आसाराम ही नहीं बल्कि समूचे धर्म के लुटेरे चरित्र की पहचान करो!
लखविन्दर
बलात्कार के मामले में आजकल जेल की हवा खा रहे आसाराम के काले कारनामों के बारे में टी.वी. चैनलों, अखबारों, मैगज़ीनों आदि के जरिए रोज़ाना नये-नये खुलासे हो रहे हैं। अधिकतर बात इस पर हो रही है कि एक सन्त होने का दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा अपने भक्तों की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाया गया है, कि सन्त कहलाने वाले व्यक्ति द्वारा अपनी भक्तिनों के साथ बलात्कार करके डरा-धमकाकर चुप करा कर रखा जाता रहा है और उसके द्वारा बेहिसाब धन-दौलत जुटाई गई है। कहा जा रहा है कि ऐसा व्यक्ति सन्त नहीं हो सकता। पूँजीवादी मीडिया में हो रही इस विचार-चर्चा के जरिए व्यक्तिगत तौर पर आसाराम जैसे बाबाओं पर तो निशाना साधा जा रहा है लेकिन कुल मिलाकर धर्म और सन्तों के चरित्र पर पर्दा डालने की चाही-अनचाही कोशिश हो रही है। असल में धर्म और साधू-सन्त शोषणकारी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और राजनीति से पूरी तरह घुले-मिले हुए हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि इस लुटेरे गठबन्धन की पहचान की जाए।
लोग सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा और तार्किक व वैज्ञानिक नज़रिया न होने के कारण भगवान, भूत-प्रेत, शैतान, जादू-टोने, पूजा-पाठ जैसी चीज़ों में विश्वास रखते हैं। विभिन्न धर्मों में इन विश्वासों के विभिन्न रूप हैं, विभिन्न रीति-रिवाज़ हैं। शोषक वर्ग हमेशा जनता के धार्मिक विश्वासों का फायदा उठाकर उनका आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक लूट-शोषण करते आये हैं। धर्म कभी भी पारलौकिक चीज नहीं रहा बल्कि हमेशा से ही लौकिक रहा है। हालांकि हमेशा से ही शोषक वर्ग जनता पर हथियारबन्द ताकत के दम पर राज करते रहे हैं लेकिन मौजूदा व्यवस्था से पहले गुलाम-मालिक और खासकर सामन्ती राजे-रजवाड़े इस धार्मिक विचार से राज करने की शक्ति प्राप्त करते रहे हैं कि वे भगवान का रूप हैं या कि भगवान ने ही उन्हें राज करने के लिए, धन-दौलत के मालिक बनने के लिए और जनता से सेवा कराने के लिए उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार दिया है। यह शोषणकारी सत्ता का दैवी कानूनीकरण था। लेकिन आज पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत ऐसा नहीं है। पूँजीपतियों के राज को धर्म के द्वारा सीधा दैवी कानूनीकरण प्राप्त नहीं है। लेकिन जैसे कि हमेशा से ही होता आया है, धर्म आज भी हुक्मरान पूँजीपति वर्ग के हाथों में राज करने का एक महत्वपूर्ण हथियार है।
साधू, सन्तों, पादरियों, मौलवियों आदि को हमेशा से ही शोषक वर्ग इस्तेमाल करते आए हैं। इसके बदले में इन्हें भी लूट का हिस्सा प्राप्त होता आया है। जैसे-जैसे सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक हालात बदलते गए हैं, वैसे-वैसे धर्म भी बदलता गया है। आज पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो चुकी है और धर्म भी पूँजीवादी धर्म बन चुका है। धर्म के प्रचारक साधू, सन्त, पादरी, मौलवी आदि भी पूँजीवादी रंग में रंगे गए हैं। आम तौर पर ये प्रचारक, ये ‘‘भगवान के भेजे हुए’’, या ‘‘भगवान का रूप’’ ये सन्त-बाबा खुद भी पूँजीपति बन चुके हैं। ये अब साधू-सन्त बाद में हैं बल्कि कारोबारी, दलाल, पूँजीपति पहले हैं।
मुनाफ़ा हर पूँजीपति का एकमात्र मकसद होता है। किसी भी ढंग से, भले ही कितना भी बड़ा अपराध क्यों न करना पड़े, उसे अमानवीयता की किसी भी हद तक क्यों न गिरना पड़े वह हमेशा अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की कोशिशों में लगा रहता है। हर पूँजीपति उत्पादन कराते हुए और बेचते वक्त जनता की अज्ञानता, उसके विभिन्न तरह के विश्वासों का फायदा उठाकर अधिक से अधिक मुनाफ़ा हासिल करना चाहता है। धर्म को कारोबार के साथ जोड़कर यह काम और भी बेहतर ढंग से किया जा सकता है और किया जा रहा है। धर्म और पूँजी का मिलाप अकूत मुनाफ़े का स्रोत है। हमारे देश में इतने बड़ी तादाद में सन्त पूँजीपतियों के पनपने के पीछे यही कारण है।
सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियों के नेता इनके ‘‘भक्त’’ हैं। हर सन्त के जनाधार को हर चुनावी पार्टी अपना वोट बैंक बना लेना चाहती है। सन्त अपनी पूँजी और सामाजिक आधार के दम पर अच्छा-खासा राजनीतिक असर-रसूख हासिल कर लेते हैं। सन्तों का धर्म के नाम पर खड़ा किया गया कारोबार और पूँजीवादी राजनीति एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे की सेवा करते हैं। ये सन्त अपना कारोबार बढ़ाने के लिए और अपने अपराधों को ढकने, कानूनी पचड़ों से बचने के लिए अपने सामाजिक आधार, पूँजी और राजनीतिक असर-रसूख का पूरा फायदा उठाते हैं।
आासाराम भी पूँजीपति सन्तों में से एक सन्त है। आसाराम की कुल जायदाद लगभग 5 हजार करोड़ रुपए है। सन्त आसाराम बापू ट्रस्ट नाम की संस्था के कुल 425 आश्रम हैं जिनमें से कुछ विदेशों में हैं। दवाइयों, अस्पतालों, स्कूलों, किताबों, मैगज़ीनों आदि से तो मुनाफ़ा आता ही है, चढ़ावा अलग से चढ़ता है। श्री श्री रविशंकर, गुरमीत राम रहीम, बाबा रामदेव आदि जैसे इन पूँजीपति सन्तों की संख्या भारत में बहुत अधिक है। सन् 2011 में ही बाबा रामदेव 1100 करोड़ रुपए धन-दौलत का मालिक था। उतराखण्ड में जहाँ बाहरी व्यक्ति 250 वर्ग मीटर से अधिक जमीन नहीं खरीद सकता वहाँ बाबा रामदेव 1700 बीघे का मालिक है। हमारा यह स्वदेशी बाबा अमेरिका के ह्यूसटन में 100 एकड़ जमीन और स्कॉटलैंड में एक टापू तक खरीद चुका है। आप देख सकते हैं कि पूँजीवादी धर्म कितना मुनाफ़े वाला कारोबार है।
इन सन्तों के पूँजीवादी राजनीति में असर-रसूख को भी कुछ उदाहरणों से आसानी से देखा जा सकता है। आसाराम द्वारा अकूत मुनाफ़े वाले आश्रमों, गुरुकुलों, स्कूलों का साम्राज्य सरकार की ओर से ग्रांट की गईं जमीनों पर खड़ा किया गया है। सरकार से हासिल की गईं जमीन के साथ-साथ इसने आगे भी सरकारी-गैरसरकारी जमीनों पर कब्जे जमा लिए। गुजरात सरकार ने सन् 2009 में माना था कि आसाराम के आश्रमों ने 67,099 एकड़ जमीन पर कब्ज़ा किया हुआ है। इसी तरह के आरोप उस पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी लगे हैं। सन् 2010 में आसाराम के मठों में जब चार बच्चों की रहस्यमयी मौतें हुई थी तो वह अपने राजनीतिक असर-रसूख के दम पर जेल जाने से बच गया था। इस सम्बन्धी गुजरात सरकार की ओर से मजबूरी में जो जाँच करवाई गई थी उसकी रिपोर्ट आज तक जनता के सामने पेश नहीं की गई है। गुजरात में सरकार भले ही भाजपा की रही हो या तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की, आसाराम अघोषित ‘‘राजगुरू’’ रहा है। खासकर भाजपा के नेतृत्व की प्रांतीय सरकारें आसाराम जैसे बाबाओं का खुलेआम साथ देती और लेती रही हैं। उमा भारती जब मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री थी तो बाकायदा विधान सभा में आसाराम के प्रवचन करवाए गए थे। भाजपा के आडवाणी और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेताओं के आसाराम से पुराने सम्बन्ध रहे हैं। अब जब आसाराम द्वारा नाबालिग लड़की से बलात्कार की घटना और अन्य काले कारनामे सरेआम बेपर्द हो गए हैं तो उसके ‘‘भक्त’’ नेता और पार्टियाँ सरेआम उसका साथ देने से किनारा कर गए हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भीतर ही भीतर उसे बचाने की कोशिशें नहीं हो रही होंगी। इस बार उसके अपराध के सबूत इतना स्पष्ट होना, पूँजीपति वर्ग के अंदरूनी झगड़े, मीडिया के विभिन्न हिस्सों में जबरदस्त मुकाबलेबाज़ी, समाज के जनवादी-क्रान्तिकारी हिस्सों द्वारा आसाराम के खिलाफ उठी आवाज आदि कारणों से आसाराम को जेल जाना पड़ा है। देश का पूँजीवादी न्यायिक ढाँचा उसका दोष सिद्ध करेगा और उसे सजा देगा इसकी उम्मीद कम ही है। लेकिन अगर उसे सजा मिल भी जाती है तो इससे सिर्फ इतना ही होगा कि दूसरे सन्तों को कुछ ध्यान से चलने का सबक मिलेगा। इससे अधिक कुछ भी फर्क नहीं पड़ने वाला।
