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बांगलादेश के गारमेण्ट मज़दूरों का जुझारू संघर्ष
तीन महीने से वेतन नहीं मिला, मज़दूर हड़ताल पर
मालिकों और पुलिस का उत्पीड़न तोड़ नहीं पाया उनके हौसले को
भूखे पेट रहकर भी शानदार तरीके से लड़ रहे हैं मज़दूर
संजय
मंदी का दुष्चक्र पूँजीवादी व्यवस्था के लिए असमाधेय संकट बन चुका है। मुनाफे की घटती दर से पूँजीपतियों की सांसें अटकी हुई हैं। अपना मुनाफा बनाये रखने के लिए पूँजीपति मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ डाल रहे हैं। लेकिन मज़दूर भी अब चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे। दुनिया भर में मज़दूर पूँजीपतियों की बर्बर लूट का जमकर प्रतिरोध कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। बांगलादेश में पिछले साल राना प्लाजा फैक्टरी गिरने से बारह सौ से अधिक मज़दूरों और उनके बच्चों की मौत के बाद से टेक्सटाइल मज़दूरों के आन्दोलनों का सिलसिला लगातार जारी है। इस समय तुबा समूह के मज़दूर हड़ताल पर हैं। इस समूह के 1600 मज़दूरों को पिछले तीन महीने से वेतन नहीं मिला है। मज़दूरों के पास न पैसा है न ही भोजन। बावजूद इसके वे लड़ रहे हैं। ये लड़ाई उनके जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी है। मई से हड़ताल पर गए मज़दूरों ने दो फैक्ट्रियों पर कब्जा कर लिया और पिछले दो सप्ताह से वे भूख हड़ताल पर हैं। इसमें कई मज़दूर भोजन की कमी की वजह से कमजोर हो गए हैं। कई बीमार पड़ गए और तमाम अस्पताल में हैं। इन विकट परिस्थितियों में भी मज़दूरों ने हिम्मत नहीं हारी है और जुझारू तरीके से संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं।
बांगलादेश में करीब 40 लाख मज़दूर बेहद खराब हालात में गारमेण्ट उद्योग में काम करते हैं। दो वर्ष पहले ढाका की ताजरीन गारमेण्ट फैक्ट्री में आग से 150 मज़दूर मारे गये थे। बांगलादेश में इस घटना से पहले पिछले 3 वर्ष में आग लगने या इमारत गिरने से 1800 से ज्यादा गारमेण्ट मज़दूरों की मौत हो चुकी थी। राना प्लाजा में इमारत गिरने से 1100 मज़दूरों की मौत के बाद सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ओर से कुछ दिखावटी घोषणाओं के अलावा कोई ठोस कार्रवाई न होने से क्रुद्ध मज़दूरों ने मई दिवस के दिन देश के कई शहरों में जुझारू विशाल प्रदर्शन किये। उसके बाद सितम्बर और नवम्बर में भी गारमेण्ट मज़दूरों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित किये जिसके दबाव में सरकार को उनकी न्यूनतम मज़दूरी में 77 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करनी पड़ी (हालाँकि अब भी यह बेहद कम है)। इन हादसों के मद्देनजर इंडस्ट्रियल ग्लोबल यूनियन फेडरेशन और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं और यूनियनों के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जबर्दस्त प्रयास से आग एवं भवन सुरक्षा पर बांगलादेश समझौता हुआ था। समझौते के निरीक्षक फरवरी से फैक्ट्रियों का निरीक्षण कर रहे हैं जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। इसमें पता चला है कि ज्यादातर गारमेण्ट फैक्ट्रियां असुरक्षित हैं, आग से निपटने में पर्याप्त रूप से तैयार नहीं हैं, भवन मजबूत नहीं हैं, ओवरलोडेड हैं और निर्माणाधीन हैं।
