मोदी सरकार ने दो महीने में अपने इरादे साफ़ कर दिये
आम मेहनतकश जनता को आने वाले दिनों में कठिन संघर्षों में जूझने के लिए तैयार रहना होगा
सम्पादक मण्डल
मोदी सरकार का असली एजेंडा दो महीने में ही खुलकर सामने आ गया है। 2014-15 के रेल बजट, केन्द्रीय बजट और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलावों तथा सरकार के अब तक के फैसलों से यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में नीतियों की दिशा क्या रहने वाली है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हमने टिप्पणी की थी – “लुटेरे थैलीशाहों के लिए ‘अच्छे दिन’, मेहनतकश जनता के लिए ‘कड़े कदम’।” लगता है, इस बात को मोदी सरकार अक्षरशः सही साबित करने में जुट गयी है।
यूपीए सरकार की नीतियों को पानी पी-पीकर कोसने वाली भाजपा सरकार ने पिछली सरकार की आर्थिक नीतियों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया है। बल्कि देशी-विदेशी पूँजी को फायदा पहुँचाने और जनता की पीठ पर बोझ और बढ़ा देने के इन्तज़ाम किये हैं। रेल बजट पेश करने के पहले ही सरकार ने किरायों में 14.5 प्रतिशत तक की भारी बढ़ोत्तरी कर दी थी। ज़ाहिर है, इसके बाद बजट में और किराया बढ़ाने की कोई ज़रूरत अभी नहीं थी मगर रेल बजट से यह साफ हो गया कि सरकार किसके लिए काम कर रही है। देश के इस सबसे बड़े उद्योग के क्रमशः निजीकरण की जो मुहिम पिछले कई साल से चल रही थी उसे इस बजट में और तेज़ करने का रास्ता खोल दिया गया है। रेल के कई बड़े क्षेत्रों में प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप यानी पब्लिक के पैसे से प्राइवेट के मुनाफ़े की व्यवस्था कर दी गयी है। आने वाले दिनों में इसके नतीजे के तौर पर रेलवे में छँटनी और ठेकाकरण की प्रक्रिया और तेज़ होगी। जहाँ पर करोड़ों आम लोग बेहद बुरी और असुरक्षित स्थितियों में यात्र करते हों और ज़्यादातर स्टेशनों तथा रेल मार्गों की हालत ख़स्ता हो, वहाँ बुलेट ट्रेन जैसी परियोजना पर अरबों रुपये बरबाद करने से ज़ाहिर है कि सरकार किन्हें खुश करना चाहती है। सिर्फ़ अहमदाबाद से मुम्बई के बीच एक बुलेट ट्रेन चलाने के लिए इस बजट में 60,000 करोड़ रखे गये हैं जबकि सरकार ज़रूरी सुविधाओं के लिए भी संसाधनों की कमी का रोना रोती है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत पहले बजट में कुल मिलाकर यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा बरकरार रखी गयी है और पूँजीपतियों तथा खाते-पीते मध्यवर्ग पर और अधिक राहतें लुटायी गयी हैं। दूसरी ओर, आँकड़ों की तमाम बाज़ीगरी के बीच कल्याणकारी योजनाओं के लिए ज़ुबानी जमाख़र्च तो काफी किया गया है मगर वास्तव में उनमें या तो कटौती की गयी है या भविष्य में कटौती के लिए रास्ते खोल दिये गये हैं। यह साफ है कि सरकारी नीतियाँ देशी-विदेशी पूँजी के मुनाफ़े को और बढ़ाने वाले विकास पर केन्द्रित हैं और राज्य की भूमिका को क्रमशः और कम किया जाना है।
देशी-विदेशी पूँजी के हितों का बजट में भरपूर ध्यान रखा गया है। छोटे व्यापारियों को बचाने के लिए खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर शोर मचाने वाली भाजपा ने किसी भी देश के लिए संवेदनशील रक्षा क्षेत्र और बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 49 प्रतिशत तक कर दी है और रियल स्टेट में निवेश की शर्तें भी आसान बना दी गयी हैं। संस्थागत विदेशी निवेशकों को टैक्स में कई तरह की छूटें भी दी गयी हैं। देशी पूँजी के फायदे के लिए आधारभूत संरचना में प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप की दिशा में बहुत अधिक ज़ोर दिया गया है। इसका सीधा मतलब होता है जनता से जुटाये गये पैसों से निजी पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाना। बिजली, रियल स्टेट, सड़कें, परिवहन आदि और 100 ‘स्मार्ट शहर’ बनाने जैसी योजनाओं में अधिकांशतः पीपीपी मॉडल लागू करने की बात की गयी है। निजी पूँजी को कई तरीक़े से टैक्स में छूट भी दी गयी है। इसके अलावा बचे-खुचे सार्वजनिक क्षेत्र के भारी हिस्से को औने-पौने दामों पर निजी हाथों में बेचने का इन्तज़ाम कर दिया गया है। सरकारी बैंकों में भी निजीकरण का रास्ता खोल दिया गया है। मोदी सरकार के लिए सबसे बढ़चढ़कर वोट देने वाले मध्य वर्ग को भी बजट में राहत दी गयी है। आयकर में छूट की सीमा बढ़ाने, बचत पर टैक्स में छूट की सीमा में 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी, पीपीएफ में जमा की ऊपरी सीमा 50 प्रतिशत बढ़ाने, करमुक्त हाउसिंग लोन की सीमा बढ़ाने जैसे कई फ़ायदे उसे दिये गये हैं।
लेकिन देश की बहुसंख्यक आम जनता के लिए बचत में कुछ भी नहीं है, उसके लिए बस “राष्ट्र हित” में “त्याग” करने की मजबूरी है। एक ओर आर्थिक संकट के दौर में भी अमीरों की तिजोरियाँ भरी हुई हैं और उनकी ऐयाशियों में कोई कमी नहीं आ रही है, दूसरी ओर आम मेहनतकश लोगों को जीने के लिए ज़रूरी ख़र्चों में भी कटौती करनी पड़ रही है। मँहगाई पहले के सारे रिकार्ड तोड़ रही है और सरकार सिर्फ़ गाल बजाने का काम कर रही है। ऊपर से जनकल्याणकारी योजनाओं पर सब्सिडी को और कम करके पहले से बदहाल जनता की पीठ पर और बोझ डालने की तैयारी कर ली गयी है।
दूसरी ओर, इस बजट में कारपोरेट घरानों को 5.32 लाख करोड़ रुपये की भारी छूट दी गयी है। प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईनाथ ने हिसाब लगाकर बताया है कि 2005-06 से अब तक प्रत्यक्ष कारपोरेट आयकर, कस्टम और उत्पाद शुल्क के मद में पूँजीपतियों को 36.5 लाख करोड़ रुपये की छूट दी जा चुकी है। इसमें से छठवाँ हिस्सा केवल कारपोरेट आयकर के रूप में दिया गया है। साईनाथ के अनुमान के मुताबिक इतनी रक़म से राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना (मनरेगा) को वर्तमान स्तर पर 105 वर्ष तक चलाया जा सकता था। या फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पूरा ख़र्च 31 साल तक उठाया जा सकता था। मगर पूँजीपतियों की इस खुली लूट पर मीडिया में कहीं सवाल नहीं उठाया गया। दूसरी ओर मनरेगा के लिए वास्तविक अनुदान पहले से भी कम कर दिया गया है। पिछले बजट में इस योजना में 34000 करोड़ दिये गये थे लेकिन पिछली सरकार ने ग्रामीण मज़दूरों को दी जाने वाली क़रीब 5000 करोड़ की राशि रोक ली थी। इस हिसाब से, अगर मुद्रास्फीति को न जोड़ें, तब भी पिछली बकाया राशि को जोड़कर इस वर्ष कम से कम 10,000 करोड़ रुपये अधिक दिये जाने चाहिए थे। मगर इस बार भी केवल 34,000 करोड़ ही आवंटित करने का मतलब है योजना बजट में और अधिक कटौती। यानी सरकार मानकर चल रही है कि गाँव के ग़रीबों के लिए रोज़गार के दिन बढ़ने के बजाय और कम ही होंगे। वैसे भी साल में कम से कम 100 दिन के रोज़गार का वादा तो कहीं भी पूरा नहीं हो रहा है। दूसरे, सरकारी रकम का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में नौकरशाहों, ठेकेदारों, सरपंचों और तहसीलदारों की जेब में ही जाता है। जनता को तो सिर्फ़ जूठन ही मिलती है। अब यह बची-खुची रकम भी कम हो जायेगी।
इस बजट में विनिवेश से, यानी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को निजी हाथों में बेचकर 63,425 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। तय है कि इस रकम को वापस जनता की सेवा में लगाने की बजाय बड़े उद्योगों के लिए ज़रूरी आधारभूत ढाँचा बनाने पर ख़र्च किया जायेगा। यानी एक्सप्रेस वे और आठ लेन की सड़कें बनाने, बुलेट ट्रेन जैसी अमीरों की मनपसन्द योजनाएँ लागू करने, पूँजीपतियों को सरकारी बैंकों से बेहद कम ब्याज दरों पर कर्ज़ देने, कारपोरेट घरानों की कर्ज़ माफ़ी के लिए रकम जुटाने और नेताशाही-अफ़सरशाही की ऐयाशियों पर यह पूरी रकम ख़र्च की जायेगी, जो वास्तव में इस देश की ग़रीब जनता का पैसा है।
वैसे, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के पिछले दो दशकों में बजट का कोई ख़ास मतलब नहीं रह गया है। सरकारें बजट के बाहर जाकर पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली ढेर सारी योजनाएँ और नीतियों में बदलाव लागू करती रहती हैं। कई महत्वपूर्ण नीतिगत बदलावों की घोषणा तो सीधे पि़फ़क्की, एसोचैम या सीआईआई जैसी पूँजीपतियों की संस्थाओं के मंचों से कर दी जाती है। फिर भी बजट से सरकार की मंशा और नीयत तो पता चल ही जाती है।
बुर्जुआ मीडिया में इस बजट का स्वागत करते हुए कहा जा रहा है कि इससे विकास की गति तेज़ करने और रोज़गार बढ़ाने में मदद मिलेगी। यह विकास कैसा होगा इसे नरेन्द्र मोदी के गुजरात मॉडल को देखकर समझा जा सकता है। मोदी ने पिछले 13 वर्षों में गुजरात में जो नीतियाँ लागू कीं, वे वास्तव में फासीवादी नीतियों को का एक मॉडल हैं। भूलना नहीं चाहिए कि मोदी ने एक बार कहा था कि पूरे गुजरात को पूँजीपतियों के लिए एक विशेष आर्थिक क्षेत्र बना दिया जायेगा। यह भी कहा गया था कि गुजरात में श्रम विभाग की कोई ज़रूरत ही नहीं है। बेवजह नहीं है कि पूरा पूँजीपति वर्ग मोदी के पीछे खड़ा था। गुजरात में पूँजीपतियों को लगभग मुफ्त ज़मीन, लगभग मुफ्त पानी, कई वर्षों तक टैक्स से छूट, लगभग बिना ब्याज के सैकड़ों करोड़ का कर्ज़, श्रम क़ानूनों को लागू करने से पूरी तरह छूट, और मज़दूरों के आवाज़ उठाने पर उन्हें कुचलने के लिए तैयार बैठी सरकार मिलती है! गुजरात में होने वाले मज़दूर उभारों की ख़बर तक गुजरात के बाहर नहीं जा पाती। मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी से भी कम मज़दूरी दी जाती है और ज़रा भी चूँ-चपड़ करने पर डण्डे और गोलियाँ बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती! मोदी के विकास का यही अर्थ है: पूँजीपतियों को बेरोक-टोक ज़बरदस्त मुनाफ़ा, खाते-पीते मध्यवर्ग को चमचमाते शॉपिंग मॉल, 8-लेन एक्सप्रेस हाईवे, मल्टीप्लेक्स हॉल, आदि। और मज़दूरों के लिए “देश और राष्ट्र के विकास” के लिए 15-15 घण्टे कारख़ानों और वर्कशापों में चुपचाप हाड़ गलाना! जो आवाज़ उठायेगा, वह देश का दुश्मन कहलायेगा! “राष्ट्र” के “विकास” का मोदी के लिए अर्थ है पूँजीपतियों का अकूत मुनाफ़ा, खाते-पीते मध्यवर्ग को ढेर सारी सहूलियतें और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी के लिए नारकीय और पाशविक जीवन!
मोदी सरकार के शुरुआती दो महीनों ने आने वाले दिनों की तस्वीर बिल्कुल साफ कर दी है। आर.एस.एस. और भाजपा के हुड़दंगियों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में अपने उत्पात से यह संकेत भी दे दिया है कि जब जनता अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरना शुरू करेगी तो जाति-धर्म-भाषा या किसी भी भावनात्मक मुद्दे को उभारकर ध्यान भटकाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
ऐसे में, मज़दूर वर्ग के आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए एक मज़बूत क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन की बेहद ज़रूरत है। आज ट्रेड यूनियन आन्दोलन देश की मज़दूर आबादी के करीब 90 फ़ीसदी को समेटता ही नहीं है। संशोधनवादी और संसदीय वामपन्थी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें देश के मज़दूरों के महज़ 7-8 प्रतिशत हिस्से की नुमाइन्दगी करती हैं। संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें इस छोटे-से हिस्से के वेतन-भत्तों की ही लड़ाई लड़ती हैं। देश की 93 प्रतिशत मज़दूर आबादी जो सबसे अधिक शोषण और लूट की शिकार है, उसे ही मोदी सरकार द्वारा बनायी जा रही “नयी अर्थव्यवस्था” में सबसे अधिक हमलों का निशाना बनना है। इस आबादी के बीच निरन्तर राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रचार के द्वारा फासिस्टों के असली मकसद का भण्डाफोड़ करने और मज़दूरों को संगठित करने की आज बहुत अधिक आवश्यकता है। आने वाले दौर में मज़दूर वर्ग पर बढ़ने वाले हमलों के प्रति अभी से उन्हें सचेत करना होगा और क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों में संगठित करना शुरू कर देना होगा। फासीवादियों के सबसे अधिक हमले भी मज़दूर वर्ग को झेलने हैं और फासिस्टों को धूल चटाने का काम भी उसे ही करना है। इसके लिए मज़दूर वर्ग को अभी से कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिए।
[stextbox id=”black” caption=”कौन उठाता है करों का बोझ”]
ज़्यादातर मध्यवर्गीय लोगों के दिमाग में यह भ्रम जड़ जमाये हुए है कि उनके और अमीर लोगों के चुकाये हुए करों की बदौलत ही सरकारों का कामकाज चलता है। प्रायः कल्याणकारी कार्यक्रमों या ग़रीबों को मिलने वाली थोड़ी-बहुत रियायतों पर वे इस अन्दाज़ में गुस्सा होते हैं कि सरकार उनसे कर वसूलकर लुटा रही है।
करों के बोझ के बारे में यह भ्रम सिर्फ़ आम लोगों को ही नहीं है। तमाम विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र विभागों में भी प्रोफ़ेसरान इस किस्म के अमूर्त आर्थिक मॉडल पेश करते हैं जिनमें यह मानकर चला जाता है कि ग़रीब कोई कर नहीं चुकाते और सिर्फ़ सरकारी दान बटोरते रहते हैं जिसके लिए पैसा अमीरों पर टैक्स लगाकर जुटाया जाता है।
सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। हकीक़त यह है कि आम मेहनतकश आबादी से बटोरे गये करों से पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाया जाता है और समाज के मुट्ठीभर उपभोक्ता वर्ग को सहूलियतें मुहैया करायी जाती हैं। टैक्स न केवल बुर्जुआ राज्य की आय का मुख्य स्रोत है बल्कि यह आम जनता के शोषण और पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने का एक ज़रिया भी है। सरकार के ख़ज़ाने में पहुँचने वाले करों का तीन-चौथाई से ज़्यादा हिस्सा आम आबादी पर लगे करों से आता है जबकि एक चौथाई से भी कम निजी सम्पत्ति और उद्योगों पर लगे करों से।
भारत में कर राजस्व का भारी हिस्सा अप्रत्यक्ष करों से आता है। केन्द्र सरकार के कर राजस्व का लगभग 70 प्रतिशत से ज़्यादा अप्रत्यक्ष करों से आता है। राज्य सरकारों के कुल कर संग्रह का 95 प्रतिशत से भी ज़्यादा अप्रत्यक्ष करों से मिलता है। इस तरह केन्द्र और राज्य सरकारों, दोनों के करों को मिलाकर देखें तो कुल करों का लगभग 80 प्रतिशत अप्रत्यक्ष कर (बिक्री कर, उत्पाद कर, सीमा शुल्क आदि) हैं जबकि सिर्फ़ 18 प्रतिशत प्रत्यक्ष कर (आयकर, सम्पत्ति कर आदि)।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि अमीर या उच्च मध्यवर्ग के लोग ही अप्रत्यक्ष करों का भी ज़्यादा बोझ उठाते हैं क्योंकि वे उपभोक्ता सामग्रियों पर ज़्यादा खर्च करते हैं। यह भी सच नहीं है। लगभग 85 प्रतिशत आम आबादी अपनी रोज़मर्रा की चीज़ों की ख़रीद पर जो टैक्स चुकाती है उसकी कुल मात्रा मुट्ठीभर ऊपरी तबके द्वारा चुकाये करों से कहीं ज़्यादा होती है। इससे भी बढ़कर यह कि आम मेहनतकश लोगों की आय का ख़ासा बड़ा हिस्सा करों के रूप में सरकार और पूँजीपतियों-व्यापारियों के बैंक खातों में वापस लौट जाता है।
उस पर तुर्रा यह है कि सरकार पूँजीपतियों को तमाम तरह के विशेषाधिकार और छूटें देती है। उन पूँजीपतियों को जो तमाम तरह की तिकड़मों, फ़र्ज़ी लेखे-जोखे आदि के ज़रिए अपनी कर-योग्य आय का भारी हिस्सा छुपा लेते हैं। इसके लिए वे मोटी तनख़्वाहों पर वकीलों और टैक्स विशेषज्ञों को रखते हैं। उसके बाद जितना टैक्स उन पर बनता है, उसका भुगतान भी वे प्रायः कई-कई साल तक लटकाये रखते हैं और अकसर उन्हें पूरा या अंशतः माफ़ कराने में भी कामयाब हो जाते हैं।
आम लोगों को शिक्षा, चिकित्सा, आदि के लिए दी जाने वाली सब्सिडियों को लेकर मचाये जाने वाले तमाम शोर-शराबे के बावजूद वास्तविकता यह है कि आज भी भारी पैमाने पर सब्सिडी उद्योगों को दी जाती है। इसके अलावा आम लोगों से उगाहे गये करों से पूँजीपतियों के लाभार्थ अनुसन्धान कार्य होते हैं, उनके प्रतिनिधिमण्डलों के विदेशी दौरे कराये जाते हैं, मुख्यतः उनकी सुविधा के लिए सड़कें और नयी रेलें बिछायी जाती हैं, रेलों में माल ढुलाई पर भारी छूट दी जाती है, आदि। मन्दी की मार से पूँजीपतियों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने उन्हें हज़ारों करोड़ रुपये उठाकर दे दिये। उन्हें जो कर चुकाने पड़ते हैं उसकी वसूली भी वे चीज़ों के दाम बढ़कर आम जनता से कर लेते हैं।
पिछले दो दशकों में उदारीकरण की नीतियों के तहत एक ओर जनता पर करों का बोझ तमाम तिकड़मों से बढ़ाया जाता रहा है, दूसरी ओर मीडिया में आक्रामक और झूठ से भरे प्रचार से ऐसा माहौल बनाया गया है मानो देश की आर्थिक दुरवस्था का कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि आदि में दी जाने वाली सब्सिडी ही हो। लेकिन इसकी कीमत पर हर बजट में देशी-विदेशी पूँजीपतियों को तरह-तरह की रियायतें और छूटें परोसी जा रही हैं। सरकारी विशेषज्ञ और बुर्जुआ कलमघसीट दलील दिये जा रहे हैं कि सरकार का काम सरकार चलाना है, स्कूल, रेल, बस और अस्पताल चलाना नहीं, इसलिए इन सबको निजी पूँजीपतियों के हाथों में सौंप देना चाहिए। दूसरी ओर सरकार दोनों हाथों से आम लोगों से टैक्स वसूलने में लगी हुई है।
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मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014
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