एक बार फिर देश को दंगों की आग में झोंकने की सुनियोजित साजि़श
तपीश
उत्तर प्रदेश की बारह विधान सभा सीटों पर जैसे-जैसे उपचुनाव का समय नज़दीक आता जा रहा है, राज्य में साम्प्रदायिक दंगों और तनाव की घटनाएँ भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही हैं। याद रहे कि हाल ही में सम्पन्न 16वीं लोकसभा के चुनाव से पहले 2013 में देश भर में 823 दंगे करवाये गये। इनमें से 247 दंगे सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में हुए। हाल ही में मुरादाबाद, सहारनपुर, करैना खरखौदा (मेरठ) लगायत पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अवध (कानपुर, लखनऊ, बाराबंकी), पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बुंदेलखण्ड एक बार फिर इस आग में सुलग रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 16 मई से 25 जुलाई के बीच उत्तर प्रदेश में 26 दंगों सहित साम्प्रदायिक झगड़ों और तनाव की 605 घटनाएँ हो चुकी हैं। इनमें से ज़्यादातर घटनाएँ उन विधानसभा क्षेत्रों में या उसके आसपास हुई हैं जहाँ उपचुनाव होने हैं। इतने बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक माहौल केवल तभी खराब होता है जब जानबूझकर योजना के तहत इस काम को अंजाम दिया जाये। इधर जो भी सूचनाएँ और रिपोर्टें आ रही हैं उनको देखने से पता चलता है कि संघ, भाजपा, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद आदि से जुड़े लोगों ने स्थानीय मनमुटाव और विवादों को भड़काने का काम किया। ज़्यादातर जगह सड़क-खड़ंजा संबन्धी विवादों या मंदिरों-मस्जिदों में बजने वाले लाउडस्पीकरों को दंगा भड़काने के लिए इस्तेमाल किया गया। ये ऐसे विवाद थे जिन्हें स्थानीय लोग आपस में बातचीत करके सुलझा सकते थे। दंगा भड़काने के लिए बड़े पैमाने पर झूठी अफ़वाहों का सहारा लिया गया और इसमें इंटरनेट तथा फे़सबुक का भी जमकर इस्तेमाल हुआ। सहारनपुर, खरखौदा, पीलीभीत और फूलपुर की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। वैसे भी सभी लोग जान चुके हैं कि पिछले साल मुज़फ्फ़रनगर दंगों में भाजपा के नेताओं और उनसे जुड़े लोगों ने एक कई साल पुराना पाकिस्तान का वीडियो दिखाकर जनता को भड़काया था। हैदराबाद में तो बजरंग दल के कार्यकर्ता हिन्दू मंदिरों में गोमांस फेंकते हुए पकड़े जा चुके हैं और कर्नाटक में इसी संगठन के लोगों को पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था। एक अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार के पत्रकार से बातचीत के दौरान यूपी के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि कुछ लोग चाहते हैं कि तनाव और फ़साद को भड़कने दिया जाये।
अगर हम पिछले साल और इस साल हुए दंगों की ठीक से पड़ताल करें तो इसमें एक स्पष्ट योजनाबद्धता दिखायी देती है। ये दंगे जाट-मुस्लिम, दलित-मुस्लिम और सिख-मुस्लिम समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करने की एक सोची-समझी साज़िश का हिस्सा हैं। आर एस एस, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल के कार्यकर्ता बरसों से यह बेहूदा और झूठा प्रचार करते रहे हैं कि एक दिन मुसलमान जनसंख्या में हिन्दुओं से आगे निकल जाएँगे। पिछले कुछ सालों में इन्होंने ‘लव ज़िहाद’ नाम का एक और झूठा और ज़हरीला प्रचार शुरू किया है। इनके कार्यकर्ता आम लोगों को यह कहकर बरगला और भड़का रहे हैं कि मुस्लिम युवक हिन्दू लड़कियों को प्यार के जाल में फँसाकर उनसे शादी कर अपनी आबादी को तेज़ी से बढ़ाने का काम कर रहे हैं। हलाँकि सरकारी आँकड़ों, तथ्यों और तर्कों के सामने यह प्रचार कहीं भी नहीं टिकता, लेकिन अपनी मर्दवादी सोच के चलते समाज में लोग इस दुष्प्रचार पर सहज ही यकीन कर लेते हैं। सच तो यह है कि ज़्यादातर हिन्दू और मुस्लिम अपने घर की औरतों को अपने जीवन के महत्वपूर्ण फैसले लेने तक का अधिकार भी नहीं देते हैं। सभी जानते हैं कि जब युवा लड़के-लड़कियाँ जाति-बिरादरी और धर्म के गलाघोंटू बंधनों को तोड़कर अपने जीवन का रास्ता बनाने लगते हैं तो जाति और धर्म के ठेकेदार उन्हें किस क़दर मसलकर किनारे लगा देते हैं। खरखौदा (मेरठ) की घटना की प्रारंभिक जाँच में ही यह बात साफ़ हो गयी है कि भाजपा के नेताओं ने इस काण्ड को साम्प्रदायिक रंग दिया। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि पीड़ित महिला को न्याय मिले। बिगड़ते हालात का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को भी इस मामले को साम्प्रदायिक रंग न देने की हिदायत देनी पड़ी।
यह एक सच्चाई है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी भाजपा तथा अपने आपको धर्म निरपेक्ष कहने वाले सभी चुनावी दल दंगों से होने वाले चुनावी लाभ की फ़सल काटते हैं। लेकिन यह समझना बड़ी भूल होगी कि फ़ासीवादी ताकतें इन कुकर्मों को सिर्फ़ वोट बटोरने के लिए ही अंजाम दे रही हैं। सच्चाई का दूसरा पहलू भी है और वह ज़्यादा ख़तरनाक है। लोकलुभावन जुमलेबाजी और ‘‘अच्छे दिनों’’ के झूठे सपनों को दिखलाकर मोदी भले ही केन्द्र की सत्ता पर काबिज़ हो गया हो, लेकिन पिछले दो माह में एक बात साफ़ हो गयी है कि उसका असली मक़सद पूँजीवाद की डूबती नैया को पार लगाना है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को जितने नंगई और कुशलता के साथ मोदी ने लागू करना शुरू किया है उसके कारण बड़े-बड़े पूँजीपति घराने, बैंकों के मालिक, हथियारों के सौदागर, देश के तेल और गैस पर क़ब्ज़ा जमाये अम्बानी जैसे धनपशु, फिक्की, एसोचैम जैसी संस्थाएँ तथा मध्य वर्ग के लोग मोदी की शान में क़सीदे पढ़ रहे हैं। इन सभी लोगों को पता है कि कट्टर आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए जनता के हर प्रतिरोध को कुचलने की क्षमता मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में ही है। संघ, भाजपा तथा मोदी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नव-उदारवादी नीतियों ने जिस तरह महँगाई, लगातार कम होती मज़दूरियाँ, बेरोज़गारी और भुखमरी के दानव को खुला छोड़ दिया है उससे त्रस्त जनता एक न एक दिन ज़रूर ही संगठित होकर मैदान में खड़ी हो जायेगी। इसी लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें देशभर में सीमित पैमाने के छोटे-बडे़ दंगे करवा रही हैं। वो चाहते हैं कि मध्यम स्तर का साम्प्रदायिक तनाव समाज में लगातार बना रहे ताकि समय आने पर इसे पूरे ज़ोरों से भड़काया जा सके। इस तरह जनता के गुस्से को झूठा दुश्मन खड़ा करके जनता के ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की फ़ासीवादी सोच काम कर रही है।
मज़दूरों और मेहनतकशों को समझना होगा कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की राजनीति झूठा प्रचार या दुष्प्रचार करके सबसे पहले एक नकली दुश्मन को खड़ा करती है ताकि मज़दूरो-मेहनकशों का शोषण करने वाले असली दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग को जनता के गुस्से से बचाया जा सके। ये लोग न सिर्फ़ मज़दूरों के दुश्मन हैं बल्कि आम तौर पर देखा जाये तो ये पूरे समाज के भी दुश्मन हैं। इनका मुक़ाबला करने के लिए मज़दूर वर्ग को न सिर्फ़ अपने वर्ग हितों की रक्षा के लिए संघबद्ध होकर पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ एक सुनियोजित लंबी लड़ाई लड़ने की शुरुआत करनी होगी, बल्कि साथ ही साथ महँगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की बराबरी तथा जाति और धर्म की कट्टरता के ख़िलाफ़ भी जनता को जागरूक करते हुए अपने जनवादी अधिकारों की लड़ाई को संगठित करना होगा।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन