बर्बर सामूहिक बलात्कारों और यौन हिंसा की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि
स्त्री-विरोधी मानसिकता के विरुद्ध व्यापक जनता की लामबन्दी करके संघर्ष छेड़ना होगा!
पिछले लम्बे समय से स्त्री उत्पीड़न की विभिन्न घटनाएँ चर्चा में मौजूद हैं। अचानक स्त्री उत्पीड़न सम्बन्धी घटनाओं की मानो बाढ़ सी आ गयी है। ये नारी हिंसा के बर्बरतम और वीभत्सतम रूप के उदाहरण हैं। और ये कभी-कभार घटने वाली घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि यह आम चलन और प्रवृत्ति के रूप में समाज में मौजूद हैं। यह समाज में गहराई तक व्याप्त किसी गम्भीर रोग की सूचक है।
बदायूँ में दो दलित बहनों के साथ बलात्कार और हत्या करके उनके शवों को पेड़ से लटका देने की बर्बरतम घटना के बाद से लगातार लगभग हर दिन पूरे देश सहित प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में स्त्रियों के साथ दरिन्दगी की घटनाएँ एक आम बात बन गयी हैं और इसमें गाँव-शहर के सवर्ण दबंगों सहित, पुलिस, नेता, अफ़सर तक शामिल हैं। केवल प्रदेश की ही बात करें तो मेरठ, लखीमपुर, मुज़फ्फ़रनगर, बहराइच से लेकर बदायूँ तक स्त्रियों के शिकार का यह खेल निरन्तर जारी है और हिंस्र से हिंस्र होता जा रहा है। नेताओं और पुलिस अफ़सरों के बयान ‘एक तो कोढ़ उस पर खाज’ की कहावत को चरितार्थ करते अपराधियों के हौसले को बुलन्द कर रहे हैं।
सवाल यह उठता है कि आखि़रकार ऐसे बर्बर बलात्कार, हत्याओं और यौन अत्याचारों जैसी घटनाओं की संख्या बढ़ती क्यों जा रही है? इसे समझने के लिए हमें पितृसत्ता, पूँजीवादी राज्यसत्ता, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली और यौनाचारवादी पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के आपसी सहमेल से बने उस बर्बर परिदृश्य को समझना होगा जिसमें स्त्रियों के शिकार का यह खेल दिन-प्रतिदिन जारी है।
लैंगिक असमानता और स्त्री उत्पीड़न पूँजीवाद की आर्थिक बुनियाद में ही निहित है जो सभी रूपों का मूल कारण है। यह अकारण नहीं है कि स्त्री विरोधी बर्बरता में तेज़ वृद्धि पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान आई है। नवउदारवाद की लहर अपने साथ पूँजी की मुक्त प्रवाह के साथ ही विश्व पूँजीवाद की रुग्ण संस्कृति की एक ऐसी आँधी लेकर आयी है जिसमें बीमार व रुग्ण मनुष्यता की बदबू भरी हुई है। हमारे देश में नयी व पुरानी प्रतिक्रियावादी रुग्णताओं का एक विस्फोटक मिश्रण तैयार हुआ है। भारतीय समाज में इस दो प्रकार की नयी व पुरानी संस्कृतियों के समागम से यह विकृत बर्बरतम घटनाएँ घटित हो रही हैं, जिसके उदाहरण हमें अनेकशः रूप में दिखायी दे रहे हैं। स्त्री उत्पीड़न की ये घटनाएँ गाँवों से लेकर महानगरों तक घट रही हैं।
नव उदारवाद के इस दौर में एक तेज़ पूँजीवादी विकास जो गाँवों से शहरों तक में हुआ है, उसने एक बीमार-रुग्ण मानस तैयार किया है। गाँवों में जो पूँजीवादी विकास हुआ है, उसमें जो नये भूस्वामी और कुलक हैं, वे प्रायः (सवर्ण जातियों के) पुराने भूस्वामियों और (मध्य जातियों के) पुराने धनी काश्तकारों के वंशज हैं। ये अपनी प्रकृति से ही निरंकुश और हर प्रकार के जनवादी मूल्यों से रिक्त हैं और फासिज़्म के सामाजिक आधार बन चुके हैं। यह जो नया तबका पैदा हुआ है, यह वही तबका है जो राजनीतिक धरातल पर फासीवाद का सामाजिक आधार तैयार करता है। इसी तबके में स्त्री उत्पीड़न और पुरुष स्वामित्ववाद की सबसे बर्बर घटनाएँ देखने को मिलती हैं। अन्तरजातीय प्रेम व विवाह करने पर बर्बर सज़ाओें की घटनाएँ भी अंजाम दी जा रही हैं। और अपने वोट बैंक को बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय बुर्जुआ पाटियों के नेता भी इन घटनाओं के बाद तुष्टीकरण करते रहते हैं। नवउदारवाद का यह दौर बुर्जुआ वर्ग के सभी हिस्सों के बीच आम सहमति की नीतियों का दौर है। अपने इन सामाजिक अवलम्बों के खि़लाफ़ पूँजीपति वर्ग क़तई नहीं जायेगा। पूँजीवादी वोट बैंक के खेल के लिए जातिगत बँटवारे को बनाये रखना ज़रूरी है। और सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्यों के अभाव के कारण इसे मज़बूती भी मिलती है।
अति मुनाफ़ा निचोड़ने की हवस में पूँजीपति वर्ग एक तरफ़ तो आर्थिक धरातल पर मेहनतकशों की हड्डियों का चूरा बनाकर बाज़ार में बेचने को तैयार हैं, वहीं राजनीतिक धरातल पर राज्यसत्ता द्वारा निरन्तर निरंकुश दमनकारी रवैया अपनाया जा रहा है तथा सांस्कृतिक-सामाजिक धरातल पर कदाचार, दुराचार, व्यभिचार के वीभत्सतम-बर्बरतम रूप सामने आ रहे हैं। बदायूँ, मुज़फ्फ़रनगर, भगाणा से लेकर देश के अलग-अलग कोनों में घट रही घटनाओं को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।
पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फ़ार्मरों के बेटों का ही नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है। भारतीय गाँव तथा शहरों तक के समाज में स्त्री-पुरुष पार्थक्य और मध्ययुगीन ग़ैर-जनवादी स्त्री विरोधी मूल्यों-मान्यताओं का जो प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न मज़दूर वर्ग। ऐसे में भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश में नवउदारवाद के इस दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन अपराधों को खुलकर बढ़ावा दे रही है। यह समस्या केवल पिछड़े समाजों की नहीं है, पश्चिम का समाज भी इससे अछूता नहीं है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है। नवउदारवाद के इस दौर में पूँजी की बढ़ती बर्बरता उग्र साम्प्रदायिक फासीवाद के साथ-साथ बर्बर जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के रूप में अभिव्यक्त हो रहे हैं। धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवाद, जातिवाद और पुरुष स्वामित्ववाद – इन तीनों के तार सामाजिक ताने-बाने में एक-दूसरे से उलझे व जुड़े हुए हैं। तीनों ही एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं। धर्म, जाति और औरत की गुलामी – इन तीनों को अलग नहीं किया जा सकता। लगातार देश के कोने-कोने में घट रही ऐसी घटनाएँ हमारे ज़मीर को ललकार रही हैं और संघर्ष के लिए प्रेरित कर रही हैं।
हमें इस मुगालते में भी रहने की ज़रूरत नहीं है कि यौन हिंसा की घटनाओं को पुलिस व्यवस्था व क़ानून व्यवस्था को चाक-चौबन्द करके रोका जा सकता है। कौन नहीं जानता है कि थाने में स्त्रियों के साथ बलात्कार व दुर्व्यव्हार एक आम बात है। अदालतों में जज प्रायः अपने स्त्री-विरोधी पूर्वाग्रहों का ज़हर उगलते रहते हैं। अफ़सरों के रुग्ण यौन विलासिताओं और सेक्स पर्यटन की ख़बरों से कौन अपरिचित होगा। नेताओं द्वारा बलात्कारों और यौन अपराधों की घटनाओं का सौवाँ हिस्सा ही सामने आ पाता है। हालत यह है कि आज एक लाख से अधिक बलात्कार के मामले लम्बित हैं। बलात्कार के नब्बे प्रतिशत आरोपी अदालतों से बेदाग बरी होते रहे हैं।
और सबसे मूल बात यह है कि राज्यसत्ता हर जगह बलात्कार का हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक कश्मीर और उत्तर-पूर्व में सेना और अर्द्धसैनिक बलों ने स्त्रियों पर बर्बर यौन अत्याचार और बलात्कार के बाद हिंसा जैसे जघन्य अपराध जितने बड़े पैमाने पर किये हैं, वे मानवता को शर्मसार करने वाले हैं। ‘आर्म्ड फ़ोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’ वस्तुतः फ़ासिस्ट सैनिक शासन का ही एक रूप है, जो मुठभेड़, नरसंहार, बलात्कार और यौन हिंसा का सैन्य बलों को लाइसेंस प्रदान करता है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के कई गाँवों को आज ‘बलात्कार वाले गाँव’ के रूप में ही जाना जाता है। बच्चियों और स्त्रियों के यौनांगों में शीशे की बोतल या प्लास्टिक के टुकड़े घुसेड़ने वाले जिन मनोरोगी बलात्कारियों की ख़बरें जिन दिनों मीडिया में आयी थीं, उनसे दन्तेवाड़ा के एस.पी. अमित गर्ग को भिन्न कैसे माना जा सकता है जिसने माओवादी होने के आरोप में गिरफ्ऱतार शिक्षिका सोनी सोरी के यौनांग में पत्थर भर दिये थे। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस बर्बर मनोरोगी को राज्यसत्ता ने बहादुरी और निर्भीकतापूर्ण कर्तव्यपालन के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया। नरेन्द्र मोदी को हिन्दुत्व का नायक बनाने वाले गुजरात नरसंहार में सामूहिक बलात्कार और हत्या की जो बर्बर घटनाएँ अंजाम दी गयीं, उन्हें क्या कभी भुलाया जा सकेगा। सच्चाई यह है कि इतिहास की हर राज्यसत्ता से अधिक बुर्जुआ राज्यसत्ता स्त्री विरोधी हिंसा और यौन उत्पीड़न को दमन के हथकण्डे के रूप में इस्तेमाल करती रही हैं। राज्यसत्ता का चरित्र शासक वर्ग के हित और संस्कृति से भिन्न नहीं हो सकता। उत्पादन सम्बन्ध और सामाजिक ढाँचे से इतर व्यवहार की उससे अपेक्षा नहीं की जा सकती।
मूल बात यह है कि आज का पूँजीवाद ऐसे अपराधों और ऐसे अपराधियों को जन्म दे रहा है। यह वही पूँजीवाद है जो युद्ध, भुखमरी, कुपोषण, नरसंहार, बीमारियों, दवाओं और बुनियादी ज़रूरतों के अभाव और पर्यावरण विनाश के रूप में मानवता पर लगातार क़हर बरपा कर रहा है। पूँजीवाद ही इतिहास का असली अपराधी है। पूँजीवाद आज सांस्कृतिक-आत्मिक धरातल पर मनोरोग और अपराध की संस्कृति और अपराधी ही पैदा कर सकता है।
लेकिन मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है तब तक बदायूँ जैसी घटनाएँ व स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ती दरिन्दगी को हम बस यूँ ही चिन्ता और गुस्सा जाहिर करते हुए देखते-भुगतते नहीं रह सकते। इनसे निपटने के लिए मज़दूरों, नौजवानों, नागरिकों के अलावा स्त्रियों की संगठित शक्ति को आगे आना होगा।
पूँजीवाद नित नयी बर्बरताओं का कहर हम पर ढाता रहेगा और उसके चाकर अखिलेश-मुलायम सरकार से लेकर समस्त राज्यसत्ता उसे बढ़ावा देते रहेंगे। यही सच्चाई है और इसका संगठित प्रतिरोध ही बचाव का एकमात्र तात्कालिक रास्ता है।
बदायूँ जैसी घटना और उसकी निरन्तर पुनरावृत्ति केवल स्त्रियों, दलितों या जनवादी अधिकार का ही मसला नहीं है, बल्कि मुक्तिकामी जनों के संघर्ष का एक अहम मसला है। स्त्री विरोधी मानसिकता के विरुद्ध व्यापक जनता की लामबन्दी करके ही इससे लड़ा जा सकता है। हमें सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर ऐसे मुद्दों को लेकर पुरज़ोर तरीक़े से संघर्ष की रणनीति तैयार करनी होगी। और संघर्ष में जल्द से जल्द उतरना होगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2014
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