पंजाब सरकार फासीवादी काला क़ानून ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल’ लागू करने की तैयारी में
बर्बर फ़ासीवादी क़ानूनों, जेल, दमन से नहीं दबायी जा सकेगी जनता की आवाज़
लखविन्दर
जनता की हक़, सच, इंसाफ़ की आवाज़ दबाने के लिए पंजाब सरकार ने सन् 2010 में दो काले क़ानून ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2010’ और ‘पंजाब विशेष सुरक्षा ग्रुप बिल-2010’ पारित किये थे। क्रान्तिकारी-जनवादी संगठनों के नेतृत्व में पंजाब की जनता द्वारा लड़े गये जुझारू संघर्ष के दबाव में सन् 2011 में ये बिल वापिस ले लिये गये थे। गुज़री 9 जुलाई 2014 को हुई कैबिनेट मीटिंग में रद्द किये गये पहले क़ानून की तर्ज पर ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2014’ को मंजूरी दी गयी है। सरकार ने कुछ आपत्तिजनक धाराएँ हटाने का दिखावा किया है (जैसे रैली, धरना, प्रदर्शन के लिए लिखित आज्ञा लेने की शर्त हटा दी गयी है) लेकिन काफ़ी कुछ ऐसा जोड़ दिया गया है कि नया क़ानून पहले वाले से भी अधिक ख़तरनाक है। अगर यह क़ानून लागू हो जाता है तो पंजाब के क्रान्तिकारी-जनवादी आन्दोलन को बेहद दमनात्मक हालात का सामना करना पड़ेगा। इस बार सरकार पूरी कठोरता के साथ इस क़ानून को लागू करने की तैयारी में है। इसलिए इसके खि़लाफ़ लड़ाई भी पहले से सख्त होगी।
‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2014’ भारत के सबसे अधिक ख़तरनाक काले क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून के मुताबिक़ नुक़सान करने वाली कार्रवाई को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के ग्रुप, संगठन, या किसी पार्टी, चाहे वह सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक हो, की कार्रवाई जैसे ऐजीटेशन, हड़ताल, धरना, बन्द, प्रदर्शन, मार्च, जूलूस, या रेल अथवा सड़क की आवाजाही रोकना आदि, जिसके साथ सरकारी या निजी जायदाद को नुक़सान, घाटा या तबाही हुई हो, नुक़सान करने वाली कार्रवाई माना जायेगा। किसी भी संगठन, यूनियन या पार्टी के एक या अधिक पदाधिकारी, जो इस नुक़सानदायक कार्रवाई को उकसाने, साज़िश करने, सलाह देने, या गाइड करने में शामिल होंगे, नुक़सानदायक कार्रवाई का आयोजक माना जायेगा। सरकार द्वारा एक अथॉरिटी क़ायम की जायेगी जो अपने तय किये गये तरीके से तय करेगी कि कितना नुक़सान हुआ है। नुक़सान की पूर्ति दोषी समझे गये व्यक्ति या व्यक्तियों की ज़मीन ज़ब्त करके की जायेगी। इस क़ानून के मुताबिक़ सरकार इन आयोजनों की वीडियोग्राफ़ी करवा सकेगी। नुक़सान का कोई और सबूत न भी हो सिर्फ़ वीडियो ही हो, उस हालत में वीडियो को सार्वजनिक या निजी जायदाद को हुए नुक़सान को तय करने में पूर्ण सबूत माना गया है। हेडकांस्टेबल स्तर के पुलिस मुलाजिम को भी गिरफ्तार करने का अधिकार दिया गया है। और इस क़ानून के मुताबिक़ किया गया जुर्म ग़ैरजमानती है। इस क़ानून के मुताबिक़ दोषी पाये गये व्यक्ति को तीन साल तक की सज़ा और एक लाख रुपये तक का जुर्माना होगा। आगजनी या विस्फोट से नुक़सानदायक कार्रवाई में दोषी साबित होने वाले व्यक्ति को कम से कम एक साल से लेकर पाँच साल तक की कैद की सज़ा होगी और तीन लाख रुपये तक का जुर्माना होगा। इस मामले में अदालत किसी विशेष कारण से सज़ा एक साल से कम भी कर सकती है।
पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2014’ की इन व्यवस्थाओं से इस क़ानून के घोर जनविरोधी फासीवादी चरित्र का अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। आगजनी, तोड़फोड़, विस्फोट आदि जैसी कार्रवाइयों के बारे में तो कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसी कार्रवाइयाँ सरकार, प्रशासन, पुलिस, नेता या अन्य कोई जिसके खि़लाफ़ प्रदर्शन किया जा रहा हो, वे ऐसी गड़बड़ियों को ख़ुद अंजाम देते रहे हैं और देंगे। अब इस क़ानून के ज़रिये सरकार ने पहले ही बता दिया है कि हर गड़बड़ का इलज़ाम अयोजकों-प्रदर्शनकारियों पर ही लगाया जायेगा। हड़ताल को इस क़ानून के दायरे में रखा जाना एक बेहद ख़तरनाक बात है। इस क़ानून में घाटे शब्द का भी विशेष तौर पर इस्तेमाल किया गया है। हड़ताल होगी तो नुक़सान तो होगा ही। इस तरह हड़ताल करने वालों को, इसके लिए सलाह देने वालों, प्रेरित करने वालों, दिशा देने वालों को तो पक्के तौर पर दोषी मान लिया गया है। बल्कि कहा जाना चाहिए कि हड़ताल-टूल डाऊन को तो इस क़ानून के तहत पक्के तौर पर जुर्म मान लिया गया है।
क्या मौजूदा समय में यह किसी बहस का मुद्दा रह गया है कि ऐसे क़ानून शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए नहीं, सुप्रशासन या साधारण जनता के जानमाल की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि समाज के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली पूँजीपति वर्ग की सुरक्षा, उसके हितों की सुरक्षा के लिए ही बनाये जाते हैं। क्या पहले ही सरकार, पुलिस-प्रशासन, न्यायपालिका के घोर ग़ैरजनवादी, घोर जनविरोधी चरित्र में कोई कमी थी? पहले ही क़ानूनी और उससे भी अधिक ग़ैरक़ानूनी ढंगों से जनता पर जो ज़ोर-ज़ुल्म का क़हर ढाया जा रहा था, क्या वह अपने आप में कम था? इस क़ानून के ज़रिये जनता को अधिकारों के लिए संघर्ष करने से रोकने के लिए पूँजीवादी राज्यसत्ता के दन्त-नख और तीखे किये जा रहे हैं।
पंजाब सरकार द्वारा पारित इस क़ानून से इस बात का सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि देश के हुक्मरान आने वाले दिनों से कितना भयभीत हैं। व्यापक जनाक्रोश व जनान्दोलनों का भय! जिनके संकेत उन्हें मज़दूर-मेहनतकश जनता रोज़ाना दे रही है। असल में भूमण्डलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने से जनता की हालत दिन-ब-दिन बदतर होती चली गयी है। इन आर्थिक नीतियों के कारण मज़दूरों-मेहनतकशों से सारे अधिकार, सुविधाएँ, सहूलियतें छीनी जाती रही हैं। श्रम, रोज़गार, आवास, अनाज, इलाज, शिक्षा आदि बुनियादी ज़रूरतों से सम्बन्धित अधिकारों से जनता लगातार वंचित होती चली आयी है। इन साम्राज्यवादी-पूँजीवादी बर्बर आर्थिक नीतियों ने जनता को आज इतना कंगाल कर दिया है कि देश के 84 करोड़ लोग आज रोज़ाना औसतन महज़ 20 रुपये प्रति व्यक्ति की आमदनी पर गुज़ारा करने पर मजबूर हैं। पूँजीवादी हुक्मरान जानते हैं कि जनता में रोष इतना अधिक बढ़ चुका है कि यह कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकता है। हुक्मरान सबसे अधिक डरते हैं तो इस गुस्से को संगठित रूप मिलने से। इसे क्रान्तिकारी जनदिशा मिलने से। कोई और समझे न समझे लेकिन पूँजीवादी हुक्मरान अच्छी तरह जानते हैं कि इस तरह के हालात क्रान्तिकारी प्रचार, संगठन, जनान्दोलनों, व परिवर्तन के लिए कितने उर्वरक होते हैं। हुक्मरानों के लिए जनसंघर्षों पर क़ाबू पाना जनतन्त्र के दायरों के भीतर रहते हुए सम्भव नहीं रह गया है। इसीलिए वे जनता को हासिल नाकाफ़ी-से जनवादी संवैधानिक अधिकारों को भी छीनने के लिए घृणित कार्रवाइयों को अंजाम देने पर आ गये हैं। ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई की सतायी मज़दूर-मेहनतकश जनता को लूट-शोषण-अन्याय के खि़लाफ़ एकजुट होकर अपने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने से रोकने के लिए ही ऐसे काले क़ानून बनाये जाते हैं। इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था के संकट इतने बढ़ चुके हैं कि अब इसे जनतन्त्र का मुखौटा अधिक से अधिक उतार फेंकने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
केन्द्र में मोदी सरकार के गठन के बाद जनता पर पूँजीपति वर्ग का हमला और भी तेज़ हो गया है। श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी संशोधन किये जा रहे हैं। मोदी सरकार के आने के बाद महँगाई में अत्यधिक वृद्धि हुई है। करों का बोझ ग़रीब जनता पर और भी अधिक लादा जा रहा है। सब्सिडियों में भारी कटौती हो रही है। इन हालात में ‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2014’ जैसे भयानक क़ानूनों के बिना हुक्मरानों की गाड़ी चल ही नहीं सकती। आने वाले समय में अन्य राज्यों में भी या केन्द्रीय स्तर पर ऐसे क़ानून बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
लेकिन हुक्मरानों को किसी भी सूरत में जनान्दोलनों से पीछा छुड़ाने में ऐसे क़ानूनों से कोई मदद मिल पायेगी। ये क़ानून जनता का रास्ता कुछ कठिन ज़रूर बना सकते हैं, लेकिन रोक नहीं पायेंगे। इतिहास जनता के गौरवशाली संघर्षों व कारनामों से भरा पड़ा है। जनता ही है जिसने बर्बर से बर्बर राजा-महाराजाओं, सामन्तों, उपनिवेशवादियों, साम्राज्यवादियों को मुँह के बल गिराया, उन्हें मिट्टी में मिलाया। बर्बर क़ानूनों से, जेल, गोली, लाठी से, दुनिया की किसी भी ताक़त से जनता की क्रान्तिकारी भावनाओं, उसकी संगठित इच्छाशक्ति को हरगिज़ दबाया नहीं जा सकता है। अफ़सपा जैसे क़ानूनों से डरकर कश्मीर, मनीपुर सहित उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों की जनता सहमकर हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी रही। वहाँ की जनता दशकों से अपने अधिकारों के हनन के खि़लाफ़ लगातार जुझारू संघर्ष लड़ रही है और उसने हुक्मरानों को कभी चैन की नींद नहीं सोने दिया।
पंजाब की मज़दूर-मेहनतकश जनता इस क़ानून से डरकर लड़ाई तो क़तई नहीं छोड़ेगी, बल्कि सरकार को इस क़ानून को रद्द करने के लिए भी मजबूर करेगी, क्योंकि जनवादी अधिकारों का हनन भी क़तई बर्दाशत नहीं किया जा सकता। जनवादी-क्रान्तिकारी संगठनों, मज़दूरों, मेहनतकशों, नौजवानों, छात्रें, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के लिए यह एक बेहद चुनौतीपूर्ण समय है। एक व्यापक जुझारू जनान्दोलन के ज़रिये पंजाब सरकार के फासीवादी क़दमों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए फ़ौरन आगे आना होगा। पूँजीवादी हुक्मरानों का यह खूँखार हमला सिर्फ़ पंजाब की जनता पर नहीं है, बल्कि पूरे देश की जनता पर है। इसलिए पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता को भारतीय हुक्मरानों के इस फासीवादी क़दम के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ने के लिए आगे आना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014
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