अन्य सन्तों के राजनीतिक असर-रसूख के उदाहरणें भी देखिए। श्री श्री रविशंकर को आर्ट आफ़ लिविंग के हेडक्वार्टरों के लिए कर्नाटक सरकार ने 99 वर्षों के लिए जमीन लीज पर दी है। आर्ट आफ़ लिविंग ने ओडीसा सरकार की ओर से ग्रांट के तौर पर मिली 200 एकड़ जमीन पर ‘‘प्राचीन मूल्यों से युक्त आधुनिक शिक्षा” के लिए “विश्वविद्यालय’’ पिछले वर्ष शुरू किया गया है। मध्य प्रदेश में महर्षि महेश योगी को सरकार ने एक “विश्वविद्यालय” के लिए जमीन ग्रांट में दी है। बाबा रामदेव को भी विभिन्न प्रांतीय सरकारों ने जमीन दी है। नवउदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में सरकारें जनता के स्रोत-संसाधनों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपती जा रही हैं। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर जनता का पैसा और संसाधन पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने पर लगाये जा रहे हैं। इन नीतियों का ये सन्त पूँजीपति बखूबी फायदा उठा रहे हैं।
ये सन्त घोर रूढी़वादी, प्रति-क्रांतिकारी, फ़ासीवादी और जनविरोधी ताकतों का एक हिस्सा हैं। आसाराम ने अपना पहला आश्रम गुजरात के अहमदाबाद में 1970 में खोला था। लेकिन उसकी प्रसिद्धी और कारोबार खासकर 1980 के बाद फले-फूले हैं। यही वह समय है जब भारत में नवउदारवाद की शुरूआत होती है और हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी शक्तियों तथा अन्य धार्मिक कट्टरपंथी शक्तियों का उभार होता है। आसाराम का उभार भी हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ के उभार का एक हिस्सा है। आसाराम आत्मसुधार के प्रवचनों के नाम पर हिन्दुत्ववादी कट्टरता और रूढ़ीवादी संस्कृति का प्रचार करता है। स्त्रियों की आज़ादी का यह कट्टर विरोधी है। पश्चिमी संस्कृति का अन्धा विरोध इसके प्रचार का खास अंग है। ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ़ साधारण हिन्दु जनमानस में जहर घोलना और उनके खिलाफ़ हिंसक कार्रवाइयाँ तक करना इसकी संस्थाओं की सरगर्मियों का हिस्सा है। आसाराम पर बलात्कार का दोष लगने के बाद विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल ने एक प्रेस कान्फ्रेन्स में कहा कि आसाराम पर बलात्कार का दोष लगाना हिन्दु संस्कृति पर हमला है। आसाराम के चेले यह प्रचार कर रहे हैं कि बापू हिन्दु धर्म का प्रचार कर रहे थे और हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन को रोक रहे थे इस लिए गैर-हिन्दु शक्तियाँ उनके खिलाफ साजिश रच रही हैं। धार्मिक कट्टरता का प्रचार, दूसरे धर्मों के लोगों के खिलाफ माहौल तैयार करना, स्त्रियों की आज़ादी का विरोध, पश्चिमी संस्कृति का अंधा विरोध आदि बातें कम-ज़्यादा रूप में सभी सन्तों में साझी हैं। ये घोर रूढ़ीवादी सन्त मेहनतकश जनता के कट्टर दुश्मन हैं जो कभी नहीं चाहते कि मेहनतकश जनता पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ क्रान्तिकारी एकजुटता कायम करे।
धर्म के नाम पर सभी सन्त लोगों को आत्मसुधार के प्रवचन देते हैं लेकिन कभी भी खुद पर इन प्रवचनों को लागू नहीं करते। अन्य पूँजीपतियों की तरह ये पूँजीपति सन्त भी मुनाफ़े के अंधे भक्त हैं और लोगों की लूट से परजीवी और अय्याशी का जीवन जीते हैं। जनता की चेतना में किसी भी प्रगतिवादी-क्रान्तिकारी विकास की राह में ये हर-हमेशा रोड़े अटकाने का काम करते हैं। वे कभी कभी नहीं बताते कि जनता की बदहाली का कारण पूँजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकश जनता की श्रम शक्ति की लूट है बल्कि इसके लिए उसे जन्म-कर्म, पाप-पुण्य की बेबुनियादी बातों में उलझाए रखते हैं। सच्चाई बताकर वे खुद तथा समूचे पूँजीपति वर्ग के हितों के खिलाफ नहीं जा सकते। अंधविश्वासों पर टिके धर्म का नशा जनता को उसकी बदहाली के कारणों की पहचान नहीं करने देता। धर्म जो हमेशा से शोषकों की सेवा करता आया है आज पूँजीपति वर्ग की सेवा कर रहा है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2013
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