पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बेरोक-टोक बनाने और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए नरेन्द्र मोदी की रणनीति क्या है?

सम्‍पादक मण्‍डल

नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अपने पहले 100 दिनों में ही दिखला दिया है कि वह चुनावों से पहले किसके “अच्छे दिनों” की बात कर रही थी। 100 दिनों के भीतर महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी के बारे में मोदी सरकार अपने वायदों को कचरा पेटी के हवाले कर चुकी है। मोदी के सत्ता में आने के बाद से महँगाई में कमी आने की बजाय वास्तव में और बढ़ोत्तरी हुई है। सरकार बनते ही मोदी ने हर नये प्रधानमन्त्री की तरह देश की आम मेहनतकश जनता को “सख़्त क़दमों” के लिए तैयार हो जाने की चेतावनी दे दी थी! कुछ ही दिनों में मोदी ने ग़ज़ब की फुर्ती दिखलाते हुए बता भी दिया कि सख़्त क़दमों से उसका क्या मतलब है। सत्ता में आने के चन्द दिनों बाद मोदी सरकार ने स्पष्ट किया कि श्रम क़ानूनों में संशोधन करना उसकी प्राथमिकताओं में से एक है। इसके अतिरिक्त, रेल का भाड़ा बढ़ाया जाना, पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी हटाने की तैयारी, तमाम सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण की तैयारी, अमीरज़ादों पर लगने वाले करों को घटाना और ग़रीबों पर अप्रत्यक्ष करों का दबाव बढ़ाना, और पूँजीपतियों के लिए हर प्रकार की छूट, सुविधा और रियायत का इन्तज़ाम करना। लेकिन इसके साथ ही मोदी सरकार कुछ दिखावटी क़दम और साथ ही जनता की एकजुटता को तोड़ने के क़दम भी उठा रही है। ऐसे में, मज़दूर वर्ग के लिए यह समझना ज़रूरी है कि मोदी की यह फासीवादी सरकार, जो कि मज़दूरों की सबसे बड़ी दुश्मन है, वास्तव में मज़दूर वर्ग को लूटने और आवाज़ उठाने पर दबाने-कुचलने के लिए क्या रणनीति अपना रही है; आख़िर मोदी सरकार की पूरी रणनीति क्या है? क्योंकि तभी मज़दूर वर्ग को भी मोदी सरकार की घृणित चालों का जवाब देने के लिए गोलबन्द और संगठित किया जा सकता है।

मोदी सरकार की पहली चाल: श्रम क़ानूनों को बदलकर मज़दूर वर्ग पर ख़तरनाक हमला

सत्ता में आने के कुछ ही दिनों के भीतर मोदी सरकार ने तमाम बुनियादी श्रम क़ानूनों में ऐसे संशोधनों की तैयारी कर ली है जिनके बाद उन श्रम क़ानूनों का बचा-खुचा असर भी ख़त्म हो जायेगा। वैसे हम मज़दूर जानते हैं कि पहले भी श्रम क़ानूनों का कोई विशेष अर्थ नहीं था और ये श्रम क़ानून बस क़ानून की पोथियों की शोभा ही बढ़ाते थे। लेकिन यह भी सच है कि यदि कहीं मज़दूर अपने जुझारू आन्दोलन खड़े करते थे, तो कई बार इन श्रम क़ानूनों को लागू करने के लिए मालिकों पर दबाव भी बना देते थे, और कभी-कभी तो इन्हें लागू करने पर भी मजबूर कर देते थे। इसके अलावा, इन श्रम क़ानूनों के कारण मालिकों को बेधड़क मुनाफ़ा लूटने और मज़दूरों की हड्डियों को गलाकर अपनी तिजोरी भरने में कभी-कभार कुछ दिक़्कत पेश आती थी। इन श्रम क़ानूनों के कारण ही मालिकों को श्रम विभाग के लेबर व फैक्टरी इंस्पेक्टरों व अन्य अधिकारियों को घूस देनी पड़ती थी; इन श्रम क़ानूनों के कारण ही मालिकों को अपने कारख़ाने में मनचाहे तरीके से तालाबन्दी करने में दिक्कत आती थी; साथ ही, मज़दूरों के आन्दोलन और दबाव का डर भी कहीं न कहीं उनके दिल में बैठा रहता था। मोदी ने आते ही पूँजीपतियों के सबसे वफ़ादार मुलाज़ि‍म के समान पूँजीपति वर्ग के रास्ते से श्रम क़ानूनों के ‘स्पीड ब्रेकर’ को हटाने का काम किया है।

मोदी सरकार ने इस मामले में विश्व पूँजी और देशी पूँजी की ज़रूरतों का ख़्याल रखा है। इन ज़रूरतों के बारे में विश्व बैंक, भारतीय पूँजीपतियों के मंच फिक्की, सीआईआई आदि अक्सर ही बात करते रहते हैं। मिसाल के तौर पर, इनका कहना है कि चूँकि संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को श्रम क़ानूनों की सुरक्षा प्राप्त है, इसलिए संगठित क्षेत्र में रोज़गार नहीं पैदा हो रहे हैं! इन पूँजीपतियों और उनके भोंपुओं का कहना है कि संगठित क्षेत्र में मालिकों को जब चाहे कारख़ाना बन्द करने की इजाज़त होनी चाहिए और उसके लिए सरकार से इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; इनका कहना है कि मज़दूरों को जब चाहे रखने और जब चाहे निकाल देने की सुविधा मालिकों और प्रबन्धन के पास होनी चाहिए क्योंकि इससे निवेश के लिए पूँजीपति प्रोत्साहित होंगे। इनकी यह भी सिफ़ारिश है कि ट्रेड यूनियनों के कारण उद्योग जगत को बढ़ावा नहीं मिलता इसलिए ट्रेड यूनियन क़ानून को इस प्रकार बदल दिया जाना चाहिए कि ट्रेड यूनियनों का पंजीकरण मुश्किल हो जाये। मोदी ने इन सभी माँगों को पूरा करते हुए कारख़ाना अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम, ठेका मज़दूर क़ानून, ट्रेड यूनियन क़ानून आदि में बदलाव करने का प्रस्ताव पेश कर दिया है और अब वह समय ज़्यादा दूर नहीं जब ये क़ानून बदल दिये जायेंगे।

मोदी सरकार का ऐसा करना लाज़ि‍मी था। मोदी के प्रचार में देश-विदेश के पूँजीपति वर्ग ने यूँ ही हज़ारों करोड़ रुपये थोड़े ही बहाये थे। मोदी की लहर बनाने का काम सबसे ज़्यादा मीडिया और प्रचार जगत ने किया। जिस देश में आम मेहनतकश आबादी के बीच राजनीतिक चेतना की कमी हो, उस देश में यदि एक झूठ को भी लोगों के कानों में दिनों-रात मन्त्र की तरह फूँका जाये तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। मोदी के प्रचार में ठीक ऐसा ही किया गया। देश के बड़े-बड़े पूँजीपतियों के समाचार चैनल, उनकी प्रचार कम्पनियाँ, रेडियो चैनल आदि मोदी के प्रचार में जुट गये थे। दिन-रात महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त जनता के कानों में यह दुहराया जा रहा था कि मोदी सरकार आते ही सभी समस्याओं का झटके में समाधान कर देगी। लोगों को बताया जा रहा था कि उन्हें महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अपराध, भूख और कुपोषण से मोदी चुटकियों में राहत दे देंगे। मीडिया ने हज़ारों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाकर मोदी की छवि एक जादूगर की बनायी जो छड़ी घुमाते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देगा। गुजरात मॉडल की एक झूठी तस्वीर पेश की गयी और उसकी सच्चाई को छिपाया गया। लोगों को यह नहीं बताया गया कि गुजरात मज़दूरों के लिए एक यातना गृह है जहाँ श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है; जहाँ ग़रीबों और अमीरों के बीच की खाई देश के अन्य कई राज्यों के मुकाबले कहीं ज़्यादा है; यह नहीं बताया गया कि गुजरात में भुखमरी और कुपोषण की स्थिति भयंकर है; केवल उस गुजरात की तस्वीर पेश की गयी जिसमें व्यापारी, उद्योगपति और खाता-पीता मध्यवर्ग बसता है, जो कि वास्तव में गुजरात के मेहनतकशों के ख़ून को निचोड़-निचोड़कर अपने ऐशो-आराम की ज़ि‍न्दगी बसर कर रहा है। कुल मिलाकर, मोदी सरकार बनाने के लिए देश के पूँजीपतियों ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और झूठ बनाने की मशीनरी को दिनों-रात पूरे ज़ोर-शोर से चलाया। अब मोदी सरकार अगर इन्हीं पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने के रास्ते के सारे काँटे हटा रही है, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है।

मोदी सरकार की दूसरी चाल: जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए खोखला प्रतीकवाद

लेकिन पिछले 100 दिनों में देश का मज़दूर और निम्नमध्यवर्गीय मेहनतकश यह समझने लगा है कि मोदी के वायदे झूठ के पुलिन्दे थे। मोदी के “अच्छे दिनों” का मतलब पूँजीपतियों और अमीरों के अच्छे दिनों से था। मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए तो मोदी सरकार काले दिन लेकर आयी है। जैसे-जैसे यह अहसास आम मेहनतकश जनता के बीच गहरा हो रहा है, वैसे-वैसे ‘मोदी लहर’ सुनामी से नाले की लहर में तब्दील होती जा रही है। हाल ही में, उत्तराखण्ड, कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात आदि में हुए उपचुनावों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की हार इस बात का संकेत दे रही है कि ‘मोदी लहर’ उतार पर है और देश की जनता 100 दिनों के भीतर ही मोदी की असलियत को पहचानना शुरू कर रही है। लेकिन अभी भी देश की मेहनतकश जनता के कई हिस्सों में मोदी के झूठे प्रचारों का असर है। इस वक़्त भी मीडिया मोदी की गिरती इज़्ज़त को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक किये हुए है, और प्रति दिन नये-नये झूठों को गढ़ रहा है और मोदी की लहर को फिर से उठाने के लिए नयी-नयी किस्म की नौटंकियाँ और प्रतीक रच रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद ज़ि‍न्दगी की कड़वी सच्चाइयाँ देश की आम जनता को मोदी सरकार के चरित्र से परिचित करा रही हैं। मीडिया और संघ परिवार के पूरे नेटवर्क के ज़रिये मोदी सरकार जनता के बीच अपनी गिरती स्वीकार्यता (बर्दाश्त करने की ताक़त पढ़ें!) को बचाने के लिए तरह-तरह के प्रतीकों और नौटंकियों का इस्तेमाल कर रही है। यही मोदी सरकार की दूसरी अहम रणनीति है। मिसाल के तौर पर, मोदी सरकार ने जिस समय रेलवे का किराया बढ़ाया उसी समय उसने कुछ तीर्थ स्थलों के लिए विशेष ट्रेनें भी चला दीं। मोदी सरकार ने मीडिया के द्वारा अपनी यह छवि बनायी कि पिछली मनमोहन सरकार के विपरीत यह सरकार हर मुद्दे पर त्वरित क़दम उठाती है। मिसाल के तौर पर, मोदी सरकार ने विदेश नीति के मोर्चे पर मीडिया द्वारा अपनी ऐसी छवि बनायी कि अब भारत भी अन्य देशों के सामने सिर उठाकर खड़ा होने लगा है! हालाँकि, वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं थी। हालिया जापान दौरे पर मोदी सरकार के इस प्रतीक का फालूदा बन गया! मोदी जापानी शासक वर्ग के सामने साष्टांग दण्डवत हो गये और जापानी कम्पनियों के लिए निवेश की अनुकूल स्थितियाँ बनाने (जिसका अर्थ है हर प्रकार के मज़दूर प्रतिरोध को कुचल डालना और लूट की पूरी छूट!) का वायदा किया। उन्होंने जापानी कम्पनियों के लिए विशेष तौर पर एक सरकारी ग्रुप बनाने का वायदा किया जिसमें कि जापानी प्रतिनिधि भी शामिल किये जायेंगे! बहरहाल, जापान से लौटते ही मोदी सरकार ने शिक्षक दिवस पर बच्चों को सम्बोधित करने की नौटंकी की; हालाँकि, यह नौटंकी ज़्यादा कामयाब नहीं हुई और इसका मज़ाक़ ही बना। इसके अलावा मोदी सरकार ने एक जनधन योजना लागू की है। सभी जानते हैं कि वास्तव में इसका कोई लाभ आम ग़रीब आबादी को नहीं मिलना है। इस योजना के तहत 7.5 करोड़ लोगों का 1 लाख रुपये का बीमा होगा और उनका बैंक खाता खोला जायेगा। लेकिन अभी से अर्थशास्त्रियों ने बता दिया है कि इस योजना का ग़रीब आबादी पर उल्टा असर पड़ेगा क्योंकि देश की 40 फीसदी आबादी के पास इन खातों में डालने के लिए कुछ भी नहीं होगा और उन 7.5 करोड़ लोगों में तो बिरले के पास ही जमा करने के लिए कुछ होगा! ऐसे में, ये बैंक खाते सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ऊपर एक बोझ बन जायेंगे; इनसे होने वाला घाटा अन्त में सरकार अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर भरेगी। यानी कि अन्त में इन खातों से आम मेहनतकश ग़रीब आबादी को लॉलीपॉप से ज़्यादा कुछ मिलेगा नहीं और इनमें डाली जाने वाली मामूली रकम को अन्त में ब्याज़ समेत अप्रत्यक्ष कर देने वाली आम आबादी की जेब से वसूल लिया जायेगा! यानी, देश के वित्तीय पूँजीपति वर्ग के लिए आम के आम और गुठलियों के दाम! मोदी सरकार का यह क़दम वास्तव में देश की ग़रीब आबादी के ख़ि‍लाफ़ है, हालाँकि अपनी गिरती लोकप्रियता को बचाने के लिए मोदी सरकार इस योजना का गला फाड़-फाड़कर प्रचार कर रही है और इसे “वित्तीय अस्पृश्यता” ख़त्म करने का क़दम बता रही है।

इसके अलावा, मोदी धार्मिक प्रतीकवाद का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। आये दिनों मोदी किसी न किसी देवता या भगवान का आशीर्वाद लेने मन्दिर की शरण में पहुँच जाते हैं। चाहे भारत हो, नेपाल हो या फिर जापान; चाहे हिन्दू धर्म हो, जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म (बस इस्लाम या मुसलमानों से वह दूर रहता है, क्योंकि यह उसकी हिन्दुत्ववादी फासीवादी नीतियों के लिए नुक़सानदेह होगा), मोदी हर जगह पूजा की थाली और घण्टी लेकर मौजूद रहता है। वास्तव में, पूजा करना या न करना तो व्यक्तिगत और निजी मसला होता है। अगर मोदी को तमाम जगहों के देवी-देवताओं का चरण धोकर पीना है, तो यह काम वह मीडिया पर शोर मचाये बिना भी कर सकता है। लेकिन मोदी को सोचे-समझे तौर पर ‘शिव-भक्त’, ‘गंगा-भक्त’ आदि के तौर पर पेश किया जा रहा है; मानो, मोदी कोई समर्पित संन्यासी हो जो कि देश सेवा में लग गया है! इस सबके पीछे वास्तव में संघ परिवार और मोदी की यह सोच है कि आर्थिक नीतियों के चलते तो मोदी की सरकार लगातार अधिक से अधिक अलोकप्रिय ही होगी, इसलिए जनता की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करके किसी तरह से लोकप्रियता गिरने की रफ्तार को रोका जाये!

इसी प्रकार के प्रतीकवाद से मोदी सरकार अपने पूँजीपरस्त चरित्र को दृष्टिओझल करना चाहती है। लेकिन अब वह समय आ रहा है, जब यह खोखला प्रतीकवाद भी धीरे-धीरे अपना असर खो रहा है। मोदी सरकार बनने के तुरन्त बाद इस प्रतीकवाद का काफ़ी असर पड़ रहा था। लेकिन जनता के कम-से-कम कुछ हिस्सों में यह समझदारी अब बनने लगी है कि मोदी की यह सारी धार्मिकता, वित्तीय समावेशन की बातें और संन्यास भाव वास्तव में अपने असली चरित्र को छिपाने के लिए है, यानी कि पूँजीपतियों के वफ़ादार चौकीदार का चरित्र! हम मज़दूरों को भी यह सच्चाई जल्द से जल्द समझ लेनी चाहिए। हम जितनी जल्दी इस बात को समझेंगे, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।

मोदी सरकार की तीसरी चाल: जनता को धर्म के नाम पर बाँटना

Modi development cartoon grayscale copyऐसे में, मोदी सरकार और पूरा का पूरा संघ परिवार (जिसमें भाजपा, विहिप, बजरंग दल, सेवा भारती जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषंगी संगठन हैं) जनता के बीच तरह-तरह के बँटवारे पैदा करने की कोशिश कर रहा है। आरएसएस (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ) को पता है कि मोदी सरकार को जो आर्थिक नीतियाँ लागू करनी हैं, उनके चलते मोदी सरकार का अलोकप्रिय होना तय है। मोदी की सरकार के विरुद्ध जनअसन्तोष कालान्तर में आन्दोलनों का रूप लेगा। मोदी सरकार के शुरुआती क़दमों के ख़ि‍लाफ़ ही मज़दूरों ने देशभर में अपने असन्तोष को व्यक्त करना शुरू कर दिया है। ऐसे में, जहाँ मोदी सरकार मज़दूरों और आम जनता के दमन की मशीनरी को चाक-चौबन्द कर रही है, वहीं जनता की वर्ग एकजुटता को न बनने देने और उसे तोड़ने के लिए तमाम क़दम उठा रही है।

वास्तव में, मोदी के सत्ता में आने के लिए अगर कोई एक कारण सबसे ज़्यादा ज़ि‍म्मेदार था तो वह था उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा की सीटों में हुई ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी। लोकसभा चुनावों के पहले जब अमित शाह को उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया गया था, तभी उत्तर प्रदेश में संघ परिवार के मंसूबे साफ़ हो गये थे। कुछ ही समय बाद मुज़फ़्फरनगर क्षेत्र में अफवाहों के सहारे दंगों की शुरुआत की गयी और फिर कुछ ही समय में पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण शुरू हो गया। जिस क्षेत्र में निकट अतीत में दंगों का कोई इतिहास ही नहीं रहा था और हिन्दू और मुसलमान मिलकर रहते रहे थे, वहाँ पर वे एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गये। दंगों में दर्जनों लोग मारे गये और हज़ारों लोग विस्थापित हो गये जो कि आज भी शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। चुनाव के पहले से ही योगी आदित्यनाथ भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस काम को अंजाम दे रहे थे। इन फासीवादियों की घृणित चालों के कारण जनता के बीच साम्प्रदायिक तौर पर बँटवारा हुआ और चुनावों में वोटों का भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ। इसी के नतीजे के तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा को भारी फायदा हुआ। अभी हाल ही में अमित शाह ने ग़लती से बोल भी दिया कि अगर देश में साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बना रहता है तो भाजपा को आने वाले विधानसभा चुनावों में भी फायदा मिलेगा। दंगों को पैदा करने में माहिर फासीवादी गुर्गे की जुबान फिसल ही गयी!

बहरहाल, चुनावों के बाद भी मोदी सरकार की जो छीछालेदर जनता के बीच हो रही है, उसे रोकने के लिए एक बार फिर से अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे फासीवादी गुण्डों को यह जिम्मा सौंपा गया कि देश भर में अफवाहों का बाज़ार गर्म करके साम्प्रदायिक तनाव को भड़काया जाये, छोटे-छोटे कई दंगे करवाये जायें (क्योंकि गुजरात जैसे किसी नरसंहार से तो अब मोदी सरकार को नुक़सान होगा), नियन्त्रित तरीके से साम्प्रदायिक माहौल को ख़राब किया जाये। इस नियन्त्रित साम्प्रदायिकता के बूते देश में फासीवादियों ने तनाव का माहौल बनाये रखने की योजना बनायी है। इसी योजना के तहत देश के तमाम हिस्सों में, उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और झारखण्ड, उड़ीसा से लेकर महाराष्ट्र तक ये फासीवादी ‘लव जिहाद’ का हल्ला मचा रहे हैं। जितने भी ऐसे मामलों का दावा किया गया है, उनकी जाँच से पता चला है कि ‘लव जिहाद’ जैसी कोई चीज़ नहीं है। संघी गुण्डे मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग और गाँवों में कुलकों और खाते-पीते किसानों के अलावा मँझोले और छोटे किसानों की चेतना की कमी का फ़ायदा उठाते हुए उनमें भी ‘लव जिहाद’ का नकली डर भर रहे हैं; ये फासीवादी हम मज़दूरों के बीच भी यह प्रचार कर रहे हैं कि मुसलमान युवक शुरू में हिन्दू बनकर, हाथों में कलावा बाँधकर हिन्दू लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फँसा रहे हैं और फिर उन्हें मुसलमान बच्चों की माँ बना रहे हैं! वास्तव में, इस घृणित प्रचार के पीछे कोई सच्चाई नहीं है। इस ‘लव जिहाद’ के नाम पर संघ गिरोह देश भर में मुसलमानों के विरुद्ध माहौल तैयार कर रहा है। एक झूठ को सौ बार दुहरा कर ‘सच’ बनाने की ही पद्धति पर हिटलर की जारज सन्तानें काम कर रही हैं। हम मज़दूरों को इसकी असलियत समझनी चाहिए और मज़दूर बस्तियों में इन संघी गुण्डों के मिथ्याप्रचार के ख़ि‍लाफ़ बाकायदा अभियान चलाने चाहिए और आम मज़दूर आबादी को इसकी सच्चाई से अवगत कराना चाहिए।

इसके अलावा, साम्प्रदायिक तनाव को भड़काने के लिए आम हिन्दू आबादी में धर्मान्तरण का नकली हौव्वा भी खड़ा किया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ से लेकर विहिप के अशोक सिंघल और तोगड़िया जैसे लोग मुसलमानों को सीधे-सीधे धमका रहे हैं कि उन्हें गुजरात और मुज़फ्रफरनगर को भूलना नहीं चाहिए और हिन्दुस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। वे भारत को एक ऐसा “हिन्दू राष्ट्र” बनाना चाहते हैं जिसमें मज़दूरों और मेहनतकशों को देशी-विदेशी पूँजीपति जमकर और बेरोक-टोक लूटें! “हिन्दू राष्ट्र” को लूटने के लिए मोदी ने 15 अगस्त के अपने भाषण में दुनियाभर की कम्पनियों को भारत आने का आमन्त्रण दिया! रक्षा और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आज्ञा देते समय मोदी और उसके जैसे फासीवादयिों के “हिन्दू राष्ट्र” का अपमान नहीं होता है! वास्तव में, संघ को मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने और जनता के दुख-दर्द के लिए एक नकली दुश्मन तैयार करने के लिए कोई न कोई चाहिए। जर्मनी में हिटलर को यहूदी मिले थे और भारत में संघी गुण्डों को मुसलमान मिले हैं। यही इनके हिन्दुत्व की सच्चाई है। इसका असली मकसद है जनता की वर्ग एकजुटता को तोड़ना ताकि पूँजीपतियों की तानाशाही सुरक्षित रहे और जनता उसके ख़ि‍लाफ़ लड़ न पाये; जनता कभी जान न पाये कि उसका असली दुश्मन पूँजीवाद है; जनता में मुसलमान हिन्दुओं को और हिन्दू मुसलमानों को अपना दुश्मन समझें और आपस में लड़ते-मरते रहें! वास्तव में, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे लोगों को इसी साज़ि‍श पर अमल के लिए भाजपा और संघ के संगठन और चुनावी योजना में प्रमुख ज़ि‍म्मेदारियाँ दी गयी हैं। अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनाया जाना इस बात का सूचक था कि अब भाजपा अपने आख़ि‍री मोहरे के तौर पर अपना पुराना कुत्सित, घृणित खेल खेलेगी; यानी कि साम्प्रदायिक दंगों और नरसंहारों का खेल। हम मज़दूरों को मोदी सरकार और संघ गिरोह की इस चाल को समझना चाहिए, अपनी बस्तियों और रिहायशी इलाकों में अपने बीच मज़बूत वर्ग एकजुटता कायम करनी चाहिए और संघी गुण्डों की साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की हर साज़ि‍श को नाकाम कर देना चाहिए।

निष्कर्ष

मोदी सरकार की पूरी रणनीति उपरोक्त तीन चालों के मेल से समझी जा सकती है। एक ओर मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता के हितों पर खुला हमला करो; दूसरी तरफ़ इन हमलों के कारण घटने वाली लोकप्रियता को बचाने के लिए खोखले प्रतीकवाद का सहारा लो और मीडिया से अपने पक्ष में लहर बनाओ; और तीसरी ओर, जनता मोदी सरकार के पूँजीपरस्त क़दमों का कारगर विरोध न कर सके, इसके लिए उसे मज़हबी तौर पर बाँट दो! हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाओ, उनके बीच तनाव पैदा करो! अफवाहों के ज़रिये तरह-तरह के डर पैदा करो, जैसे कि ‘लव जिहाद’ और धर्मान्तरण का भय और इसके बूते पर असली मुद्दों से ध्यान भटका दो, जैसे कि महँगाई, बेरोज़गारी, अपराध और भ्रष्टाचार के बारे में मोदी सरकार के वायदे, “अच्छे दिनों” के वे सपने जिसके प्रचार पर मोदी ने हज़ारों करोड़ रुपये बहा दिये।

लेकिन इतना तय है कि इन शातिराना चालों के बावजूद मोदी के ख़ि‍लाफ़ देश में जनअसन्तोष बनना शुरू हो गया है। अभी तो मोदी सरकार के तीन महीने ही पूरे हुए हैं। अगर इसी रफ्तार से उसकी स्वीकार्यता कम हुई तो पाँच वर्षों के बाद के संसद चुनावों में भाजपा की मिट्टी पलीद होने वाली है। लेकिन यह भी तय है कि इन पाँच वर्षों में मोदी देशी और विदेशी पूँजी को वे सेवाएँ दे जायेगा जिसके लिए मोदी को इन पूँजीपतियों ने प्रधानमन्त्री की नौकरी पर रखा है। इन पाँच वर्षों में देश में निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों को मोदी सरकार जमकर लागू करेगी। यानी कि श्रम क़ानूनों को ख़त्म करना, दमन के लिए पुलिस-फौज़ की मशीनरी को दुरुस्त करना और नये दमनकारी क़ानूनों को बनाना, पेट्रोल-डीज़ल आदि से सरकारी सब्सिडी को घटाना और उनकी कीमतों को पूरी तरह से बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर छोड़ देना। इन सारी नीतियों का अर्थ होगा मज़दूर वर्ग के लिए भयंकर मुसीबतें –महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण और इनके ख़ि‍लाफ़ आवाज़ उठाने पर लाठी-डण्डा-गोली-जेल की पूरी व्यवस्था। हम अगर बैठे रहेंगे तो निश्चित तौर पर कल हमारे पास अपने पैरों पर खड़े होने की ताक़त नहीं बचेगी। पाँच साल में मोदी वह सबकुछ करेगा जिसके लिए अम्बानी, अदानी, टाटा, बिड़ला आदि ने उसे भाड़े पर रखा है। लेकिन इन पाँच सालों में हमें भी इस व्यवस्था की कब्र खोदने की अपनी तैयारियों को तेज़ करना होगा। मज़दूरों के लिए सबसे बड़े ख़तरे यानी फासीवादी उभार का मुकाबला करने के लिए मज़दूरों को अपने संगठन को मज़बूत करना होगा और इन गुण्डों से सड़क पर निपटने की भी तैयारी करनी होगी। हमें याद रखना होगा कि पाँच वर्ष बाद अगर मोदी सरकार गिर जाती है और कांग्रेस या तीसरे मोर्चे की सरकार बनती है, तो भी वह सरकार मोदी द्वारा श्रम क़ानूनों में किये गये संशोधनों या मज़दूर वर्ग की लूट और शोषण के लिए किये गये इन्तज़ामात को वापस नहीं लेने वाली है। मोदी अपना काम कर जायेगा। आने वाली सरकारें फिर से थोड़ा “कल्याणकारी” मुखौटा पहनकर जनता के गुस्से को शान्त करेंगी। पूँजीवादी व्यवस्था के काम करने का यही तरीका है। कुछ समय में “कल्याणकारी” मुखौटा फिर से घिस जायेगा और किसी नये फासीवादी उभार की स्थितियाँ पैदा होंगी। यह कुचक्र चलता ही रहेगा, जब तक कि देश का मज़दूर वर्ग संगठित नहीं होता और अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण नहीं करता। मौजूदा समय हमारे लिए सबसे कठिन है, लेकिन यह हमारी तैयारियों के लिए सबसे सही समय भी है। इसलिए हमें वक़्त बरबाद नहीं करना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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