स्वतंत्रता दिवस – क्यों जश्न मनाये मेहनतकश आबादी!
तपीश मैन्दोला
67 साल पहले 15 अगस्त 1947 को गोरी चमड़ी के अंग्रेजों की जगह दिल्ली की गद्दी पर भूरी चमड़ी वाले देसी साहबों ने अपना आसन जमाया। तबसे आजतक इसे स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है। इसे आज़ादी के त्योहार के तौर पर प्रचारित किया गया। सरकारों और शासक वर्ग के पिट्ठुओं ने यह कभी नहीं बताया कि वास्तव में यह भारत के पूँजीपति वर्ग की आज़ादी और आम लोगों के लिए उज़रती गुलामी वाली व्यवस्था का प्रतीक है। आज़ादी तो आई लेकिन वह केवल धनवानों के घरों में ही कैद होकर रह गयी।
आज़ादी के 67 सालों के बाद हम कहाँ पहुँचे हैं, इस पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा। आज़ादी के बाद से आज तक भारतीय समाज अधिकाधिक दो खेमों में बँटता चला गया है। 1990 के बाद यह खाई और भी तेज़ी से बढ़ने लगी है। एक ओर मुट्ठी भर लोग हैं जिन्होंने पूँजी, ज़मीनों, मशीनों, ख़दानों आदि पर अपना मालिकाना क़ायम कर लिया है तो दूसरी ओर बहुसंख्य मज़दूर, ग़रीब-मध्यम किसान और निम्न-मध्य वर्ग के लोग हैं जिनका वर्तमान और भविष्य इन मुट्ठी भर पूँजीपतियों के रहमोकरम पर आश्रित हो गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का 10वाँ सबसे धनी देश है, लेकिन प्रति-व्यक्ति आय के हिसाब से देखें तो दुनिया में भारत का स्थान 149 वाँ बैठता है। 2013 में देश में 55 अरबपति थे जिनकी दौलत दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्ऱतार से बढ़ती जा रही है। वहीं दूसरी ओर दुनिया का हर तीसरा ग़रीब भारतीय है और देश के सबसे धनी राज्य गुज़रात में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे हैं। आज हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें अगर अच्छी मज़दूरियों पर कारखानों में काम मिले तो वे अपना वर्तमान पेशा छोड़ने के लिए तैयार हैं। इनमें ज़्यादातर लोग फेरी लगाने, फूल बेचने, खोमचा लगाने, जूतों-कपड़ों की मरम्मत करने आदि जैसे कामों में लगे हुए हैं। नये कारखाने लगने और उत्पादन में बढ़ोत्तरी के बावजूद नये रोज़गार लगभग नहीं के बराबर पैदा हो रहे हैं। कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरियाँ लगातार घट रही हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में मज़दूरों को दिया जाता था, वह 2010 तक आते-आते केवल 25 प्रतिशत रह गया। इसका सीधा मतलब हैः ज़्यादा मेहनत और अधिक उत्पादन करने के बावजूद मज़दूरियाँ लगातार घटी हैं जबकि मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता गया है।
सन् 2014 की संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार मानव विकास सूचकांक के आधार पर दुनिया के 187 देशों में भारत का स्थान 135 वाँ है। जबकि हमारे यहाँ जीडीपी लगातार बढ़ रहा है और दावा किया जा रहा है कि हम दुनिया की महाशक्ति बनने वाले हैं। असल में भारत एक ही साथ दुनिया का ताकतवर मुल्क भी है और एक पिछड़ा हुआ देश भी है। अगर हम पूँजीपति वर्ग के विकास को ध्यान में रखकर देखें तो भारत सचमुच एक बड़ा और ताकतवर देश बन चुका है लेकिन अगर हम आम जन ख़ासकर मज़दूर और ग़रीब तबकों के नज़रिये से देखें तो भारत एक पिछड़ा देश ही कहलायेगा। इस तरह भारत में दो देश आकार ग्रहण कर चुके हैं। इन्हें हम क्रमशः पूँजीपतियों का भारत और मज़दूरों का भारत कह सकते हैं। हमारे देश में 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके घर बिजली नहीं पहँची है और 18 करोड़ लोगों के पास घर है ही नहीं। आजकल भी 31 प्रतिशत आबादी खुले में शौच करती है। जहाँ तक दवा-इलाज की सुविधाओं की बात है तो यहाँ भी स्थिति बेहद ख़राब है। दवायें 50 प्रतिशत भारतीयों की पहुँच से बाहर हैं। शहरों में 1 लाख लोगों के पीछे 4.48 अस्पताल और 308 बिस्तर हैं, जबकि गाँवों में प्रति 1 लाख लोगों के पीछे 0.77 अस्पताल और 44 बिस्तर हैं। यही हाल शिक्षा का भी है। पुलिस, फौज और नेताओं की ऐयाशी के ख़र्चे जहाँ लगातार बढ़ते जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था को क़रीब-क़रीब ख़त्म कर दिया गया है। अगर 2003 के आँकड़ों को देखा जाये तो भारत की सरकार ने शिक्षा पर प्रति-व्यक्ति खर्च को घटाते-घटाते 18 पैसे के स्तर पर ला दिया है।
जनता के ऊपर शासन करने के नाम पर केन्द्र और राज्य स्तर पर भारी-भरकम अफ़सरशाही है। केवल केन्द्र सरकार की बात करें तो इसके पास कुल 31 लाख कर्मचारी हैं जिनको साल भर में 4 लाख 20 हज़ार करोड़ रूपये से अधिक तनख़्वाहों के रूप में बाँट दिया जाता है। संसद नाम का बहसबाजी का अड्डा भी जनता के ऊपर बोझ साबित हो रहा है। इसकी एक घंटे की कार्रवाई में डेढ़ करोड़ रुपया स्वाहा हो जाता है। यही हाल पुलिस और फौज का है। पुलिस के ज़्यादातर जवान तो नेताओं, नौकरशाहों की रक्षा में लगे रहते हैं या फिर उनके घरों में अर्दलियों का काम कर रहे हैं। कहने के लिए सेना देश के दुश्मनों से रक्षा के लिए होती है, लेकिन हमारे देश की सेना तो देश के भीतर ही अलग-अलग राज्यों में तैनात है। कश्मीर से लेकर असम, अरुणांचल, नागालैंड जैसे बहुत से राज्य हैं जहाँ भारतीय सेना को आम जनता के खि़लाफ़ तैनात किया गया है।
इन थोड़े से तथ्यों की रोशनी में हम साफ़-साफ़ देख सकते हैं कि 20-22 करोड़ की आबादी वाला पूँजीपतियों का भारत अपने नेताओं, संसद और नेताशाही के दम पर तथा पुलिस और सेना के ज़ोर से किस तरह 100 करोड़ से ज़्यादा जनसंख्या वाले मज़दूरों और ग़रीबों के भारत का शोषण कर रहा है। एक बात तय है कि ग़रीबों, मेहनतकशों की आबादी को हमेशा-हमेशा के लिए दबाया नहीं जा सकता। निश्चित ही एक दिन आयेगा जब ये सोये हुए लोग जागेंगे और अपने वर्ग-हितों को पहचान कर अपनी सामूहिक-संगठित शक्ति से पूँजी की गुलामी से न सिर्फ़ स्वयं मुक्त होंगे बल्कि पूरी मानवता को मुक्त करेंगे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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