दुनियाभर में अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार हैं प्रवासी कामगार

मानव

Migrant laborएक अच्छे जीवन की चाहत में मानवीय प्रवास, यानी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना, सदियों से जारी है। आज के पूँजीवादी युग में यह लगातार बढ़ता जा रहा है। असमान आर्थिक विकास पूँजीवादी ढाँचे का अन्तर्निहित नियम है। पूँजीवाद में सबकुछ मुनाफ़े को ध्यान में रखकर होता है, इसलिए सभी क्षेत्रों का समानतापूर्ण विकास करने वाली समग्र योजनाएँ न बन सकती हैं और न लागू हो सकती हैं। पूँजी हमेशा वहाँ भागती है जहाँ सबसे जल्दी और आसानी से मुनाफ़ा पैदा किया जा सकता है। इसी कारण कुछ क्षेत्रों में तेज़ आर्थिक विकास होता है, जबकि दूसरे क्षेत्र अविकसित हालत में पड़े रहते हैं। ये अविकसित क्षेत्र विकसित क्षेत्रों के लिए मज़दूरों की ‘सप्लाई’ करने वाले इलाक़ों में बदल जाते हैं।

असमान आर्थिक विकास की बदौलत देशों के अन्दर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र और एक देश से दूसरे देश की तरफ़ (आमतौर पर अविकसित से विकसित की तरफ़) मज़दूरों का प्रवास जारी रहता है। स्थानीय मज़दूरों की संघर्ष की ताक़त अधिक होने के कारण विश्वभर के लुटेरे पूँजीपति स्थानीय की बजाय प्रवासी मज़दूरों को काम पर रखना पसन्द करते हैं। एक तो इन प्रवासी मज़दूरों से कम तनख़्वाह पर काम लिया जाता है, दूसरा स्थानीय और प्रवासी के झगड़े खड़े करके मज़दूरों की एकता की राह में अड़चनें पैदा की जाती हैं।

इस तरह पूँजीपति वर्ग के लिए प्रवासी मज़दूर ज़्यादा अनुकूल होते हैं। आगे हम अलग-अलग देशों में प्रवासी मज़दूरों की स्थितियों पर नज़र डालेंगे:

सऊदी अरब

यहाँ की समस्त श्रम शक्ति का 60-67 फ़ीसदी हिस्सा प्रवासियों का है और निजी क्षेत्र में तो यह आँकड़ा 90-95 प्रतिशत है। सऊदी अरब में, बड़ी कम्पनियों की तरफ़ से जारी किये जाने वाले वीज़ा पर एक करोड़ से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर काम करते हैं। इसके अलावा छोटी-छोटी कम्पनियों और अलग से वीज़ा लेने वाले और भी हैं। इन सभी मज़दूरों में से सबसे ज़्यादा लुटने वाला हिस्सा घरेलू मज़दूरों का है। घरेलू मज़दूर के तौर पर काम करने वाली ज़्यादातर औरतें इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स, श्रीलंका और बांगलादेश की हैं। ये औरतें अपने मालिकों के घरों में सालो-साल क़ैद रहती हैं क्योंकि सऊदी क़ानून के मुताबिक़, औरत के बाहर जाने के लिए साथ में एक मर्द का होना ज़रूरी है। इनका शारीरिक शोषण भी किया जाता है, लेकिन शरीयत के क़ानून के मुताबिक़ इसको साबित करने के लिए 4 औरतों या 2 पुरुषों की गवाही ज़रूरी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मुजरिम खुलेआम घूमते हैं।

