शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का फासिस्ट एजेण्डा – जनता को गुलामी में जकड़े रखने की साज़िश का हिस्सा है
अरविन्द
मोदी सरकार के आने के बाद देश में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए जिस तरह की बातें हो रही हैं या फिर जो बदलाव हो रहे हैं ऐसे माहौल में आपको यदि कोई गीता का “यथा संहरते चायम” (2/58) का यह हवाला देकर कहे कि भगवान कृष्ण चाय पीते थे तो ताज्जुब बिल्कुल भी मत करना! क्योंकि ऋग्वेद के ‘‘अनश्व रथ’’ (4/36/1) का हवाला देकर कुछ महानुभाव यह सिद्ध करने की कवायद में लगे हैं कि ‘आर्यावर्त’ के स्वर्णिम काल में हमारे देश के वायुमण्डल में हवाई जहाज उड़ा करते थे और पगडण्डियों पर कारें दौड़ा करती थी। स्टेम सेल, शल्य चिकित्सा, परमाणु ऊर्जा, टेलीविजन से लेकर तमाम वैज्ञानिक खोजों के बारे में पता चला है कि (आज जिसके बूते पर यूरोप और अमेरिका इतने ‘उछल’ रहे हैं) वे खोजें तो हमारी महान संस्कृति के कर्णधार हज़ारों साल पहले ही कर चुके हैं बस कमी यह रह गयी कि उस समय पेटेण्ट की कोई प्रणाली न होने के कारण इन वैज्ञानिक खोजों का कोई पेटेण्ट नहीं हो पाया।
शिक्षा और संस्कृति का भगवाकरण हमेशा ही फासिस्टों के एजेण्डा में सबसे ऊपर होता है। स्मृति ईरानी जैसी कम पढ़ी-लिखी, टीवी ऐक्ट्रेस को इसीलिए मानव संसाधन मंत्रालय में बैठाया गया ताकि संघ परिवार बेरोकटोक अपनी मनमानी चला सके।
पिछली 30 जून को जारी सर्कुलर के जरिए गुजरात सरकार ने राज्य के 42,000 सरकारी स्कूलों को निर्देश दिया कि वह पूरक साहित्य के तौर पर दीनानाथ बत्रा की नौ किताबों के सेट को शामिल करें। इन्हें पढ़ना सब बच्चों के लिए अनिवार्य होगा। दीनानाथ बत्रा नाम का यह शख्स राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी संस्था विद्या भारती का मुखिया है। इन किताबों में ऐसी-ऐसी “ज्ञान” की बातें हैं कि इन्हें पढ़ने वाले बच्चे आर.एस.एस. के प्रचारक भले बन जायें, अपनी ज़िन्दगी में वे घोर अज्ञानी और अवैज्ञानिक ही बनेंगे। इनके “ज्ञान” की कुछ बानगियाँ आप भी देखिये:
– भारत के नक्शे में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांगलादेश, श्रीलंका और म्यांमार अर्थात बर्मा भी शामिल है। ये सब “अखंड भारत” का हिस्सा हैं।
– अमेरिका आज स्टेम सेल रिसर्च का श्रेय लेना चाहता है, मगर सच्चाई यह है कि भारत के बालकृष्ण गणपत मातापुरकर ने शरीर के हिस्सों को पुनर्जीवित करने के लिए पेटेण्ट पहले ही हासिल किया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस रिसर्च में नया कुछ नहीं है और डा मातापुरकर महाभारत से प्रेरित हुए थे। कुन्ती के एक बच्चा था जो सूर्य से भी तेज था। जब गान्धारी को यह पता चला तो उसका गर्भपात हुआ और उसकी कोख से मांस का लम्बा टुकड़ा बाहर निकला। व्यास को बुलाया गया जिन्होंने मांस के उस टुकड़े को कुछ दवाइयों के साथ पानी की टंकी में रख दिया। बाद में उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 भागों में बाँट दिया और उन्हें घी से भरी टंकियों में दो साल के लिए रख दिया। दो साल बाद उसमें से 100 कौरव निकले। महाभारत में इस किस्से को पढ़ने के बाद मातापुरकर को अहसास हुआ कि स्टेम सेल की खोज उनकी अपनी नहीं है बल्कि वह महाभारत में भी दिखती है। (‘तेजोमय भारत’, पृष्ठ 92-93)
– आज सब जानते हैं कि टेलीविजन का आविष्कार स्कॉटलैंड के जॉन बेयर्ड ने 1926 में किया। मगर बत्रा जी के मुताबिक भारत के मनीषी योगविद्या के जरिए दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेते थे। टेलीविजन का आविष्कार यहीं से हुआ। महाभारत में, संजय हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा अपनी दिव्य शक्ति का प्रयोग कर महाभारत के युद्ध का लाइव टेलिकास्ट अन्धे धृतराष्ट्र को ऐसे ही थोड़े दे रहा था! (पृष्ठ 64)
– हम जिसे मोटरकार के नाम से जानते हैं उसका अस्तित्व वैदिक काल में बना हुआ था। उसे ‘अनश्व रथ’ कहा जाता था। अनश्व रथ ऐसा रथ होता था जो घोड़ों के बिना चलता था, यही आज की मोटरकार है, ऋग्वेद में इसका उल्लेख है। (पृष्ठ 60)
ऐसे ही अनेकानेक ज्ञान के मोतियों से बत्रा की किताबें भरी हुई हैं। वैसे, इस तरह की बातें कहने वाला वह पहला शख्स नहीं है। संघियों का सारा साहित्य ऐसे दावों से भरा हुआ है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एआर दवे जी ने पिछले दिनों गुजरात में एक कार्यक्रम में फरमाया कि यदि वे देश के तानाशाह होते तो पहली कक्षा से ही पाठ्यक्रम में गीता और महाभारत को लागू करवा देते। और गुरु-शिष्य जैसी परम्पराएँ आज होतीं तो हिंसा और आतंकवाद आदि की दिक्कतों का हमें सामना ही नहीं करना पड़ता। इसीलिए हमें अपनी प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं की तरफ वापस लौट जाना चाहिए। दरअसल दवे जी ने उस बात को शब्द दे दिये जो तमाम फासिस्ट मन ही मन करना चाहते हैं। यानी तानाशाह बनकर इस देश पर अपनी मनमानी थोपना!
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के अपने अभियान के तहत नयी सरकार ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद जैसी सम्मानित संस्था का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया है जिसका इतिहासकार के तौर पर बस यही काम है कि महाभारत और रामायण को “ऐतिहासिक घटनाएँ” कैसे सिद्ध किया जाये।
यहाँ पर दो चीजें हैं, पहली है हमारी भारतीय संस्कृति की महानता का सवाल। क्या वाकई हमारे यहाँ विज्ञान की तमाम खोजें हजारों साल पहले ही हो चुकी हैं? यह स्पष्ट कर दें कि दर्शन, नाट्य शास्त्र, गणित, भाषा विज्ञान, खगोल शास्त्र से लेकर विज्ञान की तमाम शाखाओं में हमारे यहाँ उल्लेखनीय काम हुआ था और भरत, पाणिनि, कणाद, कपिल, आर्यभट्ट, सुश्रुत, चरक आदि पर कोई भी गर्व कर सकता है और करना भी चाहिए किन्तु पूरी दुनिया को मूर्ख साबित करना और ज्ञान-विज्ञान का ठेका खुद ही उठा लेना, इतिहास की महानता को साबित करने के चक्कर में झूठ का तूमार बाँध देना दिमागी कुपोषण को ही दिखाता है।
हालाँकि प्राचीन भारत की महानता का दावा करने वाले ये लोग कभी यह नहीं बताते कि जब हमारे पुरखे इतने महान ज्ञानी-विज्ञानी थे तो फिर उनकी अगली पीढ़ियाँ अचानक से इतनी अज्ञानी और पिछड़ी कैसे हो गयीं? जब हम हज़ारों साल पहले ही कार और पुष्पक विमान पर चलते थे तो फिर क्या हुआ कि उसके बाद सैकड़ों साल तक हमारे पास लकड़ी के चक्कों वाली बैलगाड़ी ही रह गयी? आसमान में तरह-तरह की मिसाइलें (ब्रह्मास्त्र-परमास्त्र आदि) दाग कर युद्ध करने वाले इतने दरिद्र कैसे हो गये कि जो भी बाहर से आया, उन्हें हराकर लूट ले गया? स्टेम सेल पर रिसर्च करने वाले देश में लोग सैकड़ों साल तक मामूली बीमारियों से क्यों मरते रहे?
ज़ाहिर है, इन सब सवालों के जवाब संघ परिवार वालों के पास नहीं हैं। दरअसल, वे जवाब दे ही नहीं सकते। सारे ही फासिस्ट चाकरी तो पूँजीवाद की करते हैं लेकिन अपने एजेण्डा को लागू करने के लिए उन्हें लोगों की सोच को पिछड़ा बनाये रखने की दरकार होती है। इसीलिए वे हमेशा पुरानी दुनिया की बातें करते हैं। मिथकों को इतिहास बनाकर पेश करना उनका ख़ास एजेण्डा होता है ताकि लोग आगे की ओर देखने के बजाय पीछे ही देखते रहें। ताकि आम जनता बेहतर भविष्य के लिए लड़ने के बजाय गुज़रे हुए अतीत की यादों में ही खोयी रहे। बेशक अपने इतिहास में जो भी अच्छी चीजें रही हैं उन पर किसी को भी गर्व होना चाहिये और उनसे हमें प्रेरित होना चाहिए। किन्तु प्राचीन इतिहास को अतिश्योक्ति अलंकार की प्रयोगस्थली बना देना और इतिहास के अँधेरे खण्डहरों में कूपमण्डूकता की टार्च लेकर घूमना कहाँ की समझदारी है?
कुछ सांस्कृतिक उद्धारक हो सकता है यह तर्क दे दें कि हमारे तमाम ग्रंथों को अंग्रेज उठा ले गये जिससे हमारा देश ज्ञान-विज्ञान विहीन हो गया या उससे भी पहले विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया! इन तर्कों पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है। कुछ हो सकता यह भी कहें कि सात्विक आचार-व्यवहार न होने के कारण पुराना ज्ञान-विज्ञान नाकाम साबित हो रहा है उनसे पूछना चाहिए कि विज्ञान अपने नियमों से चलता है सात्विक या तामसिक आचार व्यवहार से नहीं जैसे बन्दूक अपने नियमों से काम करेगी उस पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ेगा कि ट्रिगर पर सात्विक-राजसी या तामसिक किस प्रवृति वाले इंसान की अंगुली है। भारतीय गुरुकुल परम्परा और ऋषि व्यवस्था के ढोल पीटने वाले खुद वल्लक धारण करके कन्दराओं में क्यों नहीं चले जाते ताकि विज्ञान में और भी प्रगति हो? वे वातानुकूलन यंत्र और गाड़ियों का इस्तेमाल क्यों करते हैं? वे अपने अनश्व रथ में ही रहें व महाभारत के संजय द्वारा अविष्कृत टेलीविजन का ही इस्तेमाल करें!
असल में हर समाज की तरह भारतीय समाज में भी अच्छी और बुरी दोनों तरह की चीजें रही हैं- दासप्रथा और सामन्ती समाज की तमाम बुराइयाँ हमारे समाज में भी थीं जिसके प्रमाण खुद रामायण-महाभारत में मिल जायेंगे। किसी लेखक का कर्तव्य यही होना चाहिये कि वह अच्छाइयों और बुराइयों दोनों का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करे और उन्हें समाज के सामने रखे। रही बात गीता ओर महाभारत को पढ़ने की तो सिर्फ ये ही क्यों बल्कि नाट्यशास्त्र, व्याकरण, उपनिषद्, वेद-वेदान्त आदि को भी पढ़ने में कोई हर्ज नहीं है बल्कि अध्ययन को केवल यहीं तक सीमित कर देने में हर्ज है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का दम भरने वाले गीता और महाभारत पर ही ब्रेक क्यों लगा लेते हैं? इन्हें अपने अज्ञान के कूप से बाहर निकलना इतना क्यों अखरता है? पढ़ने के लिए बहुत कुछ और भी है। हमें फाह्यान, मैगस्थ्नीज़, ह्वेन सांग, अल बरूनी, इब्न बतूता, मार्को पोलो आदि की भारत के बारे में रचनाओं को भी पढ़ना चाहिए। अरस्तू, सुकरात, प्लेटो से लेकर रूसो, वोल्तेयर, दिदेरो, मोंतेस्क्यू, दालम्बेर को भी पढ़ना चाहिए_ हमें काण्ट, डार्विन, हेगेल, फ़ायरबाख़, मार्क्स आदि को भी पढ़ना चाहिए और यही नहीं भारत के निर्गुण भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, रैदास को भी पढ़ना चाहिए। भारत में भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता कपिल, कणाद और चार्वाकों के बारे में भी जानना चाहिए। हमें उमर खयाम, इब्न सीना, अल बतानी को भी पढ़ना चाहिए – यानी दुनियाभर में जो भी अच्छा साहित्य रचा गया है उस सब को पढ़ने की हमें भरपूर कोशिश करनी चाहिए। ज्ञान-विज्ञान को न तो भौगोलिक सीमाओं में कैद करना चाहिये तथा न ही तमाम कोशिश करने पर यह कैद होता ही है। और न ही यह किसी कौम की बपौती होना चाहिए, बल्कि दुनिया भर में मानवता के पक्ष में जो कुछ भी लिखा या रचा गया है वह पूरी मानवता की साझी धारोहर है। उसे सहेजने और आगे बढ़ाने का काम मानवता के सभी हितचिन्तकों का होना चाहिए। किन्तु तमाम तरह के फ़ासीवादी और कट्टरता के समर्थक झूठ और तथ्यों को मनमाने ढंग से प्रस्तुत करके अपना उल्लू सीधा करने की फ़िराक में रहते हैं। उनको ऐतिहासिक सच्चाइयों और इतिहास के प्रति एक सही नज़रिये से कोई मतलब नहीं होता। बल्कि मिथकों को पूजनीय बनाना और धार्मिक प्रतीकों का अपनी दक्षिणपंथी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना इनका मुख्य शगल होता है। प्राचीन परम्परा से प्रेरणा लेना ठीक है लेकिन खच्चर की तरह आस-पास की चीजों को न देखना लकीर की फ़कीरी को ही दर्शाता है। गोयबल्स और पी.एन. ओक जैसों के दवे और बत्रा जैसे ये चेले अपनी जगह गुरु-शिष्य परम्परा का भली-भाँति अनुपालन कर रहे हैं।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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