बांगलादेशी मज़दूरों का भयंकर शोषण और उत्पीड़न जारी है। अपने वेतन के लिए तीन माह से संघर्ष कर रहे मज़दूरों को न भूख की परवाह है न ही पुलिस दमन की। पर्याप्त भोजन नहीं मिलने के कारण बहुत से मज़दूर कमजोर हो गए हैं, कई ने बिस्तर पकड़ लिया है और तमाम अस्पताल में भर्ती हैं लेकिन आन्दोलन का जोश बरकरार है। पिछले दो सप्ताह के दौरान हड़ताल के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस, सरकार और मालिकों के गुण्डों ने कई बार हमले किए और कुछ ही दिन पहले कब्जा की गयी फैक्ट्रियों में जबरन घुसकर यूनियन पदाधिकारियों को बेरहमी से पिटाई के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। तुबा समूह के हड़ताली मज़दूरों का भयंकर उत्पीड़न और फैक्ट्री मालिकों और सरकार की बेरुखी के कारण स्थिति भयानक होती जा रही है। मज़दूर पिछले दो सप्ताह से भूख हड़ताल पर हैं। तुबा समूह का मालिक वही शख्स है जो ताजरीन फैक्ट्री का मालिक रह चुका है। ताजरीन फैक्ट्री में अग्निकांड के एक साल बाद फैक्ट्री मालिक की गिरफ्तारी हुई थी और अब उसने हड़ताल का फायदा उठाकर जमानत भी प्राप्त कर ली है।
तुबा समूह पश्चिमी देशों के बड़े कार्पोरेशन जैसेकि वालमार्ट के लिए कपड़े बनाता है और वर्ल्ड कप के दौरान इसने कई यूरोपीय कंपनियों के लिए फीफा समर्थित कपड़े बनाए। अंतर्राष्ट्रीय गारमेण्ट उद्योग, जो दुनिया के तमाम देशों के खाते पीते मध्यवर्ग को सस्ते में फैशनेबल कपड़े लगातार उपलब्ध कराता है, बांगलादेशी मज़दूरों के शोषण पर टिका हुआ है। कुछ दिन पहले ही बांगलादेश के दो औद्योगिक शहरों में वेतन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हजारों गारमेण्ट मज़दूरों पर दंगा पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे। इस दौरान हुए पथराव में दर्जनों लोग घायल हुए। इसमें कम से कम दो सौ कारखाने बंद कर दिए गए। बांगलादेश कपड़ा निर्यात से सालाना 20 बिलियन डालर कमाता है जबकि वहां के मज़दूरों को दुनिया में सबसे कम वेतन मिलता है।
बांगलादेश, भारत और पाकिस्तान में लगभग हर महीने ही कोई न कोई भयंकर हादसा होता है जिसमें भारी संख्या में मज़दूर मारे जाते हैं। बांगलादेश में आग लगने से डेढ़ सौ मज़दूरों को मारे जाने की घटना के बाद पाकिस्तान के दो कारखानों में आग लगी थी जिसमें तीन सौ से ज्यादा मज़दूरों की जान गयी थी।
भारत, बांगलादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से लेकर मलेशिया, इण्डोनेशिया, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, मेक्सिको, चीन, क्रोशिया आदि देशों में एक के बाद उठ रहे जुझारू आन्दोलन इन देशों के उस मज़दूर वर्ग की बढ़ती बेचौनी और राजनीतिक चेतना का संकेत दे रहे हैं जो हर तरह के अधिकारों से वंचित और सबसे बर्बर शोषण का शिकार है। बेहद कम मज़दूरी पर और बहुत खराब व खतरनाक स्थितियों में काम करने वाली यह विशाल मज़दूर आबादी तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में मज़दूरों के 90 प्रतिशत से अधिक है। इनका भारी हिस्सा असंगठित है और ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल या पीसरेट पर काम करता है। इन देशों में पूँजीवादी विकास इसी विराट मज़दूर आबादी की हड्डियाँ निचोड़ कर हो रहा है। बिखराव, संगठनविहीनता और पिछड़ी चेतना का शिकार यह मज़दूर वर्ग अब तक प्रायः कुछ रक्षात्मक संघर्षों या बीच-बीच में फूट पड़ने वाली उग्र झड़पों के विस्फोट तक सीमित रहा था। लेकिन दुनिया भर में जगह-जगह हो रहे आन्दोलन बताते हैं कि इसमें तेजी से अपने अधिकारों और एकजुटता की चेतना का संचार हो रहा है और यह पूँजी की ताक़तों से लोहा लेने के लिए तैयार हो रहा है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन