नरेन्द्र मोदी की नेपाल यात्रा
हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छूकर चीन से होड़ में आगे निकलने की क़वायद
आनन्द सिंह
पिछली 3-4 अगस्त के बीच सम्पन्न नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय नेपाल यात्रा को भारत और नेपाल दोनों ही देशों की बुर्जुआ मीडिया ने हाथों हाथ लिया। एक ऐसे समय में जब घोर जनविरोधी नव-उदारवादी नीतियों की वजह से त्राहि-त्राहि कर रही आम जनता में “अच्छे दिनों” के वायदे के प्रति तेजी से मोहभंग होता जा रहा है, मोदी ने नेपाल यात्रा के दौरान सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने वाले कुछ हथकण्डे अपनाकर अपनी खोयी साख वापस लाने की कोशिश की। अपनी यात्रा के पहले दिन मोदी ने नेपाल की संसद/संविधान सभा में सस्ती तुकबन्दियों, धार्मिक सन्दर्भों और मिथकों से सराबोर एक लंबा भाषण दिया जिसे सुनकर ऐसा जान पड़ता था मानो एक बड़ा भाई अपने छोटे भाई को अपने पाले में लाने के लिए पुचकार रहा हो और उसकी तारीफ़ के पुल बाँध रहा हो। हीनताबोध के शिकार नेपाल के बुर्जुआ राजनेता इस तारीफ़ को सुन फूले नहीं समा रहे थे। यात्रा के दूसरे दिन मोदी ने पशुपतिनाथ मन्दिर के दर्शन के ज़रिये भारत और नेपाल दोनों देशों में अपनी छवि ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ धार्मिक एवं पाखण्डपूर्ण टिटिम्मेबाजी की। बुर्जुआ मीडिया भला इस सुनहरे अवसर को कैसे छोड़ सकती थी! मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के बाद यह पहला ऐसा मौका था जब उसे एक बार फिर से मोदी की लोकप्रियता का उन्माद खड़ा करने के लिए मसाला मिला और उसने उसे जमकर भुनाया और अपनी टीआरपी बढ़ायी। नेपाली मीडिया में भी मोदी की नेपाल यात्रा को नेपाल के लोगों के दिल और दिमाग को छू लेने वाला बताया। इस बात में अर्धसत्य है कि मोदी ने नेपाल के लोगों के दिलो-दिमाग को छुआ, पूरी सच्चाई यह है कि दरअसल मोदी ने हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छुआ।
मीडिया की मसालेदार व चटखदार ख़बरों को भेदकर मोदी की इस यात्रा का असली मक़सद जानने की कोशिश करने पर यह साफ़ दिखता है कि यह यात्रा दक्षिण एशिया में भारत की चौधराहट क़ायम करने की मोदी सरकार की विदेश नीति के तहत नेपाल में ऊर्जा, परिवहन और संचार के क्षेत्रों में होड़ में चीन को पीछे छोड़ने की कवायद का हिस्सा थी। ग़ौरतलब है कि मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस के सभी राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था। उसके बाद मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान को चुना। भूटान और नेपाल के अतिरिक्त बांगलादेश, म्यांमार एवं श्रीलंका आदि को भी कुछ रियायतें देकर मोदी सरकार दक्षिण एशिया में भारत की चौधराहट क़ायम करना चाहती है और साथ ही इन देशों से आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ाकर अपनी खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चाह रही है। नेपाल की बात करें तो भारत और चीन दोनों ही देशों के पूँजीवादी शासक वर्ग पिछले कई वर्षों से नेपाल में पनबिजली परियोजनाओं, सड़क एवं रेल निर्माण एवं संचार के क्षेत्रों में पूँजी निवेश करके अपने-अपने हितों के अनुरूप नेपाल के विकास की दिशा नियन्त्रित करना चाह रहे हैं। भारत के विदेश नीति विशेषज्ञ लंबे समय से यह कहते आये हैं कि यदि भारत इस दिशा में त्वरित फैसले नहीं लेगा तो वह इस दौड़ में चीन से पिछड़ जायेगा। इसी के मद्देनज़र मोदी सरकार ने यह फैसला किया है कि नेपाल से एक बार फिर शीर्ष स्तर पर राजनीतिक और कूटनीतिक सम्बन्धों में प्रगाढ़ता लाकर अपने हित साधे जायें। ये विशेषज्ञ इस बात के लिए मोदी की तारीफ़ करते नहीं अघा रहे हैं कि पिछले 17 सालों में नेपाल की यात्रा करने वाले पहले प्रधानमन्त्री हैं। लेकिन ये कलमघसीट यह नहीं बताते कि इन 17 सालों में नेपाल के प्रति भारत नेपाल में क्या गुल खिलाता रहा है। सच तो यह है कि इन 17 सालों में भारत ने शीर्ष स्तर की वार्तायें इसलिए नहीं कीं क्योंकि इस दौरान नेपाल में जारी जनयुद्ध और उसके बाद संविधान निर्माण की प्रक्रिया में भारत ने वहाँ अपने अधिकारियों एवं गुप्तचरों के ज़रिये नेपाल की अन्दरूनी राजनीति में दख़लन्दाजी करके अपने हितों को साधने का घृणित प्रयास किया। इन 17 सालों में हस्तक्षेपवादी नीति लागू करने के बाद प्रधानमन्त्री की यात्रा इसलिए हुई क्योंकि अब भारत के शासक वर्ग को यह लगने लगा है कि यदि शीर्ष स्तर पर औपचारिक सम्बन्ध बहाल करके विकास की योजनाओं को तेजी से नहीं लागू किया जायेगा तो नेपाल में चीन की पैठ बहुत बढ़ जायेगी।
मोदी की यात्रा के दौरान महाकाली नदी पर बनने वाली 5600 मेगावाट वाली पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना को शुरू करने पर समझौता हुआ। यह योजना एक दशक से भी ज़्यादा समय से अधर में लटकी हुई थी। ज्ञात हो कि नेपाल में तेज़ प्रवाह वाली 6000 से भी ज़्यादा नदियों के होने की वजह से वहाँ जलविद्युत उत्पादन की प्रचुर संभावनाएँ हैं। नेपाल की मौजूदा विद्युत उत्पादन क्षमता 600 मेगावाट है जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक वहां संभावित विद्युत उत्पादन क्षमता 40,000 मेगावाट से भी अधिक है। अभी नेपाल को 150 मेगावाट बिजली भारत से आयात करनी पड़ती है। जलविद्युत परियोजनाओं की यह प्रचुर संभावना नेपाल में भारत और चीन के बीच होड़ का सबसे बड़ा कारण है क्योंकि दोनों ही देशों की पूँजीवादी सत्ताओं को अपनी अर्थव्यवस्थाओं को निर्बाध रूप से चलाने के लिए बिजली की सख़्त ज़रूरत है। चीन त्रिशुली नदी पर 60 मेगावाट की तथा सेती नदी पर 750 मेगावाट की जलविद्युत परियोजना विकसित कर रहा है। भारत की टाटा पावर, लैंको, जीएमआर, जिन्दल, एल एंड टी और जेंको जैसी कंपनियों ने नेपाल में जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने के ठेके प्राप्त किये हैं, हालाँकि उन पर काम अभी नहीं शुरू हो सका है। करनाली नदी पर जीएमआर ग्रुप को 900 मेगावाट कर परियोजना विकसित करने का ठेका 2008 में ही मिला था, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के कारण वह अभी