15 अगस्त के अवसर पर
हमें सच्ची आज़ादी चाहिए!
कुसुम साहनी, जे.जे. कैम्प, बादली औद्योगिक क्षेत्र, दिल्ली
आज़ादी आयी भी तो क्या, कायम हैं गुलामी की रस्में
जनता का जीवन आज भी है सरमायेदारी के बस में।
जो गरीब थे और गरीब हुए,
जो अमीर थे और अमीर बने
काला धन बंद तिजोरी में
फिर देश की क्या तकदीर बने?
शाहों की नहीं, नेता की नहीं,
दौलत की हुकूमत आज भी है
इंसानों को जीने के लिए पैसे की जरूरत आज भी है।
वे लोग जो कपड़ा बुनते हैं, वही लोग अधानंगे हैं
यह कैसी सोने की चिड़िया
जहाँ पग-पग पर भिखमंगे हैं!
यह कृषि प्रधान है देश मगर,
आता है अनाज विदेशों से
हर गाँव शहर में आ पहुँचा बेकारी के आदेशों से।
गोदाम में क़ैद किये बैठा कोई खेतों की जवानी को
जहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं वहाँ लोग तरसते पानी को।
अपना त्योहार बढ़ाने को मन्दिर-मस्जिद को लड़ाते हैं
इंसान नहीं शैतान हैं वो, जो जनता को बहकाते हैं।
गंदे मंसूबे लेकरके लड़ते हैं लड़ाई सूबों की
तलवार बनाकर भाषा को, भारत को काटा करते हैं।
दौलत की हुकूमत जायेगी, मेहनत की हुकूमत आयेगी
भारत की निर्धन जनता भी एक नयी जिन्दगी पायेगी।
जो ऊँच-नीच की खाई है, वह खाई पाट दी जायेगी
हम लड़कर वह दिन लायेंगे,
वह सुबह जल्द ही आयेगी।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन