नया क़ानून
सआदत हसन मंटो
मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अकलमन्द आदमी समझा जाता था, हालाँकि उसकी तालीमी हैसियत सिफर के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीजों का इल्म था। अड्डे के वह तमाम कोचवान जिनको यह जानने की ख्वाहिश होती थी कि दुनिया के अन्दर क्या हो रहा है, उस्ताद मंगू के व्यापक ज्ञान से अच्छी तरह परिचित थे।
पिछले दिनों उस्ताद मंगू ने अपनी एक सवारी से स्पेन में जंग छिड़ जाने की अफवाह सुनी थी तो उसने गामा चौधरी के चौड़े काँधे पर थपकी देकर गंभीर लहजे से भविष्यवाणी की थी–
“देख लेना चौधरी, थोड़े ही दिनों में स्पेन के अन्दर जंग छिड़ जायेगी।”
और जब गामा चौधरी ने उससे यह पूछा था कि स्पेन कहाँ पड़ता है तो उस्ताद मंगू ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया था,
“विलायत में और कहाँ”?
स्पेन में जंग छिड़ी और जब हर शख्स को इसका पता चल गया तो स्टेशन के अड्डे में जितने कोचवान घेरा बनाकर हुक्का पी रहे थे, दिल ही दिल में उस्ताद मंगू का लोहा मान रहे थे और उस्ताद मंगू उस वक्त माल रोड की चमकीली सतह पर ताँगा चलाते हुए अपनी सवारी से ताजा हिन्दू-मुस्लिम दंगे पर विचार-विमर्श कर रहे थे!
उस रोज शाम के करीब जब वह अड्डे में आया तो उसका चेहरा असाधारण तौर पर तमतमा रहा था। हुक्के का दौर चलते-चलते जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे की बात छिड़ी तो उस्ताद मंगू ने सर पर से खाकी पगड़ी उतारी और बगल में दाब कर बड़े चिंतित स्वर में कहा–
“यह किसी पीर की बददुआओं का नतीजा है कि आये दिन हिन्दुओं और मुसलमानों में चाकू-छूरियाँ चलते रहते हैं और मैंने अपने बड़ों से सुना है कि अकबर बादशाह ने किसी पीर का दिल दुखाया था, उस पीर ने जलकर बददुआ दी थी–
“जा तेरे हिन्दुस्तान में हमेशा फसाद ही होते रहेंगे”–और देख लो जब से अकबर बादशाह का राज खत्म हुआ है–हिन्दुस्तान में फसाद पर फसाद होते रहते हैं”। यह कहकर उसने ठंडी साँस भरी और फिर हुक्के का दम लगाकर अपनी बात शुरू की,
“ये कांग्रेसी हिन्दुस्तान को आजाद करना चाहते हैं। मैं कहता हूँ कि अगर ये लोग हजार साल भी सर पटकते रहें तो कुछ न होगा। बड़ी से बड़ी बात यह होगी कि अंग्रेज चला जायेगा और कोई इटली वाला आ जायेगा। या वह रूस वाला जिसके बारे में मैंने सुना है कि बहुत तगड़ा आदमी है, लेकिन हिन्दुस्तान सदा गुलाम रहेगा। हाँ, मैं यह कहना भूल ही गया कि पीर ने यह बददुआ भी दी थी कि हिन्दुस्तान पर हमेशा बाहर के आदमी राज करते रहेंगे।”
उस्ताद मंगू को अंग्रेजों से बड़ी नफरत थी, इस नफरत का सबब तो वह यह बतलाया करता था कि वो उसके हिन्दुस्तान पर अपना सिक्का चलाते हैं और तरह-तरह के जुल्म ढाते हैं। मगर उसकी घृणा की सबसे बड़ी वजह यह थी कि छावनी के गोरे उसे बहुत सताया करते थे। वो उसके साथ कुछ ऐसा सुलूक करते थे गोया वह जलील कुत्ता हो। इसके अलावा उसे उनका रंग भी बिल्कुल पंसद नहीं था। जब किसी गोरे के सुर्ख व सफेद चेहरे को देखता तो उसे मतली सी आ आती। न मालूम क्यों वह कहा करता था कि उनके लाल झुर्रियों भरे चेहरे देखकर मुझे वह लाश याद आ जाती है, जिसके जिस्म पर से ऊपर की झिल्ली गल-गल कर सड़ रही हो।
जब किसी शराबी गोरे से उसका झगड़ा हो जाता तो सारा दिन उसका जी खराब रहता और शाम को अड्डे में आकर वह हल मार्का सिगरेट पीता या हुक्के के कश लगाते हुए उस गोरे को जी भरकर सुनाया करता।
“——–” यह मोटी गाली देने के बाद वह अपने सर को ढीली पगड़ी समेत झटका देकर कहा करता था,
“आग लेने आये थे, अब घर के मालिक ही बन गये हैं। नाक में दम कर रखा है इन बन्दरों की औलादों ने, यूं रोब गाँठते हैं, जैसे हम उनके बाबा के नौकर हैं—।”
इस पर भी उसका गुस्सा ठंडा नहीं होता था। जब तक उसका कोई साथी उसके पास बैठा रहता, वह अपने सीने की आग उगलता रहता।
“शक्ल देखते हो न तुम उसकी–जैसे कोढ़ हो रहा है। बिल्कुल मुर्दार, एक धप्पे की मार और गिट-पिट-गिट-पिट यों बक रहा था, जैसे मार ही डालेगा। तेरी जान की कसम, पहले पहल जी में आया उस गोरे बदख्वार की खोपड़ी के पुर्जे उड़ा दूं लेकिन इस ख्याल से टल गया कि इस मरदूद को मारना अपनी हतक है—” यह कहते-कहते वह थोड़ी देर के लिए खामोश हो जाता और नाक को खाकी कमीज की आस्तीन से साफ करने के बाद फिर बड़बड़ाने लग जाता–
“कसम है भगवान की इन लाट साहबों के नाज उठाते-उठाते तंग आ गया हूँ। जब कभी इनका मनहूस चेहरा देखता हूँ, रगों में खून खौलने लग जाता है। कोई नया क़ानून-वानून बने तो इन लोगों से निजात मिले। तेरी कसम जान में जान आ जाये।”
और जब एक रोज उस्ताद मंगू ने कचहरी से अपने ताँगे पर दो सवारियाँ लादीं और उनकी गुफ्तगू से उसे पता चला कि हिन्दुस्तान में नया संविधान लागू होने वाला है तो उसकी खुशी की हद न रही।
दो मारवाड़ी जो कचहरी में अपने दीवानी मुकदमे के सिलसिले में आये थे, घर जाते हुए नये संविधान यानी इण्डिया ऐक्ट के बारे में आपस में बातें कर रहे थे।
“सुना है कि पहली अप्रैल से हिन्दुस्तान में नया क़ानून चलेगा–क्या हर चीज बदल जायेगी”
“हर चीज तो नहीं बदलेगी मगर कहते हैं कि बहुत कुछ बदल जायेगा और हिन्दुस्तानियों को आज़ादी मिल जायेगी।”
“क्या ब्याज के बारे में भी कोई नया क़ानून पास होगा?”
“यह पूछने की बात है, कल किसी वकील से बात करेंगे।”
इन मारवाड़ियों की गुफ्तगू उस्ताद मंगू के दिल में नाकाबिले बयान खुशी पैदा कर रही थी। वह अपने घोड़े को हमेशा गालियाँ देता था और चाबुक से बहुत बुरी तरह पीटा करता था। मगर उस रोज वह बार-बार पीछे मुड़कर मारवाड़ियों की तरफ देखता रहा और अपनी बढ़ी हुई मूंछों के बाल एक उंगली से बड़ी सफाई के साथ ऊंचे करके घोड़े की पीठ पर बागें ढीली करते हुए बड़े प्यार से कहता,
“चल बेटा चल–जरा इसे बातें करके दिखा दे।”
मारवाड़ियों को उनके ठिकाने पहुंचा कर उसने अनारकली में दीनू हलवाई की दुकान पर आधा सेर दही की लस्सी पी कर एक बड़ी डकार ली और मूंछों को मुंह में दबाकर उनको चूसते हुए ऐसे ही बुलन्द आवाज में कहा,
“हत तेरी ऐसी की तैसी”
शाम को जब वह अड्डे को लौटा तो मामूल के खि़लाफ़ उसे वहाँ कोई जान-पहचान वाला आदमी नहीं मिला। यह देखकर उसके सीने में एक अजीबोगरीब तूफान मचलने लगा। आज वह एक बड़ी खबर अपने दोस्तों को सुनाने वाला था–बहुत बड़ी खबर, और इस खबर को अपने अन्दर से बाहर निकालने के लिए वह छटपटा रहा था, लेकिन वहाँ कोई था ही नहीं।
आधे घंटे तक वह चाबुक बगल में दबाये स्टेशन के अड्डे की लोहे की छत के नीचे बैचेनी की हालत में टहलता रहा, उसके दिमाग में बड़े अच्छे-अच्छे ख्यालात आ रहे थे। नये क़ानून के लागू होने की खबर ने उसको एक नई दुनिया में ला खड़ा किया था। वह उस नये क़ानून के बारे में, जो पहली अप्रैल को हिन्दुस्तान में रायज होने वाला था, अपने दिमाग की तमाम बत्तियाँ रौशन करके, गहराई से सोच रहा था। उसके कानों में मारवाड़ी की यह आशंका कि,
“क्या ब्याज के बारे में भी कोई नया क़ानून पास होगा?”
बार-बार गूंज रहा था और उसके तमाम जिस्म में खुशी की एक लहर दौड़ रही थी, कई बार अपनी घनी मूंछों के अन्दर हंस कर उसने मारवाड़ियों को गाली दी—
“गरीबों की खटिया में घुसे हुए खटमल–नया क़ानून इनके लिये खौलता हुआ पानी होगा”
वह बहुत प्रसन्नथा। खासकर उस वक़्त उसके दिल में ठंडक पहुंचती जब वह ख्याल करता कि गोरों–सफेद चूहों (वह उनको इसी नाम से याद करता था) की थूथनियाँ नये क़ानून के आते ही बिलों में हमेशा के लिए गायब हो जायेंगी।
जब नन्हू गंजा, पगड़ी बगल में दबाये अड्डे में दाखिल हुआ तो उस्ताद मंगू उससे बढ़कर मिला और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बुलन्द आवाज से कहने लगा,
“ला हाथ इधर— ऐसी खबर सुनाऊं कि जी खुश हो जाये–तेरी इस गंजी खोपड़ी पर बाल उग आयें।”
और यह कहकर मंगू ने बड़े मजे ले-लेकर नये क़ानून के बारे में अपने दोस्तों से बातें शुरू कर दीं। बातचीत के दौरान उसने कई बार नत्थू गंजे के हाथ पर जोर से अपना हाथ मार कर कहा,
“तू देखता रह, क्या बनता है, यह रूस वाला बादशाह कुछ न कुछ जरूर करके रहेगा।”
उस्ताद मंगू मौजूदा सोवियत व्यवस्था की साम्यवादी गतिविधियों के बारे में बहुत कुछ सुन चुका था और उसे वहाँ के नये क़ानून और दूसरी नई चीजें बहुत पंसद थीं। इसीलिए उसने रूस वाले बादशाह को “इण्डिया ऐक्ट” यानी नये संविधान के साथ मिला दिया और पहली अप्रैल को जो नये परिवर्तन होने वाले थे, उन्हें वह “रूस वाले बादशाह” के असर का नतीजा समझता था। कुछ अर्से से पेशावर और दूसरे शहरों में “सुर्ख पोशों” का आन्दोलन जारी था। उस्ताद मंगू ने इस आन्दोलन को अपने दिमाग में “रूस वाले बादशाह” और फिर नये क़ानून के साथ घुला-मिला दिया था। इसके अलावा जब कभी वह किसी से सुनता कि फलाँ शहर में इतने बम बनाने वाले पकड़े गये हैं, या फलाँ जगह इतने लोगों पर बगावत के आरोप में मुकदमा चलाया गया है तो इन तमाम घटनाओं को नये क़ानून की पूर्वपीठिका समझता और दिल ही दिल में बहुत खुश होता था। एक दिन उसके ताँगे में दो बैरिस्टर बैठे नये क़ानून पर बड़े जोर-जोर से आलोचना कर रहे थे और वह खामोशी से उनकी बातें सुन रहा था। उनमें से एक, दूसरे से कह रहा था–
“नये विधान का दूसरा हिस्सा फैडरेशन है, जो मेरी समझ में अभी तक नहीं आया–ऐसी फैडरेशन संसार के इतिहास में आज तक न सुनी, न देखी गई। राजनैतिक दृष्टिकोण के हिसाब से भी यह फैडरेशन बिल्कुल गलत है, यों कहना चाहिए कि यह कोई फैडरेशन है ही नहीं।”
इन बैरिस्टरों के दरम्यान जो वार्ता हुई, चूंकि उसमें अधिकांश शब्द अंग्रेजी के थे, इससे उस्ताद मंगू सिर्फ ऊपर के ही वाक्य को किसी हद तक समझा और उससे धारणा बनाई कि ये लोग हिन्दुस्तान में नये क़ानून की आमद को बुरा समझते हैं। ये नहीं चाहते कि हमारा वतन आजाद हो। चुनांचे इस विचार के तहत उसने इन दो बैरिस्टरों को हिकारत की निगाह से देखकर मन ही मन कहा, “टोडी बच्चे।”
जब कभी वह किसी को दबी जबान में “टोडी बच्चा” कहता तो दिल में यह महसूस करके बड़ा प्रसन्न होता था कि उसने इस नाम को सही जगह इस्तेमाल किया है और यह कि वह शरीफ आदमी और टोडी बच्चे में भेद करने की क्षमता रखता है।
इस घटना के तीसरे दिन वह गवर्नमेंट कालेज के तीन छात्रों को अपने ताँगे में बिठाकर मिजंग जा रहा था कि उसने इन तीन लड़कों को आपस में बातें करते सुना,
“नये संविधान ने मेरी उम्मीदें बढ़ा दी हैं, अगर— साहब असेम्बली के मेम्बर हो गये तो किसी सरकारी आफिस में नौकरी जरूर मिल जायेगी।”
“वैसे भी बहुत सी जगहें और निकलेंगी, शायद इसी गड़बड़ में हमारे हाथ भी कुछ आ जाये”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं।”
“वो बेकार ग्रेजुएट जो मारे-मारे फिर रहे हैं, उनमें कुछ तो कमी होगी”
इस वार्तालाप ने उस्ताद मंगू के मन में नये क़ानून की अहमियत और भी बढ़ा दी और वह उसको ऐसी चीज समझने लगा जो बहुत चमकती हो, “नया क़ानून—?” वह दिन में कई बार सोचता “यानी कोई नई चीज” और हर बार उसकी नजरों के सामने अपने घोड़े का वह नया साजोसामान आ जाता जो उसने दो साल पहले चौधरी खुदाबख़्श से बड़ी अच्छी तरह ठोंक-बजाकर खरीदा था। उस साज पर जब वह नया था, जगह-जगह लोहे की निकिल चढ़ी हुई कीलें चमकती थीं और जहाँ-जहाँ पीतल का काम था वह तो सोने की तरह दमकता था। इस लिहाज से भी “नये क़ानून” का चमकदार व रौशन होना जरूरी था।