तक नहीं शुरू हो सकी है। इसके अतिरिक्त मरस्यांगदी नदी पर बनने वाली 600 मेगावाट की परियोजना में भी जीएमआर की 82 प्रतिशत हिस्सेदारी है। मोदी की यात्रा के दौरान एक बिजली व्यापार समझौते पर भी दस्तख़त की योजना थी, परन्तु उसके ठीक पहले नेपाल के जल संसाधन विशेषज्ञों ने इस समझौते के मसौदे पर यह कहकर आपत्ति जतायी कि यदि नेपाल उस पर दस्तख़त करता है तो वह जलविद्युत के उत्पादन के लिए पूरी तरह से भारत पर निर्भर हो जायेगा। इस विवाद के उठने की वजह से यह समझौता इस यात्रा के दौरान नहीं लागू हो सका। नेपाल के बुद्धिजीवी हलकों में भी जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर काफी उत्साह है और वे इस क्षेत्र में भारत और चीन दोनों से सौदेबाजी करने की वकालत करते हैं। लेकिन वे विकास की इस अंधी होड़ से होने वाली पर्यावरण की तबाही के बारे में कुछ भी नहीं बोलते। मोदी की यात्रा के ठीक पहले नेपाल के सिंधुपालचोक में कोसी नदी पर एक भीषण भूस्खलन हुआ जिससे वहाँ बड़े पैमाने पर तबाही हुई। यहाँ तक कि बिहार में भी बाढ़ आने का ख़तरा मंडराने लगा था। यह सर्वविदित है कि पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुकुश-हिमालय बेल्ट में आयी प्राकृतिक आपदाओं (मसलन 2010 में हुंजा घाटी में आयी आपदा, 2013 में उत्तराखंड आपदा एवं इस साल मई में अफ़गानिस्तान में बदख्शां आपदा और अब नेपाल के सिंधुपालचोक में आयी आपदा) की मुख्य वजह अंधाधुंध पूँजीवादी विकास एवं बड़ी जलविद्युत परियोजनाएँ रही हैं। ऐसे में नेपाल में जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने के लिए भारत और चीन के बीच जारी होड़ हिमालय के नाजुक पारिस्थितिक तंत्र पर निश्चय ही विपरीत असर डालेगा और इस पूरे क्षेत्र में भूस्खलन, बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं की संभावना बढ़ जायेगी।
नेपाल में भारत और चीन के बीच होड़ ऊर्जा के अतिरिक्त व्यापार एवं परिवहन व संचार जैसे अवरचनागत क्षेत्रों में भी है। विशेषकर वर्ष 2007 के बाद से चीन ने नेपाल में बेतहाशा पूँजी निवेश किया है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में चीन ने भारत को पीछे छोड़ दिया है। चीन ने हिमालय के क्षेत्र में सड़कों का जाल बिछाकर नेपाल और चीन के बीच आवागमन में सुविधा के लिए काठमांडू और नेपाल-चीन सेवा के बीच अरानिको हाइवे एवं नेपाल के स्याफ्रूबेसी तथा तिब्बत के केरूंग के बीच 20 मिलियन डालर की लागत वाली सड़क योजना में निवेश किया है। हलाँकि भारत ने भी तमाम अवरचनागत परियोजनाओं को विकसित करने का वायदा किया है, परन्तु उनके क्रियान्यवयन की रफ्तार बेहद धीमी रही है जिसकी वजह से भारत चीन से पिछड़ता हुआ दिखायी पड़ रहा है। यही वजह थी कि मोदी ने नेपाल की संसद/संविधान सभा में अपने भाषण के दौरान नेपाल को ‘हिट’ (हाइवे, आईवे, ट्रांसवे) करने का शिगूफ़ा छोड़ा। साफ़ है कि चीन और भारत दोनों ही नेपाल को ‘हिट’ कर रहे हैं और नेपाल का बुर्जुआ वर्ग इन दोनों ‘हिटों‘ का खुशी-खुशी स्वागत भी कर रहा है। मोदी ने नेपाली बुर्जुआ वर्ग को खुश करने के लिए आसान दरों पर 1 बिलियन डालर (10 हज़ार करोड़ नेपाली रुपये) के कर्ज़ का भी वायदा किया। इसके अतिरिक्त मोदी ने नेपाली छात्रों की छात्रवृत्ति बढ़ाने का, हर्बल मेडिसिन पर शोध में मदद करने का तथा नेपाल व भारत के बीच फोन दरों को सस्ता करने का भी वायदा किया। साथ ही मोदी ने दक्षिण एशिया में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग कि लिए एक सार्क सैटेलाइट छोड़ने का भी वायदा किया।
नेपाल में चीन की बढ़ती दख़ल को टक्कर देते हुए मोदी ने भारत की ओर से नेपाल को रियायतों का तोहफ़ा तो दिया ही, साथ ही साथ पुराने सांस्कृतिक-ऐतिहासिक सम्बन्धों का हवाला देकर नेपाल की भारत से क़रीबी भी दिखायी। अपने भाषण में मोदी ने ऐतिहासिक तथ्यों एवं धार्मिक मिथकों का घालमेल करके एवं नेपाल की तारीफ़ के पुल बाँधकर नेपाल को अपनी ओर खींचने का प्रयास साफ़ दिखायी पड़ा। मसलन मोदी ने नेपाल को सीता की जन्मस्थली बताया और इस धार्मिक मिथक का जिक्र एक ऐतिहासिक तथ्य की तरह किया कि जब लक्ष्मण मूर्छित हो गये थे तब हनुमान संजीवनी बूटी लेने के लिए नेपाल आये थे। हद तो तब हो गयी जब एक धर्मनिरपेक्ष देश का प्रधानमंत्री होने का दावा करने वाले इस शख़्स ने अपनी हिन्दू पहचान को खुलेआम भुनाकर नेपाल के हिन्दुओं का तुष्टीकरण करने की बेशर्म कोशिश की। अपने भाषण में मोदी ने ज़िक्र किया कि अपनी राजनीतिक यात्रा में वह गुजरात के सोमनाथ से काशी विश्वनाथ होते हुए अब पशुपतिनाथ आये हैं। यही नहीं यात्रा के दूसरे दिन मोदी ने भगवा वस्त्र धारण कर, चंदन का टीका लगाकर तथा रूद्राक्ष की माला पहनकर पशुपतिनाथ मंदिर का दर्शन किया जिसे दोनों देशों की मीडिया ने खूब प्रचारित किया। । भारत के एक जाने-माने विदेश-नीति विशेषज्ञ ने उचित ही मोदी की इस यात्रा को ‘राजनीतिक तीर्थयात्रा’ की संज्ञा दी। मोदी की यात्रा योजनाबद्ध तरीके से सावन के अन्तिम सोमवार के दिन रखी गयी थी ताकि वे अपने धार्मिक वेषभूषा एवं पाखंडपूर्ण हावभाव से दोनों देशों के हिन्दू हृदयों को छू सकें। पशुपतिनाथ मंदिर में मोदी ने बासुकी पूजा और रूद्राभिषेक किया जो अब तक सिर्फ़ नेपाल के राजा का ही विशेषाधिकार था। नेपाल की राजशाही के कूड़ेदान में फेंके जाने के बाद नये ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ को इस विशेषाधिकार से नवाजा जाना कत्तई आश्चर्यजनक नहीं है। इस विशेषाधिकार से अभिभूत होकर मोदी ने पशुपतिनाथ मंदिर को 2500 किलो चन्दन दान दिया और वहाँ धर्मशाला बनवाने के लिए 25 करोड़ रुपये भी भेंटस्वरूप दिये।
मोदी ने धार्मिक प्रतीकों एवं मिथकों का इस्तेमाल कर नेपालवासियों को पुचकारने के साथ ही साथ अपने को मानवतावादी एवं नेपालियों का हितैषी सिद्ध करने के लिए एक अन्य पाखण्डपूर्ण हथकण्डा अपनाया जिसकी कलई अगले ही दिन सोशल मीडिया पर खुल गयी। अपनी यात्रा के दौरान मोदी ने अपने ट्विटर अकाउंट से जीतबहादुर नामक एक शख़्स की तस्वीर साझा करते हुए यह दावा किया कि उन्होंने उसको 16 साल बाद उसके बिछड़े परिवार से मिलाया। लेकिन अगले ही दिन सोशल मीडिया पर मोदी के इस फर्जीवाड़े की असलियत उजागर हो गयी जब यह बात सप्रमाण सामने आयी कि वह शख़्स 2012 में ही अपने परिवार से मिल चुका था।
मोदी ने नेपाल की संविधान सभा में अपने भाषण के दौरान नेपाल में जारी संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर भी टिप्पणी की। उनकी टिप्पणियों से नेपाल में राजशाही को वापस लाने का ख़्वाब देख रहे लोगों को थोड़ी निराशा हुई होगी क्योंकि उन्होंने संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्रिक व्यवस्था के प्रति अपना समर्थन जताया। दरअसल भारत का बुर्जुआ वर्ग अब यह बात अच्छी तरह से जान चुका है कि नेपाल में राजशाही इतिहास के कूड़ेदान की चीज़ हो चुकी है। मोदी ने अपने भाषण में भी यह साफ़ किया कि वह जल्द से जल्द नेपाल में एक नये संविधान को बनते देखना चाहते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार की मंशा अब वहाँ भारत की ही भाँति एक अतिसीमित जनवादी अधिकार प्रदान करने वाले बुर्जुआ संघीय लोकतांत्रिक ढाँचे को जल्द से जल्द स्थापित करने की है ताकि वहाँ भारतीय पूँजीपतियों के हितों की हिफ़ाजत करने वाली एक सरकार बन सके।
नेपाली संविधान सभा में दिये गये भाषण में मोदी ने नेपालियों की बहादुरी की प्रशंसा करते हुए कहा कि भारत ने एक भी लड़ाई ऐसी नहीं जीती जिसमें किसी नेपाली ने रक्त न बहाया हो। इस बात पर संविधान सभा के सदस्य मेज थपथपाकर मोदी का अभिवादन करने लगे मानो उनकी हीन ग्रंथि तुष्ट हो गयी हो। मजे की बात यह है कि मेज थपथपाने वालों में प्रचण्ड और भट्टराई भी शामिल थे। ये वही प्रचण्ड और भट्टराई हैं जो कभी भारतीय सेना में गोरखा लोगों की भर्ती का पुरज़ोर विरोध किया करते थे। ये दोनों ही प्रचण्ड “माओवादी” मोदी के पूरे भाषण के दौरान संविधान सभा के अन्य सदस्यों की ही भाँति मोदी के पुचकारने वाली अदा पर पूरी तरह फ़िदा दिखे। भाषण के दौरान मोदी ने कई बार इस बात को रेखांकित किया कि नेपाल ने युद्ध को छोड़ बुद्ध को, शस्त्र को छोड़ शास्त्र को एवं बुलेट को छोड़ बैलट को अपनाकर पूरी दुनिया में नयी मिसाल क़ायम की है। बुर्जुआ संसद के सुअरबाड़े में में लोट लगाने की ठान चुके नेपाली “माओवादियों” को मानो इसमें प्रशंसा के स्वर सुनायी पड़े। यही नहीं मोदी से मुलाकात के दौरान प्रचण्ड ने कहा कि “आपने न केवल नेपालियों के मन को छुआ है बल्कि उनके दिलों को भी जीता है।” बाद में पत्रकारों को दिये बयान में भी प्रचण्ड ने मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की और मोदी की नेपाल यात्रा को ऐतिहासिक बताया। साफ़ है कि जंगल के ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होते हुए संसद के आलीशान गलियारे की यात्रा से आगे बढ़कर “प्रचण्ड पथ” अब फ़ासीवाद की चरणवंदना तक जा पहुँचा है। यदि किसी को अब भी यह मुग़ालता है कि नेपाली क्रान्ति की गाड़ी पटरी से नहीं उतरी है तो इसे हद दर्जे़ का भोलापन अथवा मूर्खता ही कहा जायेगा।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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