आखिर क्या हो रहा है पाकिस्तान में?
तपीश
पाकिस्तान में इमरान ख़ान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ़ और कनाडा से अचानक पाकिस्तान में अवतरित हुए मौलाना ताहिर-उल-क़ादरी की पार्टी पाकिस्तान अवामी तहरीक़ के नेतृत्व में हज़ारों प्रदर्शनकारी नवाज़ शरीफ़ सरकार के इस्तीफ़े की माँग को लेकर अगस्त के मध्य से संसद के बाहर डेरा डाले हुए हैं। आम तौर पर पाकिस्तान की ऐसी छवि प्रस्तुत की जाती है मानो वह भारत और विश्व के लिए आसन्न ख़तरा हो जबकि सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान की सेना और वहाँ के इस्लामिक कट्टरपन्थी सबसे ज़्यादा ख़तरा तो वहाँ की आम मेहनतकश आबादी के लिए पैदा कर रहे हैं। पाकिस्तानी तालिबान के आतंकी दस्ते सेना के ठिकानों पर हमला कर रहे हैं और सेना उनके खि़लाफ़ ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब का संचालन कर रही है। पाकिस्तान इस समय गम्भीर आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है। वर्ष 2008 के बाद से ही वहाँ की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी हुई है। असल में पाकिस्तान के वर्तमान संकट के मूल में आर्थिक संकट ही है। ऐसे समयों में शासक वर्ग के विभिन्न धड़े आपस में टकराने लगते हैं और आज पाकिस्तान में यही हो रहा है।
वर्ष 2013 में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार बनने के कुछ ही महीनों के भीतर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल होने लगी थी। बढ़ती ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़गारी और बिजली, पेट्रोल तथा गैस की बढ़ती क़ीमतों के कारण नयी सरकार जल्दी ही लोकप्रियता खोने लगी। सत्ता सँभालने के कुछ ही महीनों के भीतर सरकार और सेना के बीच भारत के साथ सम्बन्धों के मसले पर, पाकिस्तान में तालिबान पर नकेल कसने के मसले पर एवं परवेज़ मुशर्रफ़ को लेकर मतभेद उभरने शुरू हो गये थे। पिछले साल ही पाकिस्तान के उत्तर-पूर्व में स्थित ख़ैबर-पख़्तूख़्वा प्रदेश में इमरान ख़ान की तहरीक-ए-इंसाफ़ ने सरकार बनायी थी। परन्तु जल्द ही यह सरकार भी लोकप्रियता खोने लगी।
वर्तमान संकट ने उस समय रूपाकार ग्रहण करना शुरू किया जब इस साल की गर्मियों में सेना ने उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के इलाकों में ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब शुरू किया। पहले यहाँ हवाई गोलाबारी की गयी और फिर पैदल सेना और टैंकों को ज़मीनी कार्रवाई में उतार दिया। हाल ही में सेना ने बताया है कि उस ऑपरेशन के दौरान अब तक 900 आतंकी मारे जा चुके हैं। सैन्य कार्रवाई शुरू होते ही पाकिस्तान अवामी तहरीक़ के मौलाना क़ादरी ने खुलकर इन हमलों की वकालत की और सेना के समर्थन में हर शुक्रवार रैली आयोजित करने की घोषणा कर डाली। मौलाना क़ादरी सूफ़ी इस्लाम के एक हल्की कट्टरपन्थी धारा के विचारक हैं। इनका आधार मुख्यतः निम्न-मध्यवर्ग में है। ये जनाब वैसे तो इंक़लाब की बात करते हैं लेकिन वास्तव में इनका राजनीतिक एजेण्डा लोकरंजकतावाद की चाशनी में लिपटा हुआ प्रतिक्रियावाद ही है। पाकिस्तान की राजनीति में इनका उभार एक हालिया परिघटना है। उधर इमरान ख़ान, जो मध्यवर्ग और कुछ हद तक उच्च-मध्यवर्ग में लोकप्रिय हैं, के लिए यह सम्भव न था कि वे सेना के इस ऑपरेशन का खुला विरोध करते। इसलिए उन्होंने सरकार पर दबाव बनाने के मक़सद से चुनाव के 14 महीनों बाद बूथ रिगिंग का आरोप लगाते हुए आज़ादी मार्च की घोषणा की और नवाज़ शरीफ़ सरकार के इस्तीफ़े की माँग की।
