लखनऊ हाईकोर्ट के निर्माणाधीन भवन से गिरकर एक और मज़दूर की मौत
हादसों के नाम पर कब तक होती रहेंगी ऐसी हत्याएँ?
सत्येन्द्र
पिछली 4 सितम्बर को लखनऊ के गोमतीनगर में बन रही हाईकोर्ट की नयी इमारत की चौथी मंज़िल से गिरकर एक मज़दूर की मौत हो गयी। बाईस वर्ष का नरेश चौथी मंज़िल पर पत्थर लगा रहा था कि शटरिंग का पट्टा टूट गया और वह नीचे जा गिरा। बुरी तरह घायल नरेश 20 मिनट तक वहीं तड़पता रहा। फिर साथी मज़दूर उसे मोटर साइकिल से राममनोहर लोहिया अस्पताल ले गये, जहाँ 10 मिनट तक उसे डॉक्टरों ने देखा ही नहीं। तब तक वहाँ पहुँचे और भी मज़दूरों के शोर मचाने पर डॉक्टरों ने बिना इलाज किये ही उसे मृत घोषित कर दिया। इसके बाद शव को लेकर मज़दूर हाईकोर्ट परिसर पहुँचे तो गार्डों ने गेट खोलने से इन्कार कर दिया। इसका पता चलने पर पूरे परिसर में मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया व इकट्ठा होकर शव को जबरन परिसर में ले गये। मज़दूरों ने बिल्डर व पुलिस को बुलाने की माँग की, ताकि पीड़ित परिवार को मुआवज़ा मिल सके व दोषियों के खि़लाफ़ एफ़.आई.आर. दर्ज की जा सके। घण्टों इन्तज़ार के बाद भी जब कोई नहीं आया तो मज़दूरों ने शव को सड़क पर रखकर लखनऊ- फ़ैज़ाबाद मार्ग जाम कर दिया। जाम होते ही तुरन्त पहुँची पुलिस ने नीचता की हद दिखाते हुए पाँच हज़ार रुपये मुआवज़े पर समझौते कर लेने का दबाव बनाया। आखि़रकार दोषियों पर कार्रवाई के पुलिस अफ़सरों के आश्वासन पर मज़दूरों ने जाम तो ख़त्म कर दिया, लेकिन उचित मुआवज़े की माँग पर अड़े रहे। इस बीच ठेकेदार और सुपरवाइज़र के गुण्डों ने शव को ही गा़यब करने का कई बार प्रयास किया, पर वे सफल नहीं हो सके।
हाईकोर्ट के इस निर्माणाधीन भवन का निर्माण उत्तरप्रदेश राजकीय निर्माण निगम द्वारा कराया जा रहा है। सरकारी संस्था होने के बावजूद किसी भी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए निगम ने निर्माण के काम को बिल्डरों को सौंप दिया व बिल्डरों ने ठेकेदारों को। ठेकेदार ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए बिहार, झारखण्ड, राजस्थान व उत्तरप्रदेश के गाँवों से मज़दूर लेकर आते हैं। ये मज़दूर चौबीसों घण्टे कार्यस्थल पर ही रहते हैं, अतः इनके काम के घण्टों की कोई सीमा नहीं होती। ये कम से कम 10 घण्टे काम करते हैं, जो कभी-कभी 15-16 घण्टे हो जाता है। पर इन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती, ओवरटाइम पर डबल रेट से भुगतान तो बहुत दूर की बात है। ये दूसरी किसी जगह न जा पायें और ठेकेदारों के चंगुल में ही रहे इसलिए इनकी मज़दूरी का कम से कम एक तिहाई रोक लिया जाता है।
यहाँ सैकड़ों मज़दूर काम कर रहे हैं, लेकिन किसी का कोई लिखित ब्यौरा नहीं है। कोई रजिस्टर नहीं है। उन्हें कोई पहचान-पत्र भी नहीं दिया जाता है। ठेकेदार जब तक चाहते हैं, इनसे काम करवाते हैं, जब जी में आता है इन्हें निकाल देते हैं। परिसर में ही टीन-टप्पर डालकर सैकड़ों मज़दूर रहते हैं जहाँ साफ पानी, साफ-सफाई जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। मज़दूरों को शौचालय के लिए दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। रात में चाहे जो हो जाये गार्ड गेट नहीं खोलते, जिससे परिसर में गन्दगी फैलती है, इससे होने वाली बीमारियों के शिकार भी मज़दूर ही होते हैं। बरसात में कई मज़दूर यहाँ पर मलेरिया के शिकार हुए, तो दवा-इलाज के बजाय उन्हें घर का रास्ता दिखा दिया गया।
इस परिसर में यह कोई पहली घटना नहीं है, इससे पहले अब तक छह मज़दूर इसी जगह दुर्घटनाओं में अपनी जान गँवा चुके हैं और कई अन्य गम्भीर रूप से घायल हो चुके हैं, लेकिन सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम नहीं किये गये। मज़दूरों को हारनेस, सुरक्षा पेटी, हेल्मेट आदि नहीं मिलता और न ही जाल बाँधा जाता है। सुरक्षा इंस्पेक्टर का नाम तो शायद मज़दूरों ने सुना ही न हो। कभी-कभार सुरक्षा के नाम पर जो हेल्मेट मज़दूरों को मिलता है, वह ख़ुद इतना कमजोर होता है कि थोड़ी ऊँचाई से गिरने पर नारियल की तरह टूट जाता है।
ग़ौरतलब है कि जिस जगह हादसों के रूप में अब तक छह हत्याएँ हो चुकी हैं, आने वाले दिनों में हाईकोर्ट के सम्मानित जज महोदय यहीं पर न्याय के सिंहासन पर विराजमान होकर इंसाफ़ करेंगे। परन्तु संविधान में ही दर्ज 260 से ज़्यादा क़ानूनों को मुँह चिढ़ाते यहाँ के हालात व इन हत्याओं पर न्याय के इन ठेकेदारों को साँप सूँघ जाता है। किसी भी जज महोदय ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि जिस “न्याय की देवी” के मन्दिर में वे बैठने वाले हैं उसे बनाने वाले मज़दूरों के साथ किस तरह की नाइंसाफ़ी रोज़-रोज़ हो रही है।
बग़ैर किसी संगठन के मज़दूरों की यह स्वतःस्फूर्त पहलक़दमी स्वागत की बात है। वह भी लखनऊ जैसे शहर में जहाँ पर जुझारू मज़दूर आन्दोलनों का कोई इतिहास भी नहीं है। अक्सर देखा गया है कि तत्काल गुस्से के कारण मज़दूर विद्रोह और उग्र प्रदर्शन तो करते हैं पर किसी क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन व दिशा के अभाव में उसे अंजाम तक नहीं पहुँचा पाते हैं। हमें अब अपने गुस्से का सही इस्तेमाल करना होगा और सही दुश्मन को पहचान कर उसकी जड़ पर हमला करना होगा।
स्थानीय अख़बारों में इसे एक हादसा बताया गया है। परन्तु यदि हम इस घटना का तार्किक विश्लेषण करें तो यह बिल्कुल साफ हो जायेगा कि यह हादसा नहीं “हत्या” है। आज भारत के असंगठित क्षेत्र में लगभग 48 करोड़ मज़दूर हैं। इनमें करीब 3 करोड़ निर्माण मज़दूर हैं। देशभर में बड़े-बड़े अपार्टमेंट, होटल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेसवे, ऑफिस बिल्डिंग आदि का निर्माण अन्धाधुन्ध जारी है। लेकिन इनमें काम करने वाले मज़दूरों की हालत बेहद बुरी है। तमाम सरकारी घोषणाएँ सिर्फ कागज़ पर रह जाती हैं। बड़ी-बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनियों से लेकर राजकीय निर्माण निगम जैसी सरकारी संस्थाओं तक हर जगह मज़दूरों के साथ एक ही जैसा सुलूक होता है। आये दिन मज़दूर मरते और घायल होते रहते हैं या फिर जानलेवा बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। ऐसी घटनाओं पर न तो हमारी सरकार को कोई फ़र्क़ पड़ता है और न ही पूँजीपतियों को।
पर हम मज़दूरों को सोचना होगा कि हम कब तक चुप रहेंगे? हमारी चुप्पी हमारी दुश्मन और उनकी ताक़त है, जो हमारी हड्डियों को निचोड़कर अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं। हमें अपने संगठन बनाकर आज से ही पूँजीवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी होगी, क्योंकि साथियो, जब तक पूँजीवाद रहेगा, मेहनतकश बर्बाद रहेगा। अब भी चुप रहने का मतलब है – अपनी बारी का इन्तज़ार!
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन