सुब्रत राय सहारा: परजीवी अनुत्पादक पूँजी की दुनिया का एक धूमकेतु
कात्यायनी
उड़ती ख़बर है कि सुब्रत राय सहाराश्री की पत्नी और बेटे ने मकदूनिया की नागरिकता ले ली है। सुब्रत राय जब जेल से बाहर थे तो अक्सर मकदूनिया जाते रहते थे। अभी तो कबतक तिहाड़ जेल में रहना पड़े पता नहीं। सेबी के ज़रिए जो रकम निवेशकों को लौटानी थी, उसमें आयकर विभाग की देनदारी (10हजार करोड़ रुपये और ब्याज) जोड़कर अब सहारा को 38,000 करोड़ रुपये देने हैं।
यूँ तो पैराबैंकिंग क्षेत्र में पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से बड़े-बड़े घोटाले (ताजा मामला सारदा ग्रुप का है) होते रहे हैं, पर सुब्रत राय अपने आप में एक प्रतिनिधि घटना ही नहीं बल्कि परिघटना हैं। सुब्रत राय भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी देश में ही हो सकते हैं, जहाँ अनुत्पादक परजीवी पूँजी का खेल राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, तरह-तरह के काले धन की संचयी जमातों और काले धन के सिरमौरों की मदद से खुलकर खेला जाता है। लेकिन पूँजी के खेल के नियमों का अतिक्रमण जब सीमा से काफी आगे चला जाता है तो व्यवस्था और बाज़ार के नियामक इसे नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाते हैं और तब सबसे “ऊधमी बच्चे” को या तो कोड़े से सीधा कर दिया जाता है या खेल के मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सुब्रत राय के साथ यही हुआ है।
मगर नवउदारवाद के दौर में एक सुब्रत राय अस्ताचलगामी होंगे तो कई और छोटे-बड़े सुब्रत राय पैदा होते रहेंगे। पूँजीवादी खेल के नियमों को गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में लगे अंबानी, अदानी, टाटा, जेपी ग्रुप, जिन्दल, मित्तल, वेदान्ता आदि सभी तोड़ते रहते हैं, पर ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें हल्की चेतावनी ही मिलती है। कारण है उनकी उस पूँजी की ताकत जो मुख्यतया मैन्युफैक्चरिंग और बैंकिंग तथा मुख्य धारा के वित्त बाज़ार में लगी है। सहारा ग्रुप ने पैरा बैंकिंग से पैसा निकालकर रीयल एस्टेट, हाउसिंग, विमानन, मीडिया, मनोरंजन, होटल आदि अनुत्पादक क्षेत्रों में भारी पूँजी लगाई। लगभग इन सभी क्षेत्रों में उसे घाटा ही हुआ, फिर भी पैराबैंकिंग के ज़रिए छोटे निवेशकों को मूँड़कर वह पूंजी का अम्बार जुटाता रहा और इसी अन्धी हवस ने सेबी को विवश किया कि वह संड़सी से कान पकड़कर सुब्रत राय को अदालती कटघरे में खड़ा कर दे। फासिस्टी ‘सहारा प्रणाम’, दुर्गारूपणी भारत माता की आराधना वाली देशभक्ति, खेल और मनोरंजन की दुनिया की शीर्ष हस्तियों के साथ उत्सव-मस्ती तथा ‘सहारा शहर’, ‘सहारागंज’, ‘सहारा टावर’, जैसे नामकरण आदि के ज़रिए सुब्रत राय “महान साम्राज्य निर्माता” होने के जिस भोड़े ‘कल्ट’ का प्रहसन खेल रहे थे, उस मंच के पाये-पटरे ही चरमराकर टूट गये। सुब्रत राय दरअसल एक धूमकेतु थे। उनके पास पारम्परिक उद्योगपतियों-व्यापारियों के घरानों की परम्परा की निरन्तरता से प्राप्त शक्ति, संस्कृति और सूझ-बूझ नहीं थी। इस कमी को वह टीम-टाम, शोशेबाज़ी, ‘कल्ट’ की चकाचौंध और राजनेताओं तथा अन्य महाधनिक हस्तियों से निकटता बढ़ाकर पूरा करना चाहते थे, जो सम्भव ही नहीं था।
सहारा ग्रुप की पूरी संरचना और कार्यप्रणाली पर पिछले दिनों तमाल बन्द्योपाध्याय की चार सौ पृष्ठों की पुस्तक ‘डेंजर ऑफ शैडो बैंकिंग’ प्रकाशित हुई, जिसे पढ़ना एक दिलचस्प अनुभव है। इस पुस्तक की मुख्य धारा की मीडिया में चर्चा नहीं हुई। इस कथित मुख्य धारा की मीडिया पर जिन इज़ारेदार पूँजीपतियों का कब्ज़ा है, वे इतना तो भाईचारा निभायेंगे ही। सौतेला है, थोड़ा बेऔकात हो गया था, पर है तो अपना भाई ही।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014
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