श्रम कानूनों में “सुधार” मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला
सारी केन्द्रीय यूनियनें हमेशा की तरह बस गाल बजा रही हैं, मज़दूरों को संगठित प्रतिरोध के लिए तैयार होना ही होगा!
सम्पादक मण्डल
मोदी-सरकार के “अच्छे दिनों’’ की कलई धीरे-धीरे खुल रही है। लोकसभा चुनावों से पहले जब नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी द्वारा ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं! मोदी जी आने वाले हैं।’’ का प्रचार खूब जोरों-शोरों से किया जा रहा था, तब यह नहीं बताया जा रहा था कि ये ‘‘अच्छे दिन’’ किसके लिए आने वाले हैं। लेकिन तीन महीने के भीतर ही मोदी सरकार के ‘‘अच्छे दिनों’’ का रहस्य सबके सामने आ गया है। यह तो खैर होना ही था। आख़िर भारत के जिन पूँजीपति घरानों, धन्ना-सेठों और मालिकों-ठेकेदारों की लॉबी ने मोदी के प्रचार अभियान पर जो हजारों करोड़ रुपए पानी की तरह बहाये थे, उसे जल्द से जल्द सूद समेत पूँजीपतियों-मालिकों की तिजोरियों में तो वापस पहुँचाना ही था। इसलिए पहले रेल बजट और फिर केन्द्रीय बजट के द्वारा मोदी सरकार ने साबित कर दिया कि उसके ‘‘अच्छे दिनों’’ का मतलब तो सिर्फ़ अमीरजादों के ‘‘अच्छे दिनों’’ से था। देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के लिए तो या बद से बदत्तर होते दिनों की शुरुआत है। इस दिशा में मोदी सरकार ने जो सबसे पहला और सबसे बड़ा कदम उठाया है वह है मजदूर वर्ग के कानूनी हकों पर हमला।
अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं मोदी सरकार को आये हुए लेकिन आते ही उसने घोषणा कर दी कि श्रम-कानूनों में बड़े बदलाव किये जाएँगे। स्पष्ट है देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों और पूँजीपतियों के मुनाफे का घोड़ा बेलगाम दौड़ता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उनके राह के सबसे बड़े रोड़े को यानी कि रहे-सहे श्रम-कानूनों को भी किनारे लगा दिया जाये। इसका मतलब है कि मजदूरों को श्रम-कानूनों के तहत कम-से-कम काग़जी तौर पर जो हक़ हासिल हैं अब वे भी छीन लिये जाएँगे।
वहीं दूसरी सच्चाई यह है कि मौजूदा श्रम-कानून पहले से ही बहुत कमजोर और निष्क्रिय है। 1990 के बाद से उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ ही श्रम-कानूनों को ‘‘लचीला’’ करने का अन्तहीन सिलसिला भी शुरू हो गया। इस ‘‘लचीलेपन’’ का मतलब और कुछ नहीं बल्कि कानूनों को और कमजोर और ढीला-पोला करना था और मजदूरों की मेहनत की अन्धी लूट को कानूनी जामा पहनाना था। मजदूरों के पक्ष में जो बचे-खुचे कानून रह गये हैं वे भी ज्यादातर सरकारी काग़जों की ही शोभा बढ़ाते हैं। देश की 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए इन कानूनों का तो पहले से ही कोई मतलब नहीं रह गया है। इन मजदूरों को न तो कानून के तहत मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी ही मिलती है, न आठ घण्टे के कार्य दिवस, डबल रेट से ओवर टाइम और ईएसआई व पीएफ का अधिकार ही प्राप्त है। दूसरी ओर, पहले से ही लचर श्रम-कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी रखने वाले श्रम-विभाग की हालत खुद खस्ताहाल है। श्रम-कानूनों के खुले उल्लंघन पर भी यह कुछ नहीं कर पाता। ज्यादातर मामलों में तो फैक्टरी इंस्पेक्टरों / लेबर इंस्पेक्टरों को मालिक और ठेकेदार अपनी जेब में लेकर घूमते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद जहाँ कहीं मजदूर संगठित होकर इन कानूनों को लागू करवाने के लिए संघर्ष करते है, वहाँ मालिकों और प्रबन्धन को कुछ दिक्कतें जरूर पेश आती है। इसलिए मोदी सरकार ने आते ही पूँजीपतियों की लूट के रास्ते में कुछ बाधा पैदा करने वाले श्रम-कानूनों को ख़त्म करने का काम मुस्तैदी से शुरू कर दिया है।
श्रम कानूनों में ‘‘सुधार’’ के नाम पर मोदी सरकार का श्रम-कानूनों पर हमला
मोदी सरकार ने अपने पहले 100 दिन के एजेण्डे में श्रम-कानूनों में बदलाव को अपनी पहली प्राथमिकताओं में से एक बताया था। यह कहा गया था कि इस देश के श्रम-कानून पुराने पड़ चुके हैं और उन्हें बदलने का वक्त आ चुका है। इसके बाद एसोचेम, फिक्की से लेकर सीआईआई जैसी पूँजीपतियों की संस्थाओं ने अपने सबसे वफादार सिपाहसालार मोदी की शान में कसीदे पढ़ डाले! मोदी सरकार ने भी बिना देर किये 31 जुलाई को कारखाना अधिनियम 1948, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मजदूरी (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम 1971, प्रशिक्षु अधिनियम (एप्रेंटिसस एक्ट) 1961 से लेकर तमाम अन्य श्रम-कानूनों को कमजोर और ढीला करने की कवायद शुरू कर दी। जहाँ पहले कारखाना अधिनियम 10 या ज्यादा मजदूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 20 या ज्यादा मजदूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल न होता हो) वाली फैक्टरियों पर लागू होता था, अब इसे क्रमशः 20 और 40 मजदूर कर दिया गया है। इस तरह अब मजदूरों की बहुसंख्या को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकते हैं। दूसरे, ऐसे कदम से छोटे कारखाना मालिकों की भी बड़ी संख्या कारखाना अधिनियम के दायरे से बाहर हो जाएगी और मजदूरों को इस कानून के तहत मिलने वाली सुविधाओं को प्रदान करने की जिम्मेदारी से उन्हें कानूनी तौर पर छुट्टी मिल जायेगी। आज देश की बहुसंख्यक मजदूर आबादी छोटे-छोटे कारखानों और वर्कशॉपों में काम करती है। प्रस्तावित संशोधन के अमल में आने के बाद यह आबादी एकदम मालिकों ओर कारखानेदारों के रहमोकरम पर रहेगी क्योंकि इन मजदूरों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के लिए कोई कानून बचेगा ही नहीं! इसके अलावा सरकार एक माह में ओवर टाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करने की तैयारी में है। यह दूसरी बात है कि अभी भी ज्यादातर कारखानों में मजदूरों को हर सप्ताह 24 से लेकर 40 घण्टे तक ओवरटाइम करना पड़ता है जिसका भुगतान डबल रेट से न होकर सिंगल रेट से होता है और कहीं-कहीं पर तो उतना भी नहीं मिलता है। अब समझा जा सकता है जब कानून में ही 100 घण्टे के ओवरटाइम का प्रावधान हो जायेगा तो वास्तविकता में मजदूरों को कितने घण्टे कारखानों के भीतर खटना पड़ेगा! वहीं दूसरी तरफ मजदूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मजदूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मजदूरों के लिए बनाया गया ठेका मजदूरी कानून, 1971 भी अब 20 या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्ट्री पर लागू होने की जगह 50 या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब कि अब कानूनी तौर पर भी ठेका मजदूरों की बर्बर लूट पर कोई रोक नहीं होगी। औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव करके यह प्रावधान किया जा रहा है कि अब 300 से कम मजदूरों वाली फैक्टरी को मालिक कभी-भी बन्द कर सकता है और इस मनमानी बन्दी के लिए मालिक को सरकार या कोर्ट से पूछने की कोई जरूरत नहीं है! साथ ही फैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी तीन साल की सीमा तय कर दी गयी है। प्रस्तावित संशोधनों में कारखानों में महिलाओं की रात की ड्यूटी पर पाबन्दियों को ढीला करना भी शामिल है। एपरेन्टिस एक्ट (प्रशिक्षु कानून) में संशोधन कर सरकार ने बड़ी संख्या में स्थायी मजदूरों की जगह ट्रेनी मजदूरों को भर्ती करने का कदम उठाया है। साथ ही किसी भी विवाद में अब मालिकों के ऊपर किसी भी किस्म की कानूनी कार्रवाई का प्रावधान हटा दिया गया है।
मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव के पीछे वही घिसे-पिटे तर्क दिये जा रहे हैं जो 1990 के दौर में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करते समय दिये गये थे जैसे कि इन ‘‘सुधारों’’ से निवेश बढ़ेगा और रोजगार बढेंगे। लेकिन अगर ऐसे सुधारों से रोजगार बढ़ने होते तो 1991 से लेकर अभी तक मजदूरों की बेरोजगारी और शोषण में इतनी बढ़ोत्तरी नहीं हुई होती। जाहिर है कि मोदी सरकार द्वारा उठाये जा रहे मजदूर-विरोधी कदमों से मजदूरों की लूट और बेकारी में और इजाफ़ा होगा। असल में श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाने का मकसद रोज़गार बढ़ाना नहीं बल्कि पूँजीपतियों को मजदूरों को लूटने के लिए और ज्यादा छूट देना है। तभी तो इस बजट में पूँजीपति घरानों को 5.32 लाख करोड़ रुपये की भारी छूट दी गयी है। और यह यूँ ही नहीं हैं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ, सभी मीडिया घरानों और भाड़े के अर्थशास्त्री और बुद्धिजीवी मोदी सरकार के इन प्रस्तावित ‘‘सुधारों’’ का स्वागत खुली बाहों से कर रहे हैं। और ऐसा वे करें भी क्यों न? आखिर इतने कम समय के भीतर ही ‘‘विकास’’ के रास्ते के सभी स्पीडब्रेकरों को ठिकाने लाने की कवायद ‘‘विकास पुरुष’’ ने शुरू जो कर दी है!
चुनावी पार्टियों और नकली वामपंथियों की ट्रेड यूनियनों की गद्दारी और मौकापरस्ती
ताज्जुब की बात नहीं है कि श्रम कानूनों में प्रस्तावित इन मजदूर-विरोधी संशोधनों पर तमाम चुनावी पार्टियों और नकली वामपंथियों की संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें एकदम चुप हैं। सीटू, एटक, ऐक्टू, इंटक, बीएमएस, एचएमएस आदि जैसी चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें जुबानी जमाखर्च करते हुए महज यह शिकायत कर रही हैं कि ये सभी संशोधन प्रस्तावित करने से पहले सरकार ने उनसे सलाह नहीं ली। यानी उन्हें इन संशाधनों पर कोई एतराज नहीं है बल्कि इस बात पर एतराज है कि ये संशोधन करने से पहले उनकी राय क्यों नहीं ली गयी! वैसे इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। संसदीय वामपंथियों समेत सभी चुनावी पार्टियों की आज मजदूरों को लूटने वाली और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने वाली नीतियों पर पूर्ण सहमति है। इसलिए उनके टुकड़ों पर पलने वाली ट्रेडयूनियनें भला मजदूरों के हितों की हिफ़ाज़त क्यों करने लगीं? पहले भी 93 प्रतिशत ठेका व दिहाड़ी मजदूरों की माँगों को ये यूनियनों उठाना छोड़ चुकी थीं। इसलिए मोदी सरकार द्वारा मजदूरों पर इन ख़तरनाक हमलों पर ये ट्रेड यूनियनें चुप हैं या घड़ियाली आँसू बहा रही हैं।
सच तो यह है कि मजदूर हितों पर यह फासीवादी हमला करने के लिए ही मोदी को पूँजीपतियों ने सत्ता में पहुँचाया था और अब उनके वफ़ादार के तौर पर मोदी सरकार यह काम कर भी रही है। मौजूदा संकट में पूँजीपतियों की मुनाफ़े की दरें ख़तरनाक हदों तक नीचे गिर गयी हैं और इसीलिए पूँजीपति वर्ग अब मजदूरों की लूट में थोड़ी-बहुत कानूनी बाधा पैदा करने वाले कानूनों को ख़त्म करवा रहा है। अगर देश का मजदूर अपने ऊपर किये जा रहे इन हमलों का पुरजोर विरोध नहीं करता तो आने वाले समय में मजदूरों से बंधुआ गुलामी करवाने के लिए मालिक वर्ग पूरी तरह आजाद हो जायेगा। श्रम कानूनों पर इन हमलों के ख़िलाफ़ हम चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों या नकली वामपंथी ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं कर सकते जो मोदी सरकार के तलवे चाटने को तैयार बैठी हैं। तमाम संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें भी मजदूरों के साथ पहले ही गद्दारीं कर चुकी हैं। कई जुझारू मजदूर संघर्षों को हार और निराशा के गढ्ढे में धकेलने का श्रेय इन्हीं मौकापरस्त ट्रेड यूनियनों को जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि हम स्वयं अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों व मजदूर संगठनों के ज़रिये मजदूर हितों पर होने वाले इन फासीवादी हमलों का जवाब दें। इतिहास गवाह है कि फासीवाद को उसके अंतिम मुक़ाम तक पहुँचाने का काम मजदूर वर्ग ने ही किया है। अपने को देश का ‘‘नम्बर वन मजदूर’’ बताने वाला नरेन्द्र मोदी जिस फासीवादी गिरोह की अगुवाई कर रहा है उसे भी उसकी सही जगह तक भारत का मजदूर वर्ग जरूर पहुँचायेगा। और ऐसा पहली बार नहीं होगा। हिटलर और मुसोलिनी जैसे इनके पूर्वजों ने भी मजदूरों का नामलेवा बनकर ही सत्ता हथियाई थी और उनका हश्र क्या हुआ उससे हम सभी वाकिफ हैं। इसलिए आज आने वाले दिनों को कठिनाइयों से घबराने से काम नहीं चलेगा। इन चुनौतियों को समझना होगा और उनसे जूझने के लिए अपनी वर्ग एकजुटता को मजबूत करना होगा। जगह-जगह बिखरे हुए संघर्षों को एक सूत्र में पिरोते हुए एक नया क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन खड़ा करना होगा। मजदूर अधिकारों पर इन फासीवादी हमलों और मजदूर विरोधी कदमों का मुँह-तोड़ जवाब हम तभी दे पायेंगे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन