कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पच्चीसवीं किस्त)
उपसंहार-2

आनन्द सिंह

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पिछले अंक में हमने देखा कि स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के जिन उदात्त प्रबोधनकालीन आदर्शों के नाम पर यूरोपीय और अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग ने वहाँ की मेहनतकश जनता को सामन्तवाद के खि़लाफ़ विद्रोह के लिए प्रेरित किया था, सत्ता में आने के बाद इस शोषक वर्ग ने किस प्रकार उन आदर्शों के परचम को धूल में फ़ेंक दिया। इस अंक में हम देखेंगे कि किस प्रकार जिन उदात्त आदर्शों से बुर्जुआ वर्ग ने कन्नी काट ली थी, उन्हें वास्तव में पूरा करने की ज़िम्मेदारी सर्वहारा वर्ग ने अपने कंधों पर उठा ली और 1917 में रूस में सम्पन्न हुई महान अक्टूबर क्रान्ति के बाद मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार इन आदर्शों को पूरा करने के लिए ठोस सार्थक प्रयास किये गये।

यूरोप में पूँजीवाद के विकास के साथ ही सर्वहारा वर्ग एक वर्ग के रूप में सुदृढ़ होता गया और उसमें यह चेतना विकसित होती गई कि अपने अधिकारों के लिए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना होगा और जनान्दोलन संगठित करने होंगे। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यह चेतना एक क्रान्तिकारी और वैज्ञानिक चेतना में तब्दील हो चुकी थी जब मार्क्स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सर्वहारा की मुक्ति तभी सम्भव है जब वह जनक्रान्ति के माध्यम से राज्यसत्ता पर कब्ज़ा करे और सर्वहारा की तानाशाही के रास्ते से होते हुए एक वर्गविहीन कम्युनिस्ट समाज की ओर बढ़े। मार्क्स एवं एंगेल्स के जीवनकाल में हालाँकि पेरिस के मज़दूरों ने अटूट पराक्रम और शौर्य का परिचय देते हुए 1871 में बुर्जुआ वर्ग को क़रारी शिकस्त देते हुए सत्ता पर कब्ज़ा किया, परन्तु पेरिस कम्यून का यह अभूतपूर्व प्रयोग मात्र 72 दिन ही चल सका और बुर्जुआ वर्ग एक बार फिर सत्ता पर काबिज़ हो गया। मज़दूर वर्ग की मुक्ति के संघर्ष में अगला मील का पत्थर 1917 की महान रूसी क्रान्ति साबित हुई जो बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सम्पन्न हुई थी। इस क्रान्ति ने यह साबित कर दिया कि यह मज़दूर वर्ग न सिर्फ़ सत्ता चलाने में सक्षम है बल्कि उसके शासन में उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व के ज़रिये ही वास्तव में स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के प्रबोधनकालीन आदर्शों को ज़मीनी हक़ीकत बनाया जा सकता है।

अक्टूबर क्रान्ति के कुछ ही दिनों के भीतर नवनिर्मित सोवियत सरकार ने रूस की जनता की बुनियादी माँगों को पूरा करने के मद्देनज़र कुछ अहम आज्ञप्तियाँ जारी कीं। क्रान्ति के अगले ही दिन यानी 26 अक्टूबर ( नये कैलेण्डर के अनुसार 8 नवंबर) सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस ने ऐतिहासिक महत्व की शान्ति आज्ञप्ति अंगीकार की जिसमें सोवियत सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल सभी देशों और उनकी सरकारों के सामने प्रस्ताव रखा कि न्यायसंगत और जनवादी शान्ति के लिए तुरन्त वार्तायें आरम्भ की जायें। उसी दिन कांग्रेस ने भूमि आज्ञप्ति भी जारी की, जिसके अनुसार सभी जमींदारों, मठों और गिरजों की भूमि और उससे संलग्न चल व अचल सम्पत्ति को बिना मुआवजा ज़ब्त कर लिया गया। किसानों को 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि मुफ़्त में आवंटित की। अपनी स्थापना के चौथे दिन सोवियत सरकार ने एक आज्ञप्ति जारी करके 8 घण्टे का कार्य-दिवस निर्धारित कर दिया (जिसको कुछ वर्षों बाद 7 घण्टे कर दिया गया)। इसके बाद मज़दूरों और कर्मचारियों के लिए निःशुल्क राज्य बेरोज़गारी तथा स्वास्थ्य बीमा प्रणाली भी लागू की गयी।

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जुलाई 1918 में सोवियतों की पांचवीं अखिल रूसी कांग्रेस ने पहला सोवियत संविधान अंगीकार किया, जिसका मसविदा लेनिन और अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी के अध्यक्ष स्वेर्दलोव के निदेशन में तैयार किया गया था। इस संविधान ने समाजवादी क्रान्ति के पहले आठ महीनों की ऐतिहासिक उपलब्धियों को विधिक रूप दिया, जैसे सोवियत राज्य की स्थापना, संघात्मक राज्य प्रणाली का अंगीकरण, जनवादी स्वतन्त्रतायें और इन स्वतन्त्रताओं को व्यवहार में चरितार्थ करने के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ। उसमें कहा गया था कि श्रम करना गणराज्य के सभी नागरिकों का दायित्व है और ‘‘जो काम नहीं करेगा, वह खायेगा भी नहीं’’। जाति, नस्ल, लिंग, शिक्षास्तर और धार्मिक विश्वासों का लिहाज़ किये बिना सभी वयस्क नागरिकों को सोवियतों के सदस्य चुनने और स्वयं भी चुने जाने का अधिकार दिया गया। यदि कोई प्रतिनिधि मतदाताओं के विश्वास को झुठला दे, तो मतदाताओं को उसे वापस बुलाने, यानी उसका प्रतिनिधि का अधिकार छीन लेने का हक़ था। शोषकों और शत्रु तत्वों को, जिनकी संख्या लगभग नगण्य थी, संविधान ने मताधिकार से वंचित कर दिया। इस प्रकार समाजवादी सत्ता ने इस बात पर कोई पर्दा नहीं डाला की यह सर्वहारा वर्ग की पूँजीपति वर्ग पर तानाशाही थी। देश की बहुसंख्यक आम मेहनतकश जनता के लिए यह अधिकतम संभव जनवाद था।

राष्ट्रीयताओं के मसले पर भी सोवियत सरकार ने मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार उत्पीड़न रहित संघ बनाने की दिशा में ठोस क़दम उठाये। ज़ारशाही के दौर में समूचे रूसी साम्राज्य को राष्ट्रीयताओं का जेलखाना कहा जाता था। नये कैलेंडर के अनुसार 15 नवंबर 1917 को सोवियत सरकार ने ‘‘रूस की जनता के अधिकारों का घोषणापत्र’’ प्रकाशित किया, जिसमें जातीय उत्पीड़न का अन्त, रूस की सभी जातियों की समानता, सर्वमत्ता, अलग होने के अधिकार समेत आत्मनिर्णय के अधिकार, स्थापित करने का अधिकार भी शामिल था, और सभी जातीय व धार्मिक विशेषाधिकारों व प्रतिबंधों के उन्मूलन की उद्घोषणा की गयी थी। इस घोषणापत्र पर अमल करते हुए दिसंबर 1917 में सोवियत सरकार ने फिनलैण्ड की स्वतन्त्रता को मान्यता दे दी, जो अब तक रूस का हिस्सा था। इसी तरह उक्रइना की स्वाधीनता, आर्मीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार, आदि को भी मान्यता दी गयी। इसके फलस्वरूप उक्रइनी, बेलोरूसी, एस्तोनियाई, लातवियाई, लिथुआनियाई, आज़रबैजानी, आरमीनियाई और जार्जियाई जनों ने अपने को स्वतन्त्र सोवियत गणराज्य घोषित किया जिन्हें रूसी सोवियत सरकार ने तुरन्त मान्यता प्रदान की। जनवरी, 1918 में रूसी गणराज्य ने अपने आप को संघात्मक गणराज्य घोषित कर दिया, जिसके अस्तित्व के आरम्भिक वर्षों में उसके अन्तर्गत अनेक स्वायत्त गणराज्य और प्रदेश पैदा हुए, जैसे तातार, बश्कीर, तुर्कीस्तान आदि।

गृहयुद्ध के बाद कतिपय पार्टी और सरकारी कार्यकर्ताओं का सुझाव था कि सभी स्वतन्त्र सोवियत गणराज्यों को स्वायत्त गणराज्यों का दर्ज़ा देकर रूसी संघ में शामिल कर लिया जाना चाहिए। परन्तु लेनिन ने इस सुझाव की आलोचना करते हुए पूर्ण समानता पर आधारित नया संघ राज्य बनाने की अपील की। उसमें शामिल होनेवाले गणराज्यों को अपने कुछ संप्रभु अधिकार, जैसे विदेशी मामलों, राष्ट्रीय सुरक्षा, वित्त और राष्ट्रीय आर्थिक आयोजना के क्षेत्रों में, संघ राज्य को हस्तांतरित कर देने थे। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, घरेलू मामलों आदि के क्षेत्रों में उनकी पूर्ण और समान संप्रभुता बनी रहनी थी। संपूर्ण संघ को संबन्धित कार्यों का संचालन अखिल संघीय विधायी तथा कार्यकारी निकायों द्वारा किया जाना था। संघ का सदस्य बननेवाले हर गणराज्य का अलग होने का अधिकार यथावत बना रहना था। लेनिन के प्रस्ताव का सभी राष्ट्रीयताओं  के मेहनतकशों ने सोत्साह स्वागत किया। कई महीने तक सोवियतों की कांग्रेसों, पार्टी कांग्रेसों और मेहनतकशों की सभाओं में इस प्रश्न पर बहस चलती रही। अंततः एक विशेष आयोग ने, जिसमें सभी जनतंत्रों के प्रतिनिधि थे, सभी सोवियत जनतंत्रों के एक संघ – सोवियत समाजवादी जनतंत्र संघ – में सहबद्ध होने से सम्‍बन्धित घोषणापत्र तथा संधि के मसविदे तैयार किये।  30 दिसंबर 1922 को मास्को में सोवियतों की एक कांग्रेस ने सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ के निर्माण का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया और सम्बन्धित घोषणापत्र व सन्धि की सम्पुष्टि की। इन्हीं दस्तावेज़ों के आधार पर आगे चलकर विशेष आयोग ने सोवियत संघ का संविधान बनाया। सभी गणराज्यों में उस पर ध्यानपूर्वक विचार किया गया और अन्ततः जनवरी 1924 में सोवियत संघ की सोवियतों की दूसरी कांग्रेस में उसे अंगीकार कर लिया गया। जब हम सोवियत संघ में राष्ट्रीयताओं के सम्मिलन की इस बेहद जनवादी प्रक्रिया की तुलना भारतीय राज्य द्वारा स्वतन्त्रता के बाद उत्तर-पूर्व और जम्मू कश्मीर के विलय से करते हैं तो भारतीय संघ के खोखले दावों की कलई खुल जाती है।

सोवियत यूनियन में जनवाद की विकास यात्रा का अगला अहम पड़ाव 1936 में आया जब 5 दिसंबर, 1936 को सोवियत संघ की सोवियतों की आठवीं (असाधारण) कांग्रेस ने नवनिर्मित संविधान को अंगीकार किया। इस नये संविधान ने समाजवाद की विजय और समाजवाद के बुनियादी सिद्धान्तों को विधिक रूप प्रदान किया। इसमें संघीय सर्वोच्च सोवियत से लेकर स्थानीय सोवियतों तक मेहनकश प्रतिनिधियों की विभिन्न सोवियतों को सोवियत संघ का राजनीतिक आधार और समाजवादी अर्थप्रणाली, उत्पादन साधनों के सार्वजनिक स्वामित्व तथा आर्थिक नियोजन को आर्थिक आधार बनाया गया। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को वर्जित ठहराया गया।

1936 के सोवियत संविधान ने इस सिद्धान्त के अनुसार कि ‘‘जो काम नहीं करेगा, वह खायेगा भी नहीं’’ श्रम को प्रत्येक श्रम-सक्षम सोवियत नागरिक के लिए कर्तव्य और प्रतिष्ठा की बात घोषित किया और ‘‘प्रत्येक से योग्यतानुसार, प्रत्येक को कार्यानुसार’’ के समाजवादी सिद्धान्त को बल प्रदान किया। उसमें देश के सभी नागरिकों को श्रम, शिक्षा, विश्राम और वृद्धावस्था, बीमारी तथा अपाहिजावस्था में भरण-पोषण के सर्वोच्च अधिकार प्रदान किये गये थे। सोवियत संघ के सभी नागरिकों की, चाहे वे किसी भी जाति या नस्ल के क्यों न हों, समानता को अपरिवर्तनीय, अमिट कानून करार दिया गया था। सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व व आवास की अनुल्लंघनीयता, पत्राचार की गोपनीयता और जनवादी स्वतन्त्रताओं – भाषण, प्रेस, सभा, प्रदर्शन, जुलूस तथा सार्वजनिक संगठनों में सम्मिलन की स्वतन्त्रताओं – की गारंटी दी गयी थी। साथ ही संविधान ने नागरिकों को संविधान, कानूनों तथा श्रम अनुशासन के पालन, सामाजिक दायित्व की निष्ठापूर्वक पूर्ति, समाजवादी समाज के नियमों के सम्मान और समाजवादी सम्पत्ति की रक्षा तथा अभिवृद्धि के लिए उत्तरदायी भी बनाया। इस संविधान में यह भी कहा गया था कि नगर और ग्राम सोवियत से लेकर सर्वोच्च सोवियत तक मेहनकश प्रतिनिधियों की सभी सोवियतों के सदस्यों का चुनाव सार्विक, समान तथा प्रत्यक्ष मताधिकार के आधार पर और गुप्त मतदान द्वारा होगा। प्रत्येक सोवियत सदस्य का कर्तव्य था कि वह मतदाताओं को सोवियत में अपने काम की रिपोर्ट दे और मतदाताओं को अधिकार था कि यदि वह उनका विश्वासभाजन नहीं रह जाये, तो किसी भी समय उसको वापस बुला लें। संविधान ने गैर-मेहनतकश नागरिकों के मताधिकार पर लगी सभी पाबंदियों को हटा दिया और नगरी मतदाताओं को ग्रामीण मतदाताओं के मुक़ाबले जो विशेषाधिकार प्राप्त थे, उन्हें भी रद्द कर दिया।

12 दिसंबर, 1937 को सोवियत जनता ने पहली बार नयी निर्वाचन प्रणाली के अनुसार सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत चुनी। कम्युनिस्टों और निर्दलीय लोगों ने संयुक्त चुनाव मोर्चा बनाया और उम्मीदवार भी संयुक्त रूप से नामजद किये। 97 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया। कम्युनिस्टों और निर्दलीयों के संयुक्त मोर्चे के उम्मीदवारों को 98.69 प्रतिशत मत मिले। संघीय और स्वायत्त गणतन्त्रों की सर्वोच्च सोवियतों के चुनाव 1938 में और स्थानीय सोवियतों के चुनाव 1936 में हुए।

इस प्रकार सोवियत संघ के संविधान बनने की प्रक्रिया के संक्षिप्त इतिहास से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि एक समाजवादी सरकार ही लोकतन्त्र को उसके असली मायने में लागू कर सकती है। परन्तु समाजवादी देशों में संविधान महज़ शब्दों का मायाजाल नहीं होता, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात होती है आदर्शों को वास्तव में हकीकत में बदलना। यदि हम क्रान्ति के बाद के कुछ दशकों में सोवियत संघ में आये हुए आर्थिक बदलावों पर एक नज़र दौड़ायें तो यह साफ़ हो जाता है कि समाजवादी क्रान्ति किस प्रकार किसी समाज का कायाकल्प कर देती है। एक बेहद छोटे कालखण्ड में सोवियत समाज ने प्रगति की ओर ऐसी अभूतपूर्व छलांग लगायी कि देखते ही देखते वह एक पिछड़े देश से एक विकसित औद्योगिक शक्ति बन गया। 1937 तक सोवियत संघ यूरोप की पहली और विश्व की दूसरी – संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद – सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति बन गया। 1940 तक आते-आते बड़े उद्योगों का सकल उत्पादन 1913 की अपेक्षा 13 गुना हो गया। एक कृषि प्रधान देश में देखते ही देखते उद्योग ने कुल राष्ट्रीय उत्पादन में प्रभुत्वशाली स्थिति प्राप्त कर ली। मशीन निर्माण उद्योग का उत्पादन 1940 में 1913 की अपेक्षा 35 गुना ज़्यादा था। इस उद्योग की विस्मयकारी प्रगति की बदौलत अर्थव्यवस्था की सभी शाखाओं का तकनीकी दृष्टि से आधुनिकीकरण किया जा सकता था। एक शक्तिशाली ऊर्जा का आधार भी बनाया जा चुका था। 1913 के मुक़ाबले 1940 में बिजली उत्पादन में 24 गुना बढ़ोत्तरी हो चुकी थी। तीव्र औद्योगिक विकास के साथ ही साथ इस बात का भी विशेष ध्यान रखा गया कि पूँजीवादी विकास की तरह औद्योगिकीकरण क्षेत्रीय असन्तुलन न पैदा कर दें। क्रान्तिपूर्व रूस में धातुकर्म उद्योग का एक ही केन्द्र था – उक्रेन। आरंभिक पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत एक और विशाल धातुकर्म केन्द्र पूर्व में स्थापित किया गया। क्रान्ति से पहले कोयले का केवल एक ही क्षेत्र था – दोनेत्स क्षेत्र। चौथे दशक के अन्त तक दोनेत्स, कुज़्नेत्स्क, क़रागंदा और मास्को क्षेत्र के कोयला क्षेत्रों समेत आठ स्रोत देश को कोयला सप्लाई करने लगे थे। वोल्गा और उराल के बीच एक नया तेल उत्पादन केन्द्र विकसित किया गया जो ‘दूसरा बाकू’ कहलाने लगा। देश के पूर्वी भागों में ऊर्जा, मशीन-निर्माण तथा अन्य उद्योगों के महत्वपूर्ण केन्द्र बनाये गये। मध्य रूस से पूरे कल-कारखानों, छापाखानों आदि को मध्य एशिया और पार-काकेशिया के इलाकों में स्थानान्तरित किया गया। तीसरे दशक के उत्तरार्ध में उज़्बेकिस्तान, कज़ाखस्तान और अन्य जनतन्त्रों में विराट पैमाने पर औद्योगिक प्रतिष्ठानों का निर्माण शुरू किया गया।

सुविकसित औद्योगिक आधार ने सोवियत संघ को तकनीकी और आर्थिक दृष्टि से पूर्णतः आत्मनिर्भर बना दिया था। रेल इंजनों, मोटरगाड़ियों, ट्रैक्टरों, कृषि मशीनों, धमन भट्ठी उपकरणों, टर्बाइनों, बिजली भट्ठियो, मापन यन्त्रों आदि का आयात पहली पंचवर्षीय योजना के अंत तक आते आते बन्द कर दिया गया था। 1936 में सोवियत संघ के सभी बिजलीघरों में स्वदेशी टर्बाइनें ही लगी थीं। वह ट्रैक्टरों , कृषि मशीनों, मोटरगाड़ियों, सिलाई मशीनों और बहुत  से दूसरे मालों का निर्यात भी करने लगा था।

कृषि क्षेत्र में भी सामूहिकीकरण की वजह से ट्रैक्टर, हारवेस्टर कंबाइन व अन्य आधुनिक कृषि मशीनों का इस्तेमाल करना संभव हो चुका था जिसकी वजह से कृषि की उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। दूसरी पंचवर्षीय योजना पूरी होते-होते सोवियत संघ बड़े पैमाने की कृषि वाला देश बन चुका था।

समाजवाद की वजह से सोवियत संघ की मेहनतकश जनता के जीवन-स्तर में बहुत ही कम समय में गुणात्मक बदलाव दिखने को आया। क्रान्ति के चौथे ही रोज़ आठ घंटे के काम के दिन, 18 वर्ष से कम आयु के युवाओं के लिए छह घण्टे काम के दिन, सवेतन वार्षिक अवकाश और राज्य अथवा मालिक के ख़र्च पर बीमारी और बेरोज़गारी भत्ते की व्यवस्था कर दी गई। 16 वर्ष से कम आयु के किशोरों से मज़दूरी करवाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और पुरुषों तथा नारियों को समान पारिश्रमिक देने का कानून बनाया गया। क्रान्ति से पहले जो लाखों मज़दूर परिवार झुग्गी-झोपड़ियों, तहखानों, चालों आदि में रहते थे, उन्हें बुर्जुआ लोगों से छीने गये सुविधासम्पन्न घरों में बसाया गया। सोवियत सरकार ने चिकित्सालयों, औषधालयों, सेहतगाहों, आदि का राष्ट्रीयकरण करके समस्त जनता के लिए निःशुल्क, समुचित चिकित्सा की व्यवस्था की। 1931 तक सोवियत संघ से बेराज़गारी का ख़ात्मा हो चुका था, यानी हर हाथ को काम मिल चुका 1940 तक आते-आते सोवियत संघ की राष्ट्रीय आय 1913 की अपेक्षा छह गुना ज़्यादा थी। इस राष्ट्रीय आय की तीन-चौथाई मेहनतकशों को उनके मेहनताने के रूप में दी जाती थी और एक-चौथाई सामाजिक कोष में जाती थी, यानी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास, सांस्कृतिक आवश्यकताओं, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, सामाजिक बीमा, आवास निर्माण, प्रतिरक्षा आदि पर ख़र्च की जाती थी। शिक्षा के क्षेत्र में भी सोवियत संघ में बहुत ही कम समय में ज़बर्दस्त बदलाव आया। गृहयुद्ध के कठिनाइयों से भरपूर वर्षों में ही सारे देश में अनगिनत साक्षरता केन्द्र चालू कर दिये गये थे। उनमें पढ़ने वालों को काम के दो घंटा सवेतन छुट्टी दी जाती थी। चौथे दशक के अन्त तक देश में निरक्षरता का लगभग पूर्ण उन्मूलन हो चुका था। विज्ञान के क्षेत्र में भी समाजवादी क्रान्ति ने विकास की व्यापक संभावनायें प्रस्तुत कीं। सारे सोवियत संघ में जल्द ही वैज्ञानिक शोध संस्थानों का विस्तृत जाल बिछ गया।

समाजवादी क्रान्ति की वजह से सोवियत संघ की महिलाओं की स्थिति में जबर्दस्त सुधार आया। सोवियत संघ उन पहले देशों में एक था जिसने महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया। सोवियत सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनायी जिससे महिलायें अपने घर की चारदिवारी को लाँघकर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिसा लेने लगीं। बड़े पैमाने पर शिशुगृहों, सार्वजनिक भोजनालयों आदि बनाये गये ताकि महिलाएँ नीरस घरेलू कामों से छुटकारा पाकर सामाजिक उत्पादन से जुड़ सकें। सोवियत राज्य ने मातृ-शिशु कल्याण पर विशेष ध्यान देते हुए सारे देश में प्रसूतिगृहों और प्रसव सहायता केन्द्रों का व्यापक जाल बिछाया गया जिनकी सेवायें भावी माताओं को निःशुल्क उपलब्ध थी। सभी मेहनतकश नारियों को प्रसवकाल के दौरान चार महीने का सवेतन अवकाश दिया जाता था। इसके अतिरिक्त शिशुगृहों और किंडरगार्टनों का व्यापक जाल भी बिछाया गया था जिसकी वजह से सोवियत महिलाओं की मुक्ति की दिशा में लम्बी छलांग लग पायी।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुलदिसम्‍बर  2013

 


 

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