M_Id_388114_Indian_Workersदूसरी ओर हैं अमेरिका की शह पाये हुए शेख, जिनकी दौलत का कोई हिसाब नहीं। एक अनुमान के अनुसार देश की समस्त तेल आमदनी पर शाही घराने से सम्बन्धित सिर्फ़ 15,000 लोगों का क़ब्ज़ा है। आर्थिक संकट, अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई, बेरोज़गारी और पूरे अरब क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों के दौरान उठे जनान्दोलनों से सऊदी शासक वर्ग को और उसके साम्राज्यवादी आका डरे हैं, जिस कारण न चाहते हुए भी उन्हें कुछ सुधार करने पड़े हैं। अरब उभार के तुरन्त बाद शासक वर्ग ने 76 बिलियन डॉलर के सुधार पैकेज का ऐलान किया, जिसमें स्थानीय जनता को काम देना और प्रवासी मज़दूरों पर निर्भरता कम करना शामिल है। परमिट फ़ीस को बढ़ाया गया, लेकिन सभी कम्पनियाँ इस बढ़ी हुई फ़ीस को देने से मना कर रही हैं और मज़दूर इस हालत में नहीं हैं कि वह दे सकें। इससे प्रवासी मज़दूरों से रोज़गार छीने जाने का ख़तरा है। खुले वीज़ों पर रोक के कारण अनेकों मज़दूरों का रोज़गार छूटेगा। पिछले दिनों हज़ारों भारतीय मज़दूरों के सऊदी अरब से निकाले जाने के हालात बन गये थे और बहुतों को वापस भी आना पड़ा। नयी नीतियों से प्रवासी कामगारों की स्थिति और भी बदतर बनेगी। हालाँकि ये क़ानून कभी पूरी तरह लागू नहीं किये जा सकते, क्योंकि सभी कम्पनियों को अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए सस्ती श्रम शक्ति की ज़रूरत है। इसीलिए ये कम्पनियाँ 50 प्रतिशत स्थानीय लोगों को काम देने के नियम का विरोध भी कर चुकी हैं, क्योंकि स्थानीय लोगों को न्यूनतम वेतन और अन्य भत्ते तो देने ही पड़ते हैं। इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि स्थानीय मज़दूरों के साथ मिलने से मज़दूर वर्ग की आपसी एकता और मज़बूत होगी। अगर प्रवासी मज़दूरों को बाहर कर दिया गया, तो वहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था ही बैठ जायेगी, जिसको दूर करने के लिए वीज़ों का व्यापार फिर चालू हो जायेगा। यह एक ऐसा चक्कर है जो शासक वर्ग के लिए और दिक्कतें ही पैदा करेगा।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान सऊदी अरब में भी स्थानीय आबादी और प्रवासी मज़दूरों के व्यापक विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं जिनको सत्ता द्वारा बुरी तरह से दबाया गया है। लेकिन पश्चिमी मीडिया इन्हें कभी नहीं दिखाता।

कतर

फुटबाल के 2022 विश्व कप की मेजबानी मिलने के बाद खाड़ी क्षेत्र का एक और देश कतर सुर्खियों में है। कतर की तकरीबन 20 लाख आबादी का 90 प्रतिशत भाग प्रवासी मज़दूरों का है, जिनमें से ज़्यादा (तकरीबन 40 प्रतिशत) नेपाल से हैं। अनुमान है कि विश्व कप की तैयारी के लिए कतर तकरीबन 100 अरब डॉलर ख़र्च करेगा। लेकिन पानी की तरह पैसा बहाने वालों की मुट्ठियाँ मज़दूरों के नाम पर बन्द हो जाती हैं। ‘गार्जियन’ अख़बार के मुताबिक़ पिछले वर्ष प्रतिदिन औसतन एक नेपाली मज़दूर की मौत हुई है, जिन में से ज़्यादा युवक मज़दूर अचानक पड़ने वाले दिल के दौरे से मरे हैं। छानबीन के दौरान कुछ और बातें भी सामने आयी हैं – विश्व कप के लिए आधारभूत ढाँचे के निर्माण के काम में बँधुआ मज़दूरी का इस्तेमाल। कई नेपाली मज़दूरों का आरोप है कि उनकी तनख़्वाह महीनों तक रोककर रखी जाती है। आमतौर पर मालिक मज़दूरों के पासपोर्ट ज़ब्त कर लेते हैं और पहचान-पत्र जारी नहीं करते, जिससे उनका दर्जा ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों जैसा बन जाता है। एक-एक कमरे में 12-12 व्यक्ति सोते हैं। एक मज़दूर रामकुमार माहर के अनुसार – “हम 24 घण्टे ख़ाली पेट काम करते थे। 12 घण्टे काम और फिर बिना भोजन के सारी रात। जब मैंने शिकायत की तो प्रबन्धक ने मेरे ऊपर हमला किया और मुझे मज़दूर बस्ती से निकाल दिया और मेरी तनख़्वाह मार ली। मुझे रोटी के लिए दूसरे कामगारों के आगे हाथ फैलाने पड़े।””

