ज़ियनवादी नरसंहार, फिलिस्तीनी जनता का महाकाव्यात्मक प्रतिरोध और आज की दुनिया
कात्यायनी
इज़रायल ने गाज़ा पर बमबारी और तेज़ कर दी है। यह लिखने तक कुल 410 जानें जा चुकी हैं और हज़ारों बुरी तरह घायल और अपंग हो गये हैं जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे हैं, लाचार बूढ़े और स्त्रियाँ हैं। जल्दी ही ज़मीनी हमले की भी आशंका है। आधा गाज़ा खण्डहर हो चुका है। जलापूर्ति और बिजली आपूर्ति व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है। भूख और बीमारियों ने भी हमला बोल दिया है। अब इज़रायल ने एक लाख फिलिस्तीनियों को गाज़ा के उस इलाके से हट जाने को कहा है, जहाँ वह सघन बमबारी करने वाला है। गाज़ा की कुल आबादी ही 18 लाख है और पूरे इलाके की चारों ओर से नाकेबन्दी की हुई है। ज़ाहिर है एक लाख लोग कहीं और नहीं जा सकते।
अमेरिकी इशारे पर मिस्र ने युद्धविराम का जो प्रस्ताव रखा था वह पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रस्ताव था, जिसे हमास ने ठुकरा दिया। पश्चिमी मीडिया इस बात का ख़ूब प्रचार करके यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि गाज़ा की तबाही के लिए हमास की हठधर्मिता ज़िम्मेदार है, लेकिन इसी दौरान हमास ने जो युद्धविराम प्रस्ताव रखा है, उसका पूरी तरह से ब्लैकआउट किया जा रहा है।
हमास के युद्धविराम प्रस्ताव के पाँच बिन्दु हैं: (1) गाज़ापट्टी से आवाजाही के सभी रास्ते खोलकर घेरेबन्दी समाप्त की जाये, (2) मिस्र की सीमा पर स्थित रफ़ाह क्रासिंग को स्थायी तौर पर, 24 घण्टे खुला रखने की शर्त पर इस अन्तरराष्ट्रीय गारण्टी के साथ खोल दिया जाये कि उसे कभी बन्द नहीं किया जायेगा, (3) गाज़ा तक समुद्री जहाज़ों के आने-जाने का का एक गलियारा मुहैया कराया जाये, (4) गाज़ापट्टी के निवासियों को यरुशलम स्थित अल अक्सा मस्जिद में नमाज़ की इजाज़त दी जाये, और (5) इज़रायल “शालित” समझौते के तहत फिलिस्तीनी बन्दियों की रिहाई के करार पर अमल करे तथा 2012 में मिस्र की मध्यस्थता में फिलिस्तीनी बन्दियों और इज़रायल जेल सेवा के बीच हुए समझौते को लागू करे।
इससे अधिक न्यायसंगत प्रस्ताव भला और क्या हो सकता है? लेकिन ज़ियनवादी हत्यारे इस प्रस्ताव को कूड़े की टोकरी में फेंककर गाज़ा को पूरी तरह तबाह कर देने की तैयारियों में लगे हैं।
इज़रायली हमले का उद्देश्य अगर फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध संघर्ष को ख़त्म करना है तो इसमें वह कभी कामयाब नहीं होगा। अगर हमास ख़त्म भी हो गया तो उसकी जगह कोई उससे भी ज़्यादा कट्टरपन्थी संगठन ले सकता है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि धार्मिक कट्टरपन्थ के नतीजों को देखने के बाद फिलिस्तीनी जनता के बीच से रैडिकल वामधारा को मज़बूती मिले। लेकिन इतना तय है कि फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध संघर्ष थमेगा नहीं। फिलिस्तीन का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया तो इज़रायल उन्हें नेस्तनाबूद कर देगा।
पश्चिम एशिया के एक छोटे-से इलाके में इज़रायल और फिलिस्तीन दो राष्ट्र हैं। यहूदी मूल के लोग इज़रायल से निकलकर पूरी दुनिया में फैले थे। दूसरे महायुद्ध में फासिस्टों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम के बाद उनकी इस माँग को व्यापक समर्थन मिला कि उन्हें अपनी मूल धरती में अपना देश बसाने दिया जाये। उस वक़्त हुए समझौते के मुताबिक़ वहाँ दो देश बनाये गये – इज़रायल और फिलिस्तीन। इज़रायल में मुख्यतः वहाँ रह रही यहूदी आबादी और बाहर से आये यहूदी शरणार्थी बसने थे, जबकि फिलिस्तीन उस क्षेत्र की अरब जनता का देश था। लेकिन इज़रायल ने फ़ौरन ही फिलिस्तीनियों को खदेड़कर उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया से लाकर अमीर यहूदियों को वहाँ बसाने लगा। पाँच दशकों तक अपने वतन से दरबदर फिलिस्तीनी जनता के लम्बे संघर्ष के बाद उन्हें कटी-पिटी हालत में अपने देश का एक छोटा-सा टुकड़ा मिला। आज का फिलिस्तीन एक-दूसरे से अलग ज़मीन की दो छोटी-छोटी पट्टियों पर बसा है। एक है पश्चिमी तट का इलाक़ा और दूसरा है गाज़ापट्टी जहाँ सिर्फ़ 360 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 15 लाख आबादी रहती है। फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के नेतृत्व के समझौतापरस्त हो जाने के बाद धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन हमास ने फिलिस्तीनी जनता में अपनी जड़ें जमा ली हैं और आज उसे व्यापक आबादी का समर्थन हासिल है – इसलिए नहीं कि फिलिस्तीनी जनता अपनी सेक्युलर सोच छोड़कर कट्टरपन्थी हो गयी है, बल्कि इसलिए क्योंकि इज़रायली ज़ियनवादी फासिस्टों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ जनता कभी समझौता नहीं कर सकती और आज सिर्फ़ हमास ही जुझारू तरीके से साम्राज्यवाद से लड़ रहा है। कट्टरपन्थी और आतंकवादी तरीके दरअसल दशकों से लड़ रही जनता में फैली निराशा और बेबसी की ही अभिव्यक्ति हैं।
ज़ियनवादी हत्यारों की इस वहशी हिमाकत का कारण यह है कि वे जानते हैं कि उनके पीछे दुनिया के सबसे बड़े युद्ध अपराधी अमेरिकी साम्राज्यवाद की ताक़त है, अमेरिकी टट्टू मिस्र का राष्ट्रपति अल सिस्सी भी उसके साथ है, जॉर्डन का शाह भी साथ है और सऊदी अरब, कतर, कुवैत आदि अरब देशों के शेख और शाह स्वयं फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के दुश्मन हैं। अमेरिका मध्यपूर्व को अपने मनोनुकूल एक नयी डिज़ाइन में ढालने का काम कर रहा है। इराक़ और लीबिया पर क़ब्ज़ा करके कठपुतली हुकूमतें बैठाना, सीरिया में गृहयुद्ध भड़काना, आई.एस.आई.एस. की नयी खि़लाफ़त क़ायम करने के मंसूबे को शह देना (हालाँकि यह भी ओसामा की तरह एक भस्मासुर ही साबित होगा अमेरिका के लिए)— यह सब अमेरिका के साज़िशाना प्रोजेक्ट के ही अंग हैं और गाज़ापट्टी पर इज़रायली हमला भी इसी प्रोजेक्ट का अंग है।
फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष के साथ ग़द्दारी सिर्फ़ अरब देशों के शासक वर्ग ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि पश्चिमी तट स्थित पी.एल.ओ. की फिलिस्तीनी सरकार और उसके मुखिया महमूद अब्बास भी कर रहे हैं जो एक ओर तो हमास के साथ एकता सरकार बनाने का क़रार कर रहे थे, दूसरी ओर गाज़ा नरसंहार पर जुबानी जमाख़र्च के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर रहे हैं। “नया इस्लामी ख़लीफ़ा” अल बगदादी फिलिस्तीन की मुस्लिम आबादी के क़त्लेआम पर आँख मूँदकर इराक़ में ख़ुद तबाही का मंजर पेश कर रहा है और इस तरह अमेरिका और इज़रायली ज़ियनवादियों का हित साध रहा है। सभी अरब देशों के शासक फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के दुश्मन हैं, जबकि समूची अरब जनता फिलिस्तीनियों के साथ है। कालान्तर में फिलिस्तीनियों की आज़ादी की लड़ाई और बेशुमार कुर्बानियाँ समूचे अरब क्षेत्र में इकट्ठा बारूद की ढेरी में पलीता लगाने का काम करेगी।
पचास, साठ और सत्तर के दशक में जब दुनियाभर के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की जय-यात्रा जारी थी तो अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर एशिया- अफ्रीका-लातिन अमेरिका के नवस्वाधीन देशों की बुर्जुआ सरकारें फिलिस्तीनी मुक्ति के पक्ष में पुरज़ोर आवाज़ उठाती थीं। नासिर के प्रभाव वाले सर्वअरब राष्ट्रवाद तथा इराक़ एवं सीरिया के उस दौर के बाथवादी आन्दोलन ने फिलिस्तीनी मुक्ति का पक्ष मज़बूत किया था और समूचा गुट निरपेक्ष आन्दोलन तब फिलिस्तीन के साथ था। इज़रायल तब अमेरिका खेमे के लाख प्रयासों के बावजूद अन्तरराष्ट्रीय मंच पर एकदम अलग- थलग था। 1980 के दशक तक तीसरी दुनिया के बुर्जुआ शासक वर्ग का चरित्र न केवल अपने देशों के भीतर, बल्कि विश्व पटल पर भी जनविरोधी हो चुका था। नवउदारवाद के दौर में, विशेषकर 1990 के बाद, समूची विश्व-व्यवस्था में साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में व्यवस्थित होने के बाद एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के इन नये पूँजीवादी देशों की सत्ताओं की विदेश नीति में भी अहम बदलाव आये हैं। अधिकांश देशों के इज़रायल से राजनयिक और व्यावसायिक सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए हैं और फिलिस्तीनी मुक्ति के प्रति उनका जुबानी जमाख़र्च भी कम होता चला गया है। 1988-89 के पहले इन्तिफ़ादा और 2002 के दूसरे इन्तिफ़ादा के अतिरिक्त गत 25 वर्षों के घटनाक्रम ने दिखला दिया है कि फिलिस्तीन की जनता सिर्फ़ और सिर्फ अपने बूते पर ज़ियनवादियों के दाँत खट्टे कर रही है।
आने वाले दिनों में भी बढ़ती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का फिलिस्तीनियों को सीमित लाभ ही मिलेगा, अन्तरराष्ट्रीय राजनय और अन्तरराष्ट्रीय मंचों से उसे कोई विशेष मदद नहीं मिलने वाली। उसे यदि कोई लाभ मिलेगा तो वह दुनियाभर में विकासमान जनसंघर्षों और जनउभारों के नये सिलसिले से ही मिलेगा। जनविद्रोहों का नया सिलसिला पूरब से पश्चिम तक निश्चय ही गति पकड़ेगा। स्वयं विश्व पूँजीवाद ने ही इसकी जमीन तैयार कर दी है। पूँजी अब नवउदारवादी मार्ग से पीछे नहीं हट सकती और दुनिया की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के सामने भी जीवन-मृत्यु के संघर्ष के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं बचा रह जायेगा। विश्व स्तर पर आगे बढ़ती जनक्रान्ति की नयी लहर फिलिस्तीनी जन मुक्ति संघर्ष को नया संवेग देने का काम करेगी। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष समूचे मध्यपूर्व में अरब जनता को आततायी, अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिट्ठू शासकों के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करती क्षितिज पर जलती एक मशाल के समान है। समूचा अरब जगत एक ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा हुआ है। इसी विनाशकारी ख़तरे को देखते हुए अमेरिका और उसके सहयोगी साम्राज्यवादी देश इस पूरे क्षेत्र में विभिन्न कट्टरपन्थी गुटों, शिया, सुन्नी, कुर्द जैसे आपसी विवादों और गृहयुद्धों को हवा दे रहे हैं। लेकिन आम अरब जनता जब उठ खड़ी होगी तो ये सभी विभाजनकारी ताक़तें एकबारगी, एकमुश्त हाशिये पर धकेल दी जायेंगी।
फिलिस्तीन ने एक अलाव जला रखा है, जिसकी आग बुझने वाली नहीं है। समय के साथ, इसे जंगल की आग बनकर पूरे अरब जगत में फैलना ही है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014
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