पहली अप्रैल तक उस्ताद मंगू ने नये क़ानून के खि़लाफ़ और उसकी हिमायत में बहुत कुछ सुना मगर उसके बारे में जो तस्वीर वह अपने जेहन में बना चुका था, बदल न सका। वह समझता कि पहली अप्रैल को नये क़ानूनों के लागू होते ही सब गड़बड़ ठीक हो जायेगी और उसको विश्वास था कि उसकी आमद पर जो चीजे़ं नजर आयेंगी उनसे आँखों को ठंडक जरूर पहुंचेगी।,
आखिरकार मार्च के इक्तीस दिन खत्म हो गये और अप्रैल के शुरू होने में रात के चन्द खामोश घंटे बाकी रह गये थे। मौसम खि़लाफ़ेमामूल सर्द था और हवा में ताजगी थी। पहली अप्रैल को उस्ताद मंगू सुबह-सवेरे उठा और अस्तबल में जाकर घोड़े को ताँगे में जोता और बाहर निकल गया। उसकी तबियत आज गैरमामूली तौर पर खुशी व जोश से भरी हुई थी–वह नये क़ानून को देखने वाला था। उसने सुबह के सर्द धुंधलके में कई तंग और खुले बाजारों का चक्कर लगाया मगर उसे हर चीज पुरानी नजर आई–आसमान की तरह पुरानी। उसकी आँखें आज खास तौर पर नया रंग देखना चाहती थीं, मगर सिवाये उस कलगी के जो रंग बिरंगे परों से बनी थीं और उसके घोड़े के सर पर जमी हुई थी और सब चीजें पुरानी नजर आती थीं। यह नई कलगी उसने नये क़ानून की खुशी में 31 मार्च को चौधरी खुदाबख़्श से साढ़े चौदह आने में खरीदी थी।
घोड़े के टापों की आवाज, काली सड़क और उसके आस-पास थोड़ा-थोड़ा फासला छोड़कर लगाये हुए बिजली के खंभों, दुकानों के बोर्ड, उसके घोड़े के गले में पड़े हुए घुंघरू की झनझनाहट, बाजार में चलते-फिरते आदमी— इनमें से कौन सी चीज नई थी। जाहिर है कि कोई भी नहीं। लेकिन उस्ताद मंगू मायूस नहीं था।
“अभी बहुत सवेरा है, दुकानें भी सब की सब बन्द हैं” इस ख़्याल से उसे तसकीन थी। इसके अलावा वह यह भी सोचता था “हाईकोर्ट में तो नौ बजे के बाद ही काम शुरू होता है। अब इससे पहले नये क़ानून का क्या नजर आयेगा।”
जब उसका ताँगा गवर्नमेंट कालेज के दरवाजे के करीब पहुंचा तो कालेज के घड़ियाल ने बड़े गर्व से नौ बजाये। जो छात्र कालेज के बड़े गेट से बाहर निकल रहे थे, साफ सुन्दर कपड़े पहने हुए थे, मगर उस्ताद मंगू को न जाने क्यों उनके कपड़े मैले-मैले से नजर आये। शायद इसकी वजह यह थी कि उसकी निगाहें आज किसी बहुत जोरदार दृश्य का नजारा करने वाली थीं।
ताँगे को दायें मोड़कर वह थोड़ी देर के बाद फिर अनारकली में था। बाजार की आधी दुकानें खुल चुकी थीं और अब लोगों का आना-जाना भी बढ़ गया था। हलवाई की दुकान पर ग्राहकों की खूब भीड़ थी। मनिहारों की नुमाइशी चीजें शीशे की अलमारियों में लोगों को दर्शन का निमंत्रण दे रही थीं और बिजली के तारों पर कई कबूतर आपस में लड़-झगड़ रहे थे। मगर उस्ताद मंगू के लिए इन तमाम चीजों में कोई दिलचस्पी न थी–वह तो नये क़ानून को देखना चाहता था। ठीक उसी तरह जिस तरह वह अपने घोड़े को देख रहा था।
जब उस्ताद मंगू के घर में बच्चा पैदा होने वाला था तो उसने चार-पाँच महीने बड़ी व्याकुलता में गुजारे थे। उसको यकीन था कि बच्चा किसी न किसी दिन अवश्य पैदा होगा, मगर वह इंतजार की घड़ियाँ नहीं काट सकता था। वह चाहता था, अपने बच्चे को सिर्फ एक नजर देख ले, उसके बाद वह पैदा होता रहे। चुनांचे इसी पराजित इच्छा के तहत उसने कई बार अपनी बीमार बीवी के पेट को दबाकर और उसके ऊपर कान रख-रखकर अपने बच्चे के सम्बन्ध में कुछ जानना चाहा था। मगर नाकाम रहा था, एक दफा वह इंतजार करते-करते इस कदर तंग आ गया था कि अपनी बीवी पर भी बरस पड़ा था–
“तू हर वक्त मुर्दे की तरह पड़ी रहती है, उठ जरा चल-फिर, तेरे अंग में थोड़ी सी ताकत तो आये, यों तख्ता बने रहने से कुछ न हो सकेगा। तू समझती है, इस तरह लेटे-लेटे बच्चा जन देगी।”
उस्ताद मंगू स्वभाव से बहुत जल्दबाज था। वह हर सबब की अमली तशकील देखने का न सिर्फ ख़्वाहिशमन्द था बल्कि जिज्ञासु था। उसकी बीवी गंगावती, उसकी इस किस्म की बेकरारी को देखकर आमतौर पर यह कहा करती थी–
“अभी कुंआ खोदा नहीं गया और तुम प्यास से बेहाल हो रहे हो।”
कुछ भी हो मगर मंगू उस्ताद नये क़ानून की प्रतीक्षा में उतना व्याकुल नहीं था जितना कि उसे अपने स्वभाव के हिसाब से होना चाहिए था। वह आज नये काननू को देखने के लिए घर से निकला था, ठीक उसी तरह जैसे गाँधी जी या जवाहरलाल के जुलूस का नजारा करने के लिए निकलता था। लीडरों की महानता का अन्दाजा उस्ताद मंगू हमेशा उनके जुलूस के हंगामों और उनके गले में डाले हुए फूलों के हारों से किया करता था। अगर कोई लीडर गेंदें के फूलों से लदा हुआ हो तो उस्ताद मंगू के निकट वह बड़ा आदमी था और अगर किसी लीडर के जुलूस में भीड़ की वजह से दो-तीन फसाद होते-होते रह जायें तो उसकी दृष्टि में वह और भी बड़ा था। अब नये क़ानून को वह अपने जेहन के इसी तराजू पर तौलना चाहता था। अनारकली से निकलकर वह माल रोड की चमकीली सतह पर अपने ताँगे को आहिस्ता-आहिस्ता चला रहा था। मोटरों की दुकान के पास उसे छावनी की एक सवारी मिल गई। किराया तय करने के बाद उसने अपने घोड़े को चाबुक दिखाया और सोचा–
“चलो यह भी अच्छा हुआ–शायद छावनी ही से नये क़ानून का कुछ पता चल जाये।”
छावनी पहुंचकर उस्ताद मंगू ने सवारी को उसकी मंजिल पर उतार दिया और सिगरेट निकाल कर बाएं हाथ की आखिरी दो उंगलियों में दबा कर सुलगायी और पिछली सीट पर बैठ गया–जब उस्ताद मंगू को किसी सवारी की तलाश नहीं होती थी या उसे किसी बीती हुई घटना के बारे में सोचना होता वह आम तौर पर अगली सीट छोड़कर पिछली सीट पर बड़े इत्मीनान से बैठकर अपने घोड़े की बागें अपने दायें हाथ के गिर्द लपेट लिया करता था। ऐसे मौकों पर उसका घोड़ा थोड़ा सा हिनहिनाने के बाद बड़ी धीमी चाल चलना शुरू कर देता था। जैसे उसे कुछ देर के लिए भाग-दौड़ से छुट्टी मिल गई है।
घोड़े की चाल और उस्ताद मंगू के दिमाग में ख़्यालात की आमद बहुत सुस्त थी। जिस तरह घोड़ा आहिस्ता-आहिस्ता कदम उठा रहा था, उसी तरह उस्ताद मंगू के जेहन में नये क़ानून के सम्बन्ध में नये अन्दाजे दाखिल हो रहे थे।
वह नये क़ानून की मौजूदगी में म्युनिस्पल कमेटी से ताँगों के नम्बर मिलने के तरीके पर विचार कर रहा था। नये क़ानून में कैसे मिलेंगे नम्बर—? वह सोच में डूबा हुआ था कि उसे यों महसूस हुआ जैसे उसे किसी सवारी ने आवाज दी है। पीछे पलट कर देखने से उसे सड़क के एक तरफ दूर बिजली के खंभे के पास एक “गोरा” खड़ा नजर आया, जो उसे हाथ से बुला रहा था।
जैसा कि बयान किया जा चुका है, उस्ताद मंगू को गोरों से सख़्त नफरत थी, जब उसने अपने ताजा ग्राहक को गोरे की शक्ल में देखा तो उसके दिल में नफरत के भाव भड़क उठे। पहले उसकी इच्छा हुई कि उसकी तरफ किंचित ध्यान न दे और उसको छोड़कर चला जाये मगर बाद में उसके मन में आया कि इनके पैसे छोड़ना भी तो नादानी है। कलगी पर जो मुफ्त में साढे़ चौदह आने खर्च कर दिये हैं, इनकी ही जेब से वसूल करना चाहिए। चलो चलते हैं—”
खाली सड़क पर बड़ी सफाई से ताँगा मोड़कर उसने घोड़े को चाबुक दिखाया और एक क्षण में वह बिजली के खंभे के पास था। घोड़े की बागें खींच कर उसने ताँगा रोका और पिछली सीट पर बैठे-बैठे गोरे से पूछा।
“साहब बहादुर कहाँ जाना माँगटा है?”
इस सवाल में बेपनाह व्यंग्य था। साहब बहादुर कहते वक़्त उसका ऊपर का मूंछों भरा होंठ नीचे की तरफ खिंच गया और पास ही गाल के इस तरफ जो मद्धम सी लकीर नाक के नुथने से ठोड़ी के ऊपरी भाग तक चली आ रही थी, एक कम्पन्न के साथ गहरी हो गई। जैसे किसी ने नुकीले चाकू से शीशम की साँवली लकड़ी में धारी डाल दी हो। उसका सारा चेहरा हंस रहा था और अपने अन्दर उसने उस “गोरे” को छाती की आग में जलाकर भस्म कर डाला था।
जब गोरे ने जो बिजली के खंभे की ओट में हवा का रुख बचाकर सिगरेट सुलगा रहा था, मुड़कर ताँगे के पायदान की तरफ कदम बढ़ाया तो अचानक उस्ताद मंगू और उसकी निगाहें चार हुईं और ऐसा महसूस हुआ उस क्षण एक साथ आमने-सामने की बन्दूकों से गोलियाँ निकल पड़ी हों और आपस में टकराकर आग का एक गोला बनकर ऊपर को उड़ गयीं।
उस्ताद मंगू जो अपने दायें हाथ से लगाम के बल खोलकर ताँगे पर से नीचे उतरने वाला था, अपने सामने खड़े “गोरे” को यों देख रहा था गोया वह उसके वजूद के कण-कण को अपनी निगाहों से चबा रहा है और गोरा कुछ इस तरह अपनी पतलून पर से कुछ न दिख सकने वाली चीजें झाड़ रहा था, गोया वह उस्ताद मंगू के इस हमले से अपने वजूद के कुछ हिस्से सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहा है।
गोरे ने सिगरेट का धुंआ निगलते हुए कहा–“जाना माँगटा या फिर गड़बड़ करेगा?”
“वही है” उस्ताद मंगू के जेहन में शब्द गूंजे और उसकी चौड़ी छाती के अन्दर नाचने लगे।
“वही है” उसने शब्द अन्दर ही अन्दर दोहराये और साथ ही उसे पूरा यकीन हो गया कि वह गोरा जो उसके सामने खड़ा था वही है, जिससे पिछले बरस उसकी झड़प हुई थी और उस फालतू के झगड़े में, जिसका सबब गोरे के दिमाग में चढ़ी हुई शराब थी, उसे मजबूरन न चाहते हुए भी बहुत सी बातें सहनी पड़ी थी। उस्ताद मंगू ने गोरे का दिमाग दुरुस्त कर दिया होता बल्कि उसके पुर्जे उड़ा दिये होते मगर वह किसी खास कारण से खामोश हो गया था। उसको मालूम था कि इस किस्म के झगड़ों में अदालत का फैसला आम तौर पर कोचवानों के खि़लाफ़ होता है।
उस्ताद मंगू ने पिछले बरस की लड़ाई और पहली अप्रैल के नये क़ानून पर गौर करते हुए गोरे से कहा, “कहाँ जाना माँगटा है?”
गोरे ने जवाब दिया, “हीरामंडी।”
“किराया पाँच रुपये होगा?” उस्ताद मंगू की मूंछें थरथराईं।
यह सुनकर गोरा हैरान हो गया, वह चिल्लाया, “पाँच रुपये, क्या तुम—?”
“हाँ, हाँ, पाँच रुपये” यह कहते हुए उस्ताद मंगू का दाहिना बालों भरा हाथ भींच कर एक वजनी घूंसे की शक्ल इख़्तियार कर गया।
“क्यों—- जाते हो या बेकार बातें बनाओगे?”
उस्ताद मंगू का लहजा सख़्त हो गया,
गोरा पिछले साल की घटना को याद करके उस्ताद मंगू की छाती की चौड़ाई नजरअन्दाज कर चुका था, वह सोच रहा था कि इसकी खोपड़ी लगता है फिर खुजला रही है। इस उत्साह बढ़ाने वाले विचार के तहत वह ताँगे की तरफ अकड़ कर बढ़ा और अपनी छड़ी से उस्ताद मंगू को ताँगे पर से नीचे उतरने का इशारा किया, पालिश की हुई बेंत की छड़ी उस्ताद मंगू की मोटी जाँघ के साथ दो-तीन मर्तबा टकराई। उसने खड़े-खड़े ऊपर से पस्त कद के गोरे को देखा, गोया वह अपनी दृष्टि के भार से ही उसे पीस डालना चाहता है। फिर उसका घूंसा कमान में से तीर की तरह ऊपर को उठा और पलक झपकते ही गोरे की ठुड्ढी के नीचे जम गया। धक्का देकर उसने गोरे को परे हटाया और नीचे उतरकर उसे धड़ाधड़ पीटना शुरू कर दिया।
हैरान-चकित गोरे ने इधर-उधर सिमट कर उस्ताद मंगू के वजनी घूंसों से बचने की कोशिश की और जब देखा कि उस पर दीवानगी की हालत जारी है और उसकी आँखों से चिंगारियाँ बरस रही हैं, तो उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। इस चीख-ओ-पुकार ने उस्ताद मंगू की बाहों का काम भी तेज कर दिया, वह गोरे को जी भर के पीट रहा था और साथ-साथ कहता जाता था–
“पहली अप्रैल को भी वही अकड़ क्यूं–पहली अप्रैल को भी वहीं अकड़ क्यूं– अब हमारा राज है बच्चा।”
लोग जमा हो गये और पुलिस के दो सिपाहियों ने बड़ी मुश्किल से गोरे को उस्ताद मंगू की गिरफ्त से छुड़ाया, उस्ताद मंगू उन दो सिपाहियों के बीच खड़ा था। उसकी चौड़ी छाती फूली हुई साँस की वजह से ऊपर नीचे हो रही थी। मुंह से झाग बह रहा था और अपनी मुस्कुराती हुई आँखों से विस्मय में डूबे वहाँ जमा लोगों की तरफ देख कर वह हाँफती हुई आवाज में कह रहा था–
“वो दिन गुजर गए जब खलील खाँ फाख़्ता उड़ाया करते थे–अब नया क़ानून है मियाँ-नया क़ानून।”
और बेचारा गोरा अपने बिगड़े चेहरे के साथ मूर्खों की तरह कभी उस्ताद मंगू की तरफ देखता था, कभी हुजूम की तरफ, उस्ताद मंगू को पुलिस के सिपाही थाने ले गये, रास्ते में और थाने के अन्दर कमरे में वह, “नया क़ानून”, “नया क़ानून” चिल्लाता रहा, मगर किसी ने एक न सुनी।
“नया क़ानून–नया क़ानून” “कया बक रहे हो–क़ानून वही है पुराना।”
और उसको हवालात में बन्द कर दिया गया।
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