दरअसल गैस से होती कमाई के चलते कतरवासियों का एक हिस्सा ठाठ से रह रहा है और इस आराम की ज़िन्दगी को सलामत रखने के लिए वे प्रवासी मज़दूरों पर निर्भर हैं। उनके इस ठाठ-बाट की हिफ़ाज़त के लिए अल-उबेद की हवाई छावनी (क्षेत्र में सबसे बड़ी) में 10,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। लेकिन जिस तरह हाल ही में प्रवासियों की इस लूट के ख़िलाफ़ जगह-जगह प्रदर्शन हुए हैं, अरब उभार के बाद लोगों की चेतना विकसित हुई है, उससे यह उम्मीद है कि यह चिंगारी कतर तक भी पहुँचेगी।

संयुक्त अरब अमीरात

1950 के दशक में हुई तेल की खोज से पहले तक संयुक्त अरब अमीरात ब्रिटेन के नियन्त्रण में था और इसकी आबादी सिर्फ़ एक लाख थी। इसकी अर्थव्यवस्था खजूर और समुद्री कमाई पर चलती थी। तेल की खोज के बाद विदेशी कम्पनियाँ यहाँ पहुँच गयीं और तेल से होने वाली कमाई का इस्तेमाल कर एक आधुनिक राज्य बनाने के लिए भारत और पाकिस्तान से बड़ी संख्या में सस्ती श्रमशक्ति को लाया गया, जिनकी आबादी जल्द ही स्थानीय लोगों से अधिक हो गयी। 2010 के आँकड़ों के अनुसार संयुक्त अरब अमीरात की आबादी का 70 प्रतिशत से ज़्यादा प्रवासी मज़दूरों का था (ज़्यादातर भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, श्रीलंका, फिलीपिन्स के) और निजी क्षेत्र में श्रम शक्ति का 90 प्रतिशत हिस्सा प्रवासी मज़दूर थे। ये मुख्य तौर पर निर्माण उद्योग, सेवा क्षेत्र और घरेलू मज़दूर के तौर पर काम कर रहे थे। ये मज़दूर बहुत ही कम तनख़्वाह पर काम करने के लिए मजबूर हैं (तकरीबन 400 डॉलर प्रतिमाह), न सिर्फ़ काम की स्थितियाँ ख़तरनाक हैं, बल्कि इनके रहने की बस्तियाँ भी नारकीय हैं। दर्जनों लोगों के लिए एक-एक शौचालय, पानी की कमी, छोटे-छोटे कमरों में कई-कई मज़दूर सोते हैं। इन बस्तियों का कोई जायज़ा लेना चाहे तो नहीं ले सकता, क्योंकि बाहर वालों के आने पर पाबन्दी है। मज़दूरों को भारी गर्मी में काम करना पड़ता है। इन भयानक स्थितियों में काम करने से हर वर्ष सैकड़ों मज़दूर दिल का दौरा पड़ने से मर जाते हैं। ज़्यादातर मज़दूर क़र्ज़ में दबे हैं, क्योंकि यहाँ आने के लिए उनसे एजेण्ट भारी क़ीमत वसूलते हैं। वीज़ा की फ़ीस, बीमा फ़ीस और हवाई टिकट आदि जो कम्पनी की ज़िम्मेदारी होती है, वह भी उन्हें भरना पड़ता है। असल तनख़्वाह इकरार की गयी तनख़्वाह से कहीं कम होती है, इसलिए मज़दूरों को कई वर्ष यह क़र्ज़ उतारने में ही लग जाते हैं। मज़दूर अपनी मर्जी से कोई दूसरा रोज़गार नहीं चुन सकते, जब तक पिछला मालिक इजाज़त नहीं देता या फिर वह देश छोड़कर दोबारा नये वीज़ा पर नहीं आते। उनके सभी ज़रूरी काग़ज़ात पहले मालिक के क़ब्ज़े में रहते हैं, इसलिए मालिक के बिना मज़दूर ग़ैर-क़ानूनी बन जाता है। जबकि मालिक इकरारनामे को अपनी इच्छा मुताबिक़ बदल सकते हैं। न्यूनतम वेतन तय नहीं होता, यूनियन बनाने पर प्रतिबन्ध है और हड़ताली मज़दूरों को वापस भेज देने का ख़तरा रहता है।

इन स्थितियों के ख़िलाफ़ मज़दूर सार्वजनिक प्रदर्शन और हड़तालें करते रहे हैं। अरब उभार की चिंगारी पहुँचने के बाद ये लहरें और तीखी हुई हैं लेकिन पूँजीवादी मीडिया की तरफ़ से इन घटनाओं को बड़ी होशियारी से लोगों से दूर रखा गया है।

ओमान

ओमान में काम कर रहे दस लाख प्रवासी मज़दूरों में से आधे भारतीय हैं। ज़्यादातर का सम्बन्ध केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक या महाराष्ट्र और पंजाब से है। ज़्यादातर लोग निर्माण उद्योग में लगे हुए हैं। दूसरे खाड़ी मुल्कों में प्रवासी मज़दूरों जैसी ही इनकी भी हालत है। बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के काम के लम्बे घण्टे और कम वेतन। केरल के मज़दूर मनी ने बताया “मैं रोज़ाना 8-10 घण्टे काम करता हूँ। सफ़ाई के अलावा अपनी कम्पनी के और भी छोटे-बड़े काम करता हूँ। मैं महीने के 70 रियाल (182 डॉलर) कमा लेता हूँ। मैं अपनेआप को तब थोड़ा ख़ुशनसीब मानता हूँ जब उन लोगों को देखता हूँ जिनको 45-50 डिग्री तापमान में फ़ैक्टरियों में इतने ही घण्टे काम करना पड़ता है, वह भी सिर्फ़ 45-65 रियाल (116-170 डॉलर) के लिए।””

रूस

1991 में सोवियत संघ के टूटने के कारण पैदा हुई रिक्तता का लाभ स्थानीय राष्ट्रवादी, फासीवादी पार्टियों ने उठाया। अलग-अलग पूँजीवादी पार्टियाँ भी इनके ही पक्ष में झुकीं, और मौजूदा पुतिन सरकार का भी उन्हें समर्थन मिला। दिसम्बर 2012 में मास्को से प्रकाशित पत्रिका ‘बोलशोई गोरोद’ ने एक फासीवादी फ़ौजी गुट ‘स्वेत्लाया रूस’ के हमले के बारे में ख़बर छपी थी। यह गुट, पुलिस और संघीय प्रवासी सेवा की तरफ़ से प्रवासियों को पकड़ता है। ‘स्वेत्लाया रूस’ का नेता इगोर मान्गुशेव, नार्वे में 75 युवाओं का क़त्लेआम करने वाले नवनाज़ीवादी आन्दर्स ब्रेविक का भक्त है।

एक अनुमान के मुताबिक़ रूस में तकरीबन डेढ़ करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं, जो कि अमेरिका के बाद सबसे अधिक हैं। रूस की अर्थव्यवस्था में ख़ासकर सन् 2000 के बाद की तेल-आधारित तेज़ी में इनका बड़ा योगदान है। इसलिए 2000 के बाद प्रवासियों की, ख़ासकर काकेशिया की तरफ़ के प्रवासियों की रूस में आमद में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। इनको बिना किसी बीमा या सुरक्षा के काम करना पड़ता है और हमेशा मालिक या पुलिस की मनमानी के चलते निर्वासन की आशंका में जीना पड़ता है। रहने की इमारतें गन्दी रहती हैं और सुरक्षा प्रबन्ध न होने के कारण अकसर हादसे होते रहते हैं। पिछले वर्ष अप्रैल में ताज़िकिस्तान के 17 प्रवासी मज़दूर इमारत में आग लगने के कारण भीतर ही झुलस गये थे। जिस तरह हमारे यहाँ मालिक रात को बाहर से ताला लगाकर मज़दूरों को काम करने के लिए छोड़ जाता है, वैसे ही उनका मालिक इमारत को बाहर से बन्द करके चला गया था। पिछले वर्ष सितम्बर में, येगोरेव्सकी क़स्बे में इमारत में आग लगने से 14 मज़दूर मारे गये थे। पुतिन की सरकार ने कई प्रवासी.विरोधी क़ानून भी पास किये हैं। कुछ दिन पहले ही मास्को में एक रूसी युवक के क़त्ल के बाद अन्धराष्ट्रवादियों ने काकेशिया से आये मज़दूरों पर गुस्सा निकाला और पूरे शहर में उत्पात मचाया। इस दौरान “रूस रूसियों के लिए”” के नारे भी लगाये गये। 2010 में भी इसी तरह के दंगे हुए थे।

यूनान

आर्थिक संकट के बाद मज़दूरों पर जारी धक्केशाही का क्रूर प्रदर्शन प्रवासी मज़दूरों पर होते हमलों के रूप में हुआ है। इस समय यूनान में बेरोज़गारी 25 प्रतिशत के पार है और युवकों में यह दर 50 प्रतिशत से ऊपर है। किसी क्रान्तिकारी पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी के चलते, बेरोज़गारी और बदहाली से तबाह आबादी के गुस्से को ग़लत दिशा में मोड़ने में गोल्डन डॉन जैसी फासीवादी पार्टियाँ कुछ हद तक कामयाब हुई हैं। सिर्फ़ गोल्डन डॉन ही प्रवासी मज़दूरों पर हमले नहीं करती है, बल्कि सरकार और मालिकों की तरफ़ से सरेआम प्रवासी मज़दूरों का दमन किया जाता है। अप्रैल में, दक्षिण यूनान में अपने वेतन के लिए जमा हुए बांगलादेशी मज़दूरों पर फ़ोरमैन ने गोली चला दी, जिसमें 30 से ज़्यादा मज़दूर ज़ख़्मी हुए। पिछले वर्ष अगस्त में एथेन्स में पुलिस ने “ऑपरेशन जिनिउस जियस” शुरू किया, जिसके तहत प्रवासियों की बड़े पैमाने पर धरपकड़ की गयी। 4200 से ज़्यादा मज़दूरों को दस्तावेज़ न होने के कारण नज़रबन्द किया जा चुका है और जल्द ही निर्वासित किया जा सकता है।

जर्मनी

यूरोप में फैले आर्थिक संकट का यूनान के बाद अगर सबसे ज़्यादा असर किसी देश में हुआ है तो वह हैं स्पेन और इटली। इन देशों की अर्थव्यवस्था चरमराने से इन देशों में  प्रवासी मज़दूरों की आमद भी कम हो गयी है। रोमानिया, बुल्गारिया और अन्य दक्षिण-पूर्वी यूरोपीय देशों के मज़दूरों की ‘मनपसन्द’ जगह अब जर्मनी बन गयी है। 2014 में यूरोपीय यूनियन की श्रम-मण्डी पूरी तरह खुल जाने से रोमानिया और बुल्गारिया के मज़दूरों की जर्मनी में संख्या 1,00,000-1,80,000 पहुँच जाने की सम्भावना है। इसके अलावा वहाँ तुर्की और एशियाई देशों के कामगार भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं।

क्रूर लूट जर्मनी में इनका स्वागत करने के लिए तैयार है। जुब्लिन नाम की कम्पनी, जिसके पास यूरोपीय केन्द्रीय बैंक की नयी इमारत बनाने का ठेका है, प्रवासी मज़दूरों से काम लेती है। यहाँ काम करने वाले मज़दूरों के रहने के कमरे जेल जैसे लगते हैं। उनके चारों ओर कँटीले तारों की बाड़ खड़ी करके इससे आम लोगों से काट दिया गया है। चाहे फ्रैंकफ़र्ट के यूरोपा मकानों का निर्माण हो या फिर सारलैण्ड के बोस्तालसी कैम्प का निर्माण, प्रवासी मज़दूर हर जगह भयंकर, असुरक्षित स्थितियों में काम करते हैं।

जर्मनी की पिछली सरकार ने उद्योग में बड़े पैमाने पर ठेकाप्रथा लागू की और समस्त उत्पादन को उप-ठेकेदारों को आउटसोर्स करने का इन्तज़ाम किया। यह उप-ठेकेदार मज़दूरों से कई इकरारनामे करते हैं, ताकि सम्बन्धित श्रम नियमों को बाईपास किया जा सके। ऑटो और बरामदी उद्योग के लिए कम वेतन पर अस्थायी मज़दूर यही उप-ठेकेदार मुहैया कराते हैं। ज़्यादातर सुधारवादी ट्रेड-यूनियनें प्रवासी मज़दूरों की माँगों नहीं उठातीं। शासक वर्ग न सिर्फ़ प्रवासी मज़दूरों की कमज़ोर हालत का लाभ उठाता है, बल्कि स्थानीय मज़दूरों को उनके ख़िलाफ़ खड़ा करके मज़दूर वर्ग की एकता को भी तोड़ता है। ये तरकीबें सभी देशों में पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से इस्तेमाल की जाती हैं।

मलेशिया

मलेशिया ने सरकारी तौर पर प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने दरवाज़े 1990 के दशक में खोले जब निर्माण क्षेत्र और फ़ार्मों में श्रम की कमी पैदा हुई। सन् 2000, इसमें उद्योग और सेवा क्षेत्र को भी शामिल कर लिया गया। पड़ोसी देशों – इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स और थाईलैण्ड से मज़दूर तो इस सरकारी नीति से पहले भी मलेशिया में काम के लिए आते रहे हैं। भारत से भी अच्छी-ख़ासी संख्या में मज़दूर मलेशिया में हैं। आँकड़ों के मुताबिक़ 2010 में, लगभग 18 लाख प्रवासी मज़दूर मलेशिया में अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे थे। इन मज़दूरों की लूट कई तरीक़ों से होती है।

पहला, प्रवासी मज़दूर एक ही मालिक के साथ बँधे होते हैं। क़ानूनों का उल्लंघन होने पर भी वे मालिक नहीं बदल सकते। या तो उसी मालिक के नीचे काम करो या फिर देश वापस जाओ। दूसरा, मालिक मज़दूरों को लम्बे समय के लिए काम करने को मजबूर कर सकते हैं। 8 घण्टे काम का अधिकार रोज़गार क़ानून में 1998 के संशोधन द्वारा ख़त्म कर दिया गया है। तीसरा, मालिकों को न्यूनतम वेतन देने की ज़रूरत से भी मुक्त रखा गया है। आन्दोलनों के बाद जुलाई 2012 में न्यूनतम वेतन का ऐलान किया गया लेकिन दिसम्बर 2012 में ही 600 मालिकों को एक साल तक की रियायत दे दी गयी। जिन मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिला भी, उनके दूसरे भत्तों में कटौती कर ली गयी और वह पहले वाली स्थिति में ही रह गये। चौथा, ज़्यादातर क़ानून वास्तव में कहीं लागू नहीं होते। अगर कोई मज़दूर अधिकार माँगता है तो ज़्यादातर मामलों में मालिक इकरारनामा ख़त्म कर देता है, जिससे उसका वीज़ा या वर्क परमिट रद्द हो जाता है और क़ानूनी तौर पर उनके लिए मलेशिया में रहने या काम करने के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं।

मलेशियाई ट्रेड-यूनियनें दावा करती हैं कि प्रवासियों को भी यूनियन का हिस्सा बनने का अधिकार है। कई प्रवासी मज़दूर ट्रेड-यूनियनों के मेम्बर भी हैं और इसका उन्हें लाभ भी होता है। लेकिन 1955 के रोज़गार एक्ट में 2012 में किये गये संशोधन के तहत एक तीसरी पार्टी, श्रम ठेकेदार को शामिल किया गया है। ये तीसरी पार्टियाँ कम्पनियों को मज़दूर मुहैया करवाती हैं और इन मज़दूरों के साथ ट्रेड यूनियन सीधा सम्बन्ध नहीं रख सकते। ये प्रवासी मज़दूर ट्रेड यूनियनों की तरफ़ से ली गयी सुविधाएँ नहीं ले सकते। यह चलन प्रवासी मज़दूरों से शुरू हुआ, लेकिन अब स्थानीय मज़दूर भी इसके घेरे में आ गये हैं। इससे मालिकों को तमाम ज़िम्मेदारियों से छुटकारा मिल जाता है। ये ठेकेदार जब चाहे दिवालिया हो सकते हैं या कम्पनी बन्द कर सकते हैं और फिर नये नाम से अगले दिन ही नयी कम्पनी खोल सकते हैं। इस तरह वे मज़दूरों के प्रति देनदारियों से बच जाते हैं।

इन सबके खिलाफ मज़दूर लड़ रहे हैं। मार्च में शाह आलम शहर में मज़दूरों ने प्रदर्शन किये और अपनी माँगें रखीं। मार्च में ही रेक्रौन मलेशिया लिमिटेड के 4,000 प्रवासी मज़दूरों ने अपने देश के दूतावासों और मलेशियाई श्रम विभाग की तरफ से कोई कार्रवाई न होते देख संघर्ष करने का फैसला किया। दुनिया की सबसे बड़ी पोलियस्टर और टेक्सटाइल कम्पनियों में से एक, रेक्रौन कम्पनी भारत की रिलायंस कम्पनी का ही हिस्सा है और वेतनों में बढ़ोत्तरी का विरोध करने में यह सबसे आगे थी। एक मज़दूर ने अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहा, “जो धागा हम बुनते हैं उसकी कीमत 5 वर्ष पहले 2.5 रिंगिट थी जो अब बढकर 7.5 रिंगिट हो गई है, उनके मुनाफे तीन गुना बढ़ गये हैं जबकि हमारी मज़दूरी में एक पैसे का इजाफा नहीं हुआ।””

इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी मज़दूरों को ज़्यादा लूटा जाता है और इनमें भी घरेलू काम करने वाली औरत मज़दूरों को तो और भी ज़्यादा क्योंकि उनको आर्थिक शोषण के साथ-साथ शारीरिक शोषण का भी सामना करना पड़ता है। प्रवासी मज़दूरों को उनकी क़ानूनी मजबूरी के चलते लूटना और अधिकारों से वंचित रखना अधिक आसान होता है। साथ ही उनकी स्थानीय मज़दूरों के साथ एकता बनने को भी रोका जाता है। लेकिन इस लूट के खिलाफ संघर्ष स्थानीय या प्रवासी या औरत मज़दूर अलग-अलग नहीं कर सकते। यह संघर्ष समूचे संसार के मज़दूरों का संघर्ष है और इसका दायरा भी व्यापक ही होगा। स्थानीय और प्रवासी मज़दूरों को एकजुट करके, उनको इस निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार करना होगा। इसी में ही समूचे मज़दूर वर्ग की मुक्ति है।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2014

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments