नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा और मेहनतक़श जनता के लिए इसके निहितार्थ
कविता कृष्णपल्लवी
नरेन्द्र मोदी जितना अपने भाषणों में इतिहास-विषयक भीषण अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहते हैं, उतना ही अपनी भावावेगी मूर्खता के चलते समय-समय पर, अनजाने ही, पूँजीवादी जनवाद की असलियत भी उघाड़ते रहते हैं। इन दिनों जापान-यात्रा पर उनके साथ भारतीय पूँजीपतियों का एक बड़ा दल गया हुआ है। उनका परिचय जापानी पूँजीपतियों से कराते हुए मोदी ने कहा,”ये मेरे देश के बड़े हेवीवेट लोग हैं, इतने बड़े हेवीवेट कि यदि मुझे भी इनसे मिलना हो तो समय लेना पड़े। यह मेरा सौभाग्य है कि ये लोग मेरे साथ जापान आये हैं।”
मोदी जी ने बिल्कुल सही फरमाया। पूँजीवादी जनवादी व्यवस्था में सरकारें पूँजीपति वर्ग की ‘मैनेजिंग कमेटी’ होती है। इस ‘मैनेजिंग कमेटी’ के मुखिया की वास्तविक हैसियत पूँजीपतियों के टहलुए की ही होती है। आखिरकार सच्चाई मोदी के मुँह से फिसल ही पड़ी।
मोदी अपनी जापान-यात्रा से गदगदायमान हैं। जापान अगले पाँच वर्षों में भारत के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में 34अरब डॉलर का निवेश करेगा। साथ ही, पारस्परिक सम्बन्धों को ‘विशेष सामरिक वैश्विक भागीदारी’ तक ले जाने के लिए मोदी और शिंजो एबे के बीच सहमति बनी है। सौ स्मार्ट सिटी बनाने, बुलेट ट्रेन चलाने और गंगा सफाई जैसी परियोजनाओं के लिए जिस भारी पूँजी की दरकार है, उसे पूरा करने के लिए देशी पूँजीपतियों को अधिकतम छूट और सुविधाएँ देकर लुभाने के बाद मोदी अब विदेशी पूँजी को लुभाने और कटोरा लेकर कर्ज माँगने के लिए निकल पड़े हैं। उनका पहला पड़ाव जापान है। इसके बाद वे आस्ट्रेलिया जायेंगे और फिर दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन और पश्चिमी देशों का रुख करेंगे। यह बात जगजाहिर है कि जापानी अपने कर्जों पर कड़ा ब्याज वसूलते हैं, पूँजी निवेश के लिए सस्ती से सस्ती दरों पर ज़मीनें, कच्चे माल की गारण्टी और अन्य सुविधाएँ माँगते हैं और श्रम कानूनों से ज्यादा से ज्यादा मुक्ति तथा मज़दूर आंदोलनों पर कठोर सरकारी नियंत्रण की माँग करते हैं। नरेन्द्र मोदी ने श्रम कानूनों में घनघोर मज़दूर-विरोधी सुधार की घोषणा पहले ही कर दी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को ज़मीनें और सरकारी खजाने से खर्चा करके इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया करने के तमाम इन्तजामों की घोषणाएँ पहले ही की जा चुकी हैं। ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ और ‘बनाओ-चलाओ-सौंपों’ की सभी स्कीमों के अन्तर्गत, ज़रूरी खर्चों का बोझ सरकारी खजाने के मार्फत जनता पर पड़ेगा, करोड़ों लोगों की ज़मीनें कौड़ियों के मोल लेकर उन्हें देशी-विदेशी कम्पनियों को सौंप दिया जायेगा तथा विनिवेश के जरिए पूँजी जुटाने के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने की प्रक्रिया और तेज़ कर दी जायेगी। जाहिर है कि लम्बे समय से मन्दी और ठहराव का संकट झेल रहे जापानी साम्राज्यवादियों के लिए पूँजी निवेश के लिए इतनी अनुकूल परिस्थितियाँ बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के समान है और उन्होंने अभूतपूर्व निवेश के लिए खुशी-खुशी हामी भर दी है। जापानी पूँजीपतियों की हर समस्या का चुटकी बजाते समाधान हो, इसके लिए नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यालय में ‘जापान प्लस’ नाम से नया प्रकोष्ठ खोलने की घोषणा भी कर दी है।
जाहिर है कि आने वाले दिनों में ‘अमीरों के भारत’ की इस तरक्की की ‘मेहनतक़शों का भारत’ भारी कीमत चुकाने वाला है। जापानी कम्पनियाँ मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने में कितनी बेरहम होती हैं, श्रम कानूनों को किस प्रकार वे ताक पर धर देती हैं और इन कम्पनियों के हड़ताली मज़दूरों को कुचलने में भारत सरकार किस प्रकार बर्बर दमन का रुख अपनाकर जापानी साम्राज्यवाद की सेवा करती है, यह पिछले वर्षों होण्डा, मारुति और कई अन्य जापानी कम्पनियों में चले मज़दूर संघर्षों के दौरान देखा जा चुका है। आने वाले दिनों में मज़दूरों के अतिशोषण और विरोध में उठने वाली हर आवाज़ के बर्बर दमन का पुख्ता इंतजाम मोदी सरकार कर चुकी है और मोदी टोक्यो जाकर इसकी पक्की गारण्टी भी दे आये हैं।
नवउदारवादी नीतियों पर बुलेट ट्रेन की रफ्तार से अमल करते हुए मोदी दरअसल भारत को चीन की तरह ‘ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग हब’ बनाने का सपना पाले हुए हैं। दोनों देशों की उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर और पूँजी की शक्ति के भारी अन्तर को देखते हुए मोदी की महत्वाकांक्षा शेखचिल्ली के सपने के समान लगती है, फिर भी मोदी सरकार इसे पाने के लिए किसी भी हद से गुजर जाना चाहती है। सच्चाई यह है कि मैन्यूफैक्चरिंग में विदेशी पूँजी को आकृष्ट करने तथा उसके साथ सहकार और प्रतिस्पर्द्धा करने के मामले में चीन की एक-चौथाई क्षमता हासिल करने के लिए भी भारतीय पूँजीवाद को चीनी पूँजीपति वर्ग की तुलना में चौगुना अधिक बर्बर दमनकारी और सर्वसत्तावादी रुख अपनाना पड़ेगा। मोदी सरकार इसके लिए कटिबद्ध है। मज़दूर संघर्षों को कुचलने तथा हिन्दुत्ववाद की लहर फैलाकर मेहनतक़श जनता की जुझारू एकजुटता को तोड़ते रहने की कुटिल परियोजनाओं पर अमल की तैयारी पूरी हो चुकी है। विडम्बना यह है कि मोदी सरकार के इन तमाम भगीरथ-प्रयासों के बावजूद, विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में भारतीय पूँजीपति वर्ग शीर्ष पर आसीन साम्राज्यवादी शक्तियों का ‘जूनियर पार्टनर’ ही बना रहेगा, जबकि चीन आज तेजी से एक नयी साम्राज्यवादी शक्ति बन रहा है और पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों से बराबरी की होड़ करने के लिए धुरी और ब्लॉक संगठित करने के खेल में लगा हुआ है।
इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और नये वैश्विक ध्रुवीकरणों का लाभ उठाकर सस्ती से सस्ती शर्तों पर पूँजी, ऋण और तकनोलॉजी हासिल करने में, सस्ती से सस्ती कीमतों पर युद्धास्त्र, भारी मशीनें, परिवहन एवं यात्री विमान आदि खरीदने में, दुनिया के तेल क्षेत्रों में व कुछ पिछड़े देशों में पूँजी निवेश के अवसर ढूँढने में तथा अपने विकल्पों का विस्तार करने में भारतीय पूँजीपति वर्ग भी बेहद चतुराई से अपनी चालें चल रहा है तथा हर अनुकूल अवसर का लाभ उठा रहा है। एक ओर अमेरिका-ब्रिटेन धुरी आज भी भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और इस्रायली हथियारों का भारत सबसे बड़ा खरीदार है, दूसरी ओर रूस के साथ भी रक्षा और अन्य मामलों में उसका घनिष्ठ सहकार है। जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और फ्रांस के साथ ही तीसरी दुनिया के सापेक्षत: विकसित उत्पादक शक्तियों वाले देशों — ब्राजील, अर्जेण्टीना, दक्षिण अफ्रीका आदि के साथ भी पूँजी, तकनोलॉजी और ज़रूरत की उन्नत चीजों (जैसे ब्राजील से एक विशेष हेलिकॉप्टर) के लिए भारत समझौते करता रहता है। तेल-गैस की अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग रूस और ईरान के साथ अमेरिका और उसके गुट के तेल धनी अरब देशों के अन्तरविरोधों का चतुराई से लाभ उठाता है और साथ ही दूसरी ओर वेनेजुएला के तेल क्षेत्रों में निवेश के लिए समझौते भी करता है।
‘ब्रिक्स’ के गठन और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समान्तर ‘ब्रिक्स’ के विकास बैंक के निर्माण के पीछे रूस और चीन के साम्राज्यवादियों का उद्देश्य अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के नये दौर में पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों के शिविर को तथा अमेरिका की विश्व-चौधराहट को चुनौती देने के लिए एक मोर्चा खोलना है। विश्व बाज़ार में पैठ तथा विश्व स्तर पर निचोड़े गये अधिशेष में अपनी भागीदारी बढ़ाने के दूरगामी उद्देश्य से भारत भी ‘ब्रिक्स’ का एक हिस्सा है, दूसरी ओर ‘ब्रिक्स’ में शामिल होने के पीछे उसकी मंशा अमेरिका, यूरोपीय देशों और जापान से पूँजी, ऋण एवं तकनोलॉजी लेने के मोलतोल में दबाव बनाने की है। ‘ब्रिक्स’ के भीतर असली धुरी रूस और चीन की ही बनती है। भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका दोहरे उद्देश्यों से इसमें शामिल हैं और रूस-चीन के ढ़ुलमुल दोस्त हैं। बल्कि रूस और चीन की अधिक करीबी ‘ब्रिक्स’ के बाहर के ईरान, वेनेजुएला, क्यूबा आदि देशों से बनती है। उक्रेन को छोड़कर, मध्य एशिया के (पूर्व सोवियत संघ के घटक) ज्यादातर देश तो रूसी खेमे के साथ हैं ही।
यह अनायास नहीं कि ‘ब्रिक्स’ देशों के सम्मेलन के तुरत बाद नरेन्द्र मोदी जापान गये और वहाँ से जो चाहते थे, उसमें से ज्यादातर हासिल कर लाये। अब आस्ट्रेलिया से यूरेनियम सौदे और अन्य व्यापार समझौतों की पारी है। इस स्थिति में निकट भविष्य में रूस और चीन से भी मोलतोल में आसानी होगी।
जापान से निकटता बढ़ाने के पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग की एशिया-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय प्रतिस्पर्द्धा में प्रभावी भूमिका निभाने की आकांक्षा और दक्षिण एशिया में उसकी क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षा की भी एक अहम भूमिका है। समूचे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव जापान, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम के साथ ही भारत के लिए भी गम्भीर चिन्ता का विषय है। चीन-जापान और चीन-वियतनाम के साथ ही चीन-भारत के बीच भी सीमा-विवाद है। चीन द्वारा तिब्बत से नेपाल और भूटान की सीमा तक रेल लाइन बनाना, नेपाल, बर्मा और श्रीलंका में बढ़ता चीनी निवेश और इनके साथ बढ़ती चीनी घनिष्ठता भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए परेशानी का सबब है, क्योंकि इस दक्षिण एशियाई भूभाग में चीन से कम ताकत के बावजूद, काफी हद तक भारत की चौधराहट चलती रही है। पाकिस्तान के साथ चीन की निकटता ग्वादर बंदरगाह की निर्माण-परियोजना के बाद भारत के लिए और गम्भीर चिन्ता का विषय बन गयी है। इसी स्थिति के प्रतिसंतुलन के लिए नेपाल और भूटान जैसे दो छोटे पड़ोसियों से रिश्तों की डोर मजबूत करने के लिए वहाँ की यात्रा के बाद, नरेन्द्र मोदी ने अपना अगला पड़ाव जापान को बनाया तथा अपने विदेश मंत्री को वियतनाम भेजा। भावी आस्ट्रेलिया-यात्रा भी चीन की प्रति-घेरेबन्दी की इसी रणनीति से काफी हद तक जुड़ी हुई है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मोदी की जापान-यात्रा आम मेहनतक़शों को रौंदती हुई नवउदारवाद की बुलेट ट्रेन दौड़ाने की मोदी की परियोजना का एक महत्वपूर्ण मुकाम है। साथ ही, पूरे विश्व स्तर पर फिर से उभरती अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के नये दौर में ज्यादा से ज्यादा प्रभावी ढंग से अपने हित साधने के लिए, तथा एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में चीन की प्रभावी बढ़त की काट करने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग जिस वैश्विक कार्य-योजना पर अमल कर रहा है, मोदी की जापान-यात्रा उसी का एक हिस्सा है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2014
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