तुर्की में कोयला खदान में सैकड़ों मज़दूरों की मौत
मुनाफ़े की हवस में एक और क़त्लेआम
संजय
पिछले 13 मई से तुर्की के मेहनतकशों और युवा लोगों में शोक और गुस्से की लहर फैली हुई है। उन्होंने पूँजी के मुनाफ़ाखोर, हत्यारे दानव के हाथों अपने 300 से भी ज़्यादा बेटों को खो दिया है। अपने उबलते आँसुओं और सीने में उमड़ते क्रोध के तूफ़ान को लिये हुए वे तुर्की के शहरों और कस्बे में सड़कों पर उतर पड़े हैं, और दुख और गुस्से से काँपती उनकी आवाज़ें बार-बार दुहरा रही हैं – ये दुर्घटना नहीं, मुनाफ़े के लालच में की गयी हत्याएँ हैं! हम इस ख़ूनी व्यवस्था को अब और नहीं चलने देंगे।
यह कहानी सिर्फ़ तुर्की की नहीं है। पूँजी की रक्तपिपासु राक्षसी पूरी दुनिया में ऐसे हत्याकाण्ड रचती घूम रही है।
पश्चिमी तुर्की के सोमा में कोयले की एक बहुत बड़ी खदान में 13 मई को पहले एक विस्फोट हुआ और फिर आग लग गयी। उस वक़्त शिफ़्ट बदल रही थी और क़रीब 750 मज़दूर खदान के अन्दर थे। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 282 लाशें निकाली जा चुकी थीं और सैकड़ों मज़दूर भीतर फँसे हुए थे। ज़्यादातर के बचने की बहुत कम सम्भावना बतायी जा रही थी। निकाली गयी लाशों में से एक 15 साल के बच्चे की भी थी जो इस बात को साबित करने के लिए काफी थी कि खदान में बच्चों से भी काम कराया जाता था। जिस वक़्त मज़दूरों के परिवार और आम लोग खदान में फँसे अपने प्रियजनों के बारे में जानने के लिए खदान और अस्पताल के बाहर बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे, उस वक़्त सरकारी अधिकारी और मंत्री पूरे मामले पर लीपापोती करने और मरने वालों की संख्या कम दिखाने की कोशिशों में लगे हुए थे। इससे लोगों में गुस्सा और क्षोभ बढ़ता गया।
हत्यारी कम्पनी को बचाने पर आमादा सरकार ने सैकड़ों की संख्या में सेना और पुलिस के जवान खदान और उसके पास मज़दूरों के रिहायशी इलाक़े में तैनात कर दिये। लेकिन इन क़दमों से गुस्से की लहर पूरे देश में फैल गयी।
सोमा में हुआ यह हादसा तुर्की की पहली ऐसी घटना नहीं है। दुनिया में खदान दुर्घटनाओं में मौतों के मामले में तुर्की तीसरे स्थान पर है। 2013 में तुर्की में क़रीब 13,000 खदान मज़दूर किसी न किसी दुर्घटना का शिकार हुए और पिछले दस वर्षों में हुई खदान दुर्घटनाओं में 1308 मज़दूरों की मौत हो चुकी है। इससे पहले तुर्की की सबसे भयंकर खदान दुर्घटना 1992 में हुई थी जिसमें 263 मज़दूर मारे गये थे। लेकिन सोमा के हत्याकाण्ड ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया है।
तुर्की में खदान दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या का सीधा सम्बन्ध निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों से है। पिछले वर्षों के दौरान दूसरे उद्योगों में भी दुर्घटनाएँ बढ़ी हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 2002 और 2011 के बीच तुर्की में कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटनाओं में 40 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारणों को समझना मुश्किल नहीं है। सभी उद्योगों में बड़े पैमाने पर ठेकेदारी प्रथा लागू है, ज़्यादातर मज़दूर असंगठित और अप्रशिक्षित होते हैं और ठेका कम्पनियों को उनकी सुरक्षा की कोई परवाह नहीं होती। ज़्यादातर मज़दूरों का कोई लिखित रिकार्ड भी नहीं होता और किसी हादसे की सूरत में खदान मालिक कम्पनी पर कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं आती है। निजीकरण के बाद से मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए सभी कम्पनियाँ ख़र्च घटाने पर जोर दे रही हैं और सबसे पहले मज़दूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्बन्धी ख़र्चों में कटौती की जाती है। मज़दूरों का कहना था कि सोमा की खदान में सुरक्षा के बहुत से बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं थे। श्रम विभाग और अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा निरीक्षण नहीं के बराबर होता है। हालाँकि तुर्की के श्रम मंत्रलय ने दावा किया कि 2012 के बाद से पाँच बार खदान का निरीक्षण किया गया था और उसकी सभी व्यवस्थाओं को क़ानूनी तौर पर दुरुस्त पाया गया था। लेकिन अगर ऐसा था तो इतनी सीधी सी जानकारी भी कम्पनी या सरकार के पास क्यों नहीं थी कि हादसे के वक़्त खदान के भीतर कुल कितने मज़दूर थे? ऐसा कैसे हुआ कि जिन तकनीकी इंतज़ामों को पिछले मार्च में मंजूरी दी गयी थी वहाँ इतना बड़ा विस्फोट हो गया और आग की लपटें बेरोकटोक फैलती चली गयीं। ज़्यादातर मज़दूरों की मौत आग या कार्बन डाई आक्साइड गैस के कारण दम घुटने से हुई। विशेषज्ञों के अनुसार अगर खदान से गैस बाहर निकालने वाले पंखे और ‘पेंट’ पर्याप्त संख्या में होते और ठीक होते तो भी बहुत से मज़दूरों की जान बच सकती थी। अन्दर आक्सीजन मारक भी कम थे, हालाँकि बाद में कम्पनी ने लोगों को भ्रमित करने के लिए निकाली गयी लाशों के चेहरे पर मास्क लगवा दिये थे।
यह ख़ूनी खदान सामो होलि्ंडग्स नामक कम्पनी की है जिसने 2005 में इसे ख़रीदा था। खदान से होने वाले बेहिसाब मुनाफ़े को इसने अपने बिल्डिंग व्यवसाय में लगाया है। तुर्की की सबसे ऊँची इमारत ‘स्पाइन टावर’ भी इसी कम्पनी की है। सत्तारूढ़ पार्टी से इसके काफ़ी नज़दीकी रिश्ते हैं। कम्पनी के डायरेक्टर जनरल की पत्नी मेलिके डोगरू सत्तारूढ़ ए.के.पी. पार्टी की सांसद भी चुनी गयी है। पिछले स्थानीय निकायों के चुनावों में कम्पनी ने पार्टी की मदद के लिए ग़रीबों के बीच कोयले की मुफ़्त बोरियाँ भी बँटवायी थीं।
कम्पनी के इस एहसान का बदला चुकाने में सरकार कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही। हादसे के 24 घण्टे बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री रेसेप तिय्यप एर्दोगान ने कहा कि ‘‘ऐसी दुर्घटनाएँ तो आम बात हैं।’’ मुनाफ़ाखोरों के इस वफ़ादार नौकर से मज़दूरों के लिए ऐसी हिकारत की ही उम्मीद की जा सकती है। 2010 में एक और खदान हादसे में 30 मज़दूरों की मौत के बाद एर्दोगान ने कहा था कि ऐसी मौतें तो ‘‘इस पेशे की क़िस्मत में बदी है।’’ इस घटना से एक सप्ताह पहले ही तुर्की के श्रम और सामाजिक सुरक्षा मंत्रलयों ने पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा पर एक अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया था। इसमें श्रम मंत्री फारूख सेलिक ने तुर्की में पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा उपायों में सुधार की लम्बी चौड़ी डींगें हाँकी थीं और उल्टे ट्रेड यूनियनों पर तोहमत मढ़ी थी कि वे स्थिति में सुधार नहीं होने दे रही हैं। लेकिन इसके ठीक पहले मई दिवस के दिन अधिकारियों ने तमाम सड़कों को बन्द करके मई दिवस की रैलियों और सभाओं को नाकाम करने में पूरी ताकत झोंक दी थी, जिनमें मज़दूरों का स्वास्थ्य और सुरक्षा एक बड़े मुद्दे के तौर पर उठाया जा रहा था। सोमा के ख़ूनी हादसे के बाद भी सरकारी तंत्र और कारपोरेट मालिकाने वाला मीडिया मरने वालों की संख्या कम बताने और लीपापोती करने में लगा रहा जबकि दूसरी ओर सड़कों पर विरोध करने वालों पर पुलिसिया हमले तेज कर दिये गये। 14 मई को तुर्की के अनेक शहरों में ज़ोरदार विरोध प्रदर्शन करने वाले मज़दूरों और नौजवानों पर दंगा-विरोधी पुलिस ने लाठियों, आँसू गैस के गोलों और पानी की बौछारों से हमला किया। लेकिन वे उन्हें डरा-धमकाकर शान्त कराने में नाक़ाम रहे हैं। तुर्की की कई बड़ी मज़दूर यूनियनों के साथ ही इंजीनियर एवं आर्किटेक्ट की यूनियन, डाक्टरों की एसोसिएशन और छात्र-युवा संगठनों ने मिलकर 15 मई को देशव्यापी हड़ताल आयोजित की। जिस वक़्त सोमा में मज़दूरों को दफ़नाया जाना शुरू हुआ, उसी समय हज़ारों मज़दूर, छात्र-युवा और विभिन्न क्षेत्रों के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने राजधानी अंकारा के तकसीम चौक तथा सोमा होल्डिंग के हेडर्क्वाटर के सामने विशाल प्रदर्शन करके स्वास्थ्य व सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने और ठेका प्रथा को ख़त्म करने की माँग उठायी। उन्होंने यह भी संकल्प लिया कि वे इस व्यवस्था के खिलाफ़ लड़ाई तेज करेंगे जिसमें इंसानों की ज़िन्दगी से बढ़कर कम्पनियों का मुनाफ़ा होता है और मज़दूरों की सुरक्षा पर ख़र्च एक ग़ैरज़रूरी बोझ माना जाता है।
पूरी दुनिया में आज भी उद्योगों को चलाने के लिए सबसे अधिक फ़ॉसिल ईंधन यानी तेल, गैस और कोयला की खपत होती है। कोयला खदानों में मज़दूर बेहद असुरक्षित हालत में काम करते हैं। भूमण्डलीकरण की नीतियों के दौर में पूरी दुनिया में सुरक्षा के रहे-सहे इन्तज़ामों को भी ताक पर धरकर ठेका और कैजुअल मज़दूरों से अन्धाधुन्ध खनन कराया जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में खदान दुर्घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में चासनाला की कुख्यात कोयला खदान दुर्घटना को कौन भूल सकता है जिसमें 450 से अधिक मज़दूर मारे गये थे। उस वक़्त एक के बाद एक कई भयानक हादसों के बाद देशव्यापी विरोध के दबाव में सरकार ने निजी कोयला खदानों का राजकीयकरण कर दिया था। लेकिन अब एक बार फिर एक-एक करके खदानों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। भारी पैमाने पर अवैध ढंग से कोयला निकालने का काम सरकार की नाक के नीचे होता है जिसमें मज़दूर बिना किसी सुरक्षा के जान पर खेलकर काम करते हैं। कुछ ही साल पहले रानीगंज में अवैध खदानों में पानी भरने से दर्जनों मज़दूर मारे गये थे जिनकी ठीक-ठीक संख्या का कभी पता ही नहीं चल पाया। चीन में हर साल खदान दुर्घटनाओं में क़रीब 5000 मज़दूर मारे जाने हैं।
पूँजीवाद के बढ़ते संकट के साथ ही मुनाफ़ाखोरों के बीच गलाकाटू होड़ तेज़ हो गयी है और मुनाफ़े की घटती दर को बचाने के लिए मज़दूरों के हर तरह के अधिकारों और हितों में कटौती की जा रही है। अगर मज़दूर एकजुट होकर अपने हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए नहीं लड़ेंगे तो पूँजी के ये ख़ूनी उपासक इसी तरह हमारी बलि चढ़ाते रहेंगे।
मज़दूर बिगुल, मई 2014
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