सेना, तहरीक़-ए-इसाफ़ और कादरी तथा पाकिस्तान की जनता का एक छोटा सा मध्यमवर्गीय हिस्सा अपनी-अपनी वजहों से पाकिस्तानी सरकार के खि़लाफ़ उतर पड़ा है। लेकिन इन तथाकथित आन्दोलनो की आड़ में यह सच्चाई आँख से ओझल कर दी जाती है कि पाकिस्तान के मौजूदा अराजक माहौल के लिए वहाँ के आर्थिक संकट की एक बड़ी भूमिका है। 2008 की शुरुआत से ही पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहद ख़राब हैं। आर्थिक संकट से उबरने के लिए विश्व मुद्रा कोष से लिए गये कर्ज़ ने हालात बद से बदतर बना दिये हैं। इन क़र्जों की अदायगी पाकिस्तान की आम मेहनतकश आबादी पर करों का भारी बोझ लादकर तथा सामाजिक कल्याण-कारी ख़र्चों में कटौती करके की जा रही है जिससे वहाँ की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और एक भयंकर जनाक्रोश पनप रहा है।
पाकिस्तान का शासक वर्ग ऐसी परिस्थितियों से घिरा है जहाँ जनता का भीतर ही भीतर उबलता आक्रोश और कंगाली के कग़ार पर खड़ी अर्थव्यवस्था को लगने वाला एक हल्का सा झटका भी उसके अस्तित्व को समाप्त कर सकता है। यही वजह है कि पाकिस्तानी शासक अपनी डूबती अर्थव्यवस्था की ऋण-आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेकते हैं। इसके साथ ही साथ वे आम जनता के दबे हुए आक्रोश को भारत विरोधी युद्धोन्माद या फिर धार्मिक उन्माद में बदलकर अपनी जान बचाने की कोशिश करते हैं। यह रणनीति अल्पकालिक तौर पर कुछ कारगर होते हुए भी दीर्घकालिक नज़रिये से आत्मघाती है।
दरअसल पाकिस्तान में पूँजीवादी विकास की दिशा कुछ इस तरह रही कि सेना के कुछ अधिकारियों का एक बड़ा तबका स्वयं पूँजीपति में तब़्दील हो गया। इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि आज सेना के मुट्ठी भर अधिकारी पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद का 7 फ़ीसदी हिस्सा नियंत्रित करते हैं। पाकिस्तान के एक-तिहाई भारी उद्योग का स्वामित्व सेना के पास है। सेना 11.58 लाख हेक्टेयर भूमि की स्वामी है। आज सेना पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में मौजूद है। इस तरह पाकिस्तान में एक किस्म का सैन्य-औद्योगिक तन्त्र मौजूद है जिसके पास जबर्दस्त आर्थिक ताक़त है और वह सामरिक शक्ति का भी संचालन करता है। यह एक राजनीतिक रूप से समझदार वर्ग है जो जानता है कि नग्न सैन्य तानाशाही दीर्घकाल में उसके लिए घातक है। लेकिन जब कभी नागरिक शासन उसकी अपेक्षाओं पर ख़रा नहीं उतरता या फिर अपने राजनीतिक संकटों का समाधान नहीं ढूँढ पाता तो ऐसे में वह स्वयं ही आगे बढ़कर शासन की बागडोर सँभाल लेता है और इस तरह पूँजी के शासन की रक्षा करता है। यही वजह है कि पाकिस्तानी सेना ने स्वयं को कभी भी लोकतन्त्र के विकल्प के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। उसने हमेशा ही अपने आप को लोकतन्त्र का रक्षक बतलाया और अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर नागरिक सरकारों को सत्ता-हस्तान्तरण भी किया।
सेना के साथ ही साथ पाकिस्तान की राजनीति में इस्लामिक कट्टरपन्थियों की भी एक बड़ी भूमिका रही है। इस परिघटना को समझने के लिए थोड़ा सा इतिहास में जाना ज़रूरी है। इस्लामिक कट्टरपन्थ का उभार हमारे समकालीन इतिहास की परिघटना है। 1970 के दशक के अन्त में पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जियाउल हक़ ने अमेरिका के सहयोग से पाकिस्तान के इस्लामीकरण की मुहिम शुरू की। इसमें अमेरिका का हित यह था कि वह अफ़गानिस्तान में वामपन्थी सरकार का तख़्ता-पलट करना चाहता था एवं सोवियत संघ के सैन्य हस्तक्षेप का मुक़ाबला करना चाहता था और इसीलिए उसने पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई की मदद से मुजाहिद्दीनों को सैन्य प्रशिक्षण एवं हथियारों की सप्लाई शुरू की। पाकिस्तान के देवबन्दी मदरसों ने आतंकवादियों की फौज खड़ा करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। अल-कायदा और तालिबान जैसे संगठन उसी दौर की पैदाइश हैं। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के विश्व व्यापार केन्द्र की इमारत पर अल क़ायदा ने आतंकवादी हमले के साथ ही अमेरिका की आतंकवादियों के साथ मिलकर युद्ध करने की नीति का स्थान ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ ने ले लिया। साम्राज्यवाद पर अपनी निर्भरता के चलते पाकिस्तान को आतंक के खि़लाफ़ अमेरिका के युद्ध का न चाहते हुए भी साथ देना पड़ा। अब पाकिस्तानी सेना की मज़बूरी थी कि वो अपनी सीमाओं के भीतर आतंकियों के तन्त्र को निशाना बनाये। इसके कारण पाकिस्तानी राजनीति में कई बदलाव आये। सबसे पहले तो इसके कारण पाकिस्तानी तालिबान और सेना के बीच दुश्मनाना सम्बन्ध पैदा हुए। पाकिस्तानी तालिबान द्वारा सेना के ठिकानों पर किये गये हालिया हमले इसी का नतीजा हैं। दूसरे, सेना और देवबन्दियों के बीच पुरानी निकटता में दरार पैदा हुई। पाकिस्तान की राजनीति में सेना देवबन्दियों का दोहरा इस्तेमाल करती रही है। एक ओर तो वे भारत के खि़लाफ़ युद्धोन्माद भड़काने में सेना की मदद किया करते थे तो दूसरी ओर अपने ही देश की नागरिक सरकार के खि़लाफ़ दबाव बनाने के लिए जनान्दोलनों को संगठित भी करते थे। लेकिन बदले हुए मौजूदा हालातों में देवबन्दियों द्वारा खाली की गयी जगह की भरपायी इमरान और कादरी की पार्टियाँ कर रही हैं। हालाँकि यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये पार्टियाँ पाकिस्तान में मध्यवर्ग के बढ़ते प्रभाव की स्वाभाविक राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ भी हैं।
बहरहाल, अभी हालात यह हैं कि 14 अगस्त को शुरू हुआ गतिरोध इस लेख के लिखे जाने तक बरक़रार था। तहरीक़-ए-इंसाफ़ को छोड़ दिया जाये तो सम्पूर्ण विपक्ष सरकार के साथ इस मुद्दे पर एकजुट होकर दृढ़ता के साथ खड़ा है। उन्होंने नवाज़ शरीफ़ के इस्तीफ़े की माँग को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है। सेना पूरे मसले पर क़रीबी नज़र रखे हुए है। अपने पुराने अनुभवों से सबक लेते हुए तथा पाकिस्तानी जनता के बीच सैन्य शासन की अलोकप्रियता को देखते हुए वह अभी सीधे हस्तक्षेप से बच रही है और घटनाओं को परोक्ष रूप से प्रभावित करने की कोशिशों में लगी हुई है।
एक बात तय है कि पाकिस्तानी जनता के जीवन में तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है जब तक कि वह स्वयं अपने समाज के भीतर से नयी परिवर्तनकामी शक्तियों को संगठित कर वर्तमान पूँजीपरस्त जनविरोधी तन्त्र को ही नष्ट करने और एक नये समतामूलक समाज को बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती। इमरान ख़ान और क़ादरी के आन्दोलनों का हश्र चाहे जो भी हो उससे पाकिस्तानी अवाम की ज़िन्दगी में कोई बेहतरी नहीं होने वाली है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2014
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