिए इस वर्ग को शासक वर्ग भी कहते हैं।
दुनिया में हर हमेशा मेहनतकशों के बीच से या समाज से ऐसे लोग भी होते रहे हैं जो मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज उठाते हैं, मेहनतकश जनता को एकजुट-संगठित करने की बात करते हैं, श्रम की लूट के खात्मे की बात करते हैं, व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हैं; कुल मिलाकर क्रान्ति की बात करते हैं। चूंकि समाज बदलाव की अपनी गति होती है तो कई बार मेहनतकशों के लिए अपनी आवाज़ को बुलन्द करने वालों, उनकी आकांक्षाओं के साथ अपनी आकांक्षाओं को साझा करने वालों की शहादतों के बावजूद शोषण-उत्पीड़न पर टिकी मालिकों कि व्यवस्था कायम रहती है। विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच मेहनतकश जनता अपने क्रान्तिकारी शहीदों से प्रेरणा ग्रहण करती है, अपने रोज़-रोज़ के संघर्षों से लड़ने के नये तरीके ईजाद करती है, अपने बीच से पुनः नेतृत्वकारी लोगों को पैदा करती है और शोषणकारी व्यवस्था के खि़लाफ़ बार-बार लामबद्ध होती है। किन्तु शासक वर्ग हमेशा इस जुगत में रहता है कि जनता अपने क्रान्तिकारियों के विचारों को जानने न पाये। इसलिए वह अपनी सेवा में खड़े भाड़े के भोंपुओं, शिक्षा व्यवस्था से लेकर, प्रिण्ट मीडिया (अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि) और इलैक्ट्रोनिक मीडिया (टी.वी., इण्टरनेट, सिनेमा आदि) आदि के माध्यम से विचारों की धुंध फ़ैलाता रहता है ताकि मेहनतकश लोग अपनी क्रान्तिकारी विरासत से अनभिज्ञ रहे। शासक वर्ग इस प्रयास में रहता है कि जननायकों को या तो बुत बनाकर पूजने की वस्तु बना दिया जाये ताकि लोग फूलमाला चढ़ाकर ही इतिश्री कर लें या फिर शहीदों के क्रान्तिकारी विचारों के बारे में षड़यन्त्रकारी चुप्पी साध ली जाये जिससे कि लोग अपने उर्जस्वी इतिहास को भूल जायें।
भगतसिंह और उनके साथियों कि विचारधारा और राजनीति के प्रति आज भी समाज के बड़े हिस्से की अनभिज्ञता उपरलिखित बात को ही दर्शाती है। 125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में कितने ऐसे लोग हैं जो भगतसिंह की क्रान्तिकारी राजनीति से परिचित हैं? क्या कारण है कि भगतसिंह की जेल डायरी तक उनकी शहादत के 63 साल बाद सामने आ सकी वह भी सरकारों के द्वारा नहीं बल्कि कुछ लोगों के प्रयासों से? क्या कारण है कि आज तक किसी भी सरकार ने भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी राजनीतिक विचारधारा को एक जगह सम्पूर्ण रचनावली के रूप में छापने का प्रयास तक नहीं किया? इन सभी कारणों का जवाब एक ही है कि भगतसिंह के विचार आज के शासक वर्ग के लिए भी उतने ही खतरनाक हैं जितने वे अंग्रेजों के लिए थे। कुल 23 साल की उम्र के दहकते हुए उल्कापिण्ड जैसे उनके सम्पूर्ण क्रान्तिकारी जीवन को लोगों के सामने लाना तो दूर की बात है उल्टे कई सरकारी पाठ्यक्रमों तक में भगतसिंह को आतंकवादी के तौर पर भी दर्शाया गया। संघियों ने अपने मुखपत्रों में अलग ही तान छेड़ते हुए क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु के तमाम लेखों के भगतसिंह और उनके साथियों के होने तक को नकार दिया। जैसे कि जानते ही न हों कि इतिहास इनके हाथ की कठपुतली नहीं है बल्कि ऐतिहासिक सच्चाई अन्ततोगत्वा लोगों तक पहुँच ही जाती है। पूरा जोर लगाने पर भी शासक वर्ग देश की जनता के हृदय से भगतसिंह और उनके साथियों के प्रेम को निकालने में नाकाम रहा है। अपनी इसी नाकामी को छुपाने के लिए तमाम चुनावी धन्धेबाज भगतसिंह के नाम को अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिए भुनाते भी दिख जायेंगे किन्तु ये धन्धेबाज इनके विचारों के आस-पास भी नहीं फटकेंगे। मौजूदा वक़्त में जब मेहनत की लूट नंगे रूप में जारी हो, जब मेहनतकशों के हक़-हुकूक को फासिस्टी बूट से कुचला जा रहा हो, जब साम्प्रदायिक दंगे प्रायोजित कराकर मेहनतकश जनता की वर्गीय एकजुटता को तोड़ने के प्रयास खुले आम हो रहे हों तो मेहनतकश जनता के लिए अपने इस महान क्रान्तिकारी के विचारों को जानना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। ज़ाहिरा तौर पर हम क्रान्तिकारी विरासत को भी हूबहू नहीं अपना सकते बल्कि बदले हुए हालात के अनुसार क्रान्तिकारी सार को सुरक्षित रखते हुए संघर्ष के तरीकों में बदलाव करने पड़ सकते हैं और स्वयं भगतसिंह के अनुसार ही हर चीज़, हर विचार को आलोचनात्मक विवेक के द्वारा निरख-परख कर ही अपनाना चाहिए। देश की मेहनतकश जनता के लिए भगतसिंह के विचार केवल क्रान्तिकारी धरोहर ही नहीं हैं बल्कि उर्जा का अजस्र स्रोत भी हैं।
भगतसिंह असल में एक व्यक्ति का नहीं बल्कि एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों राजगुरु, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ आदि की पूरी धारा के एक प्रतिनिधि और प्रतीक हैं। आज के समय में भगतसिंह और उनकी क्रान्तिकारी धारा के विचारों को जानना न केवल प्रेरणादायी होगा बल्कि यह हमारे लिए बेहद ज़रूरी भी है। प्रस्तुत हैं भगतसिंह और उनके साथियों के लेखों-बयानों से चन्द उद्धरण:-
‘‘धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। जो चीज आज़ाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।” – ‘नौजवान भारत सभा, लाहौर का घोषणापत्र’ से
‘‘यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की और लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।” – ‘बम कांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ से
‘‘क्रान्ति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता कि सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है। इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रान्ति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना जीवन नैवेध के रूप में लाये हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।” – ‘बम कांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ से
‘‘नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।” – ‘विद्यार्थियों के नाम पत्र’ से
‘‘भारतीय पूँजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूँजीपति से विश्वासघात की कीमत के रूप में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएँ समाजवाद पर टिकी हैं और सिर्फ़ यही पूर्ण स्वराज्य और सब भेदभाव ख़त्म करने में सहायक हो सकता है।” – ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणापत्र’ से
‘‘क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका केवल एक ही अर्थ हो सकता है – जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकि सभी विद्रोह तो सिर्फ़ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ान्ध को ही आगे बढ़ाते हैं—-भारत में हम भारतीय श्रमिकों के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।” – ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ से
‘‘युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।” – ‘फांसी से तीन दिन पूर्व पंजाब के गवर्नर के नाम पत्र’ से
‘‘लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत होती है। ग़रीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।” – ